मानवी सत्ता विद्युत स्फुल्लिंगों का क्रीड़ा कल्लोल मात्र

September 1994

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इस संसार में गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से मनुष्यों की अगणित श्रेणियाँ है यहाँ ऐसे लोग भी है जिनकी क्षमता और योग्यता को देख कर हतप्रभ होना पड़ता है तथा ऐसे भी जिनकी जड़ता, अयोग्यता और मूर्खता पर बुद्धि यह मानने को तनिक भी तैयार नहीं होती कि यह मनुष्य ही है। इस भारी अंतर के कारणोँ की गहराई में प्रवेश कर विज्ञानियों और तत्वज्ञानियों ने जो निष्कर्ष निकाला है। उसके अनुसार इसका निमित्त वह प्राण ऊर्जा ही है जो जिसे अनुपात में जहाँ इकट्ठी होती है उसी स्तर के चमत्कार प्रस्तुत करने लगती है। यहाँ यदि कोई शारीरिक दृष्टि से अधिक तेजस्वी सुन्दर सक्रिय स्फूर्तिवान ओजस्वी प्रतिभावान दिखाई पड़ता है तो इसका मूल होते भी ऊर्जा की अधिक मात्रा में विद्यमानता ही है और यदि किसी में मस्तिष्क की सूक्ष्मदर्शिता दूरदर्शिता बुद्धिमता दृष्टिगोचर होता है तो यह भी उसी एक तथ्य की ओर इंगित करता है कि व्यक्ति प्राण विद्युत संपन्न है।

स्वभाव शालीनता एवं वाणी मिठास को आमतौर पर आकर्षण का मुख्य कारण कहा जाता है। अंगों की कोमलता में भी जिस सौंदर्य की झाँकी होती है, उनमें भी शरीरशास्त्रीय दृष्टि से विद्युत कंपन की ही विशेष थिरकन समायी रहती है।किसी की आंखों में किसी के होठों में किसी की ठुड्डी तो किसी के गालों में विशेष मनमोहकता देखी जाती है। इसका तात्विक विश्लेषण करने पर मानवी शरीर की बिजली ही लहराती सिद्ध होती है। इसमें जब कमी होने लगती है, तो शरीर रूखा नीरस कुरूप शिथिल निस्तेज दिखाई पड़ने लगता है आँखों में दीनता चेहरे पर उदासी छायी रहती है। इस विघटन को देख कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि तेजस्विता की तरंगें शिथिल हो गई और अभीष्ट ऊर्जा का अभाव हो गया।

शरीर में रक्त माँस की वृद्धि के लिये उपाय किये जाते हैं, पर इस तथ्य पर पहुँचने में भूल की जाती है कि अग्नि मंद पड़ जाने पर पकने और पचने की क्रिया ही नहीं उमंग और उत्कर्ष का प्रत्येक पक्ष शिथिल पड़ जाता है। यह अभाव समस्त शरीर की दुर्बलता अथवा अंग विशेष की अशक्तता के रूप में प्रकट होकर मनुष्य को रुग्ण बनता है। बीमारों में रोग कीटाणुओं की खोज की जाती है इनकी उपस्थिति कारण नहीं लक्षण मात्र है। जिस तरह निर्जीव प्राण रहित माँस पिण्ड में कीड़े पड़ जाते हैं उसी प्रकार देह में विद्युत की अभीष्ट मात्रा में जहाँ कमी आयी वहाँ उस अर्धमृत काया पर तुच्छ से कीटाणु अपना अड्डा जमाते और वंश बढ़ाते चले जाते हैं। यदि शरीर में गर्मी की बिजली की आवश्यक मात्रा विद्यमान हो तो उसके प्रचंड तेज में किसी विजातीय द्रव्य को रोग कीटक को जीवित रहने का अवसर ही नहीं रहता। बाहर के आक्रमणकारी कीटाणु उसमें प्रवेश करते ही जल भुन कर नष्ट हो जाते हैं।

शरीर विज्ञानियों का मत है सामान्यतया किसी मनुष्य की मृत्यु जब घोषित की जाती है तब उसकी पूर्ण मृत्यु नहीं होती। रक्त प्रवाह रुक जाने के बाद प्रायः 5 मिनट के उपराँत हृदय अपना काम करना बंद कर देता है। इसलिये कृत्रिम श्वास प्रश्वास क्रिया करके मृत तुल्य व्यक्ति के हृदय की गति को पुनः आरंभ कराने का प्रयत्न किया जाता है। मृत्यु क्रमिक होती है। पहले मस्तिष्क मरता है फिर अन्य अवयव मरते हैं। फ्राँस राज्य क्राँति के समय एक विद्रोही का सिर काटा गया। सरकारी रिकार्ड में उल्लेख हे कि कटा हुआ सिर बहुत देर तक इस तरह होठ और मुँह चलाता रहा, मानों वह कुछ कर रहा हो। पुराने जमाने में जब तलवारों से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थी। तो मुण्ड के कट कर अलग हो जाने के बाद भी रुण्ड उसी प्रकार तलवारें हवा में लहराते रहते थे जैसे जीवित शरीर युद्ध कर रहे हों। ऐसे ही मुण्ड भी इधर उधर लुढ़कते उछलते देखे जाते थे। यह इस बात का प्रमाण है कि कानूनी मृत्यु के बाद भी किसी रूप में देर तक जीवन बना रहता है। मरणोपराँत भी क्रिया कलाप चलाते रहने वाली इस सत्ता को आत्मवादी प्राण चेतना ही मानते रहे है।

वस्त्रों स्थानों तथा अन्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यही बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य उन वस्तुओं पर अपना प्रभाव अधिक छोड़ते हैं जिन्हें वे अधिक रुचि पूर्वक प्रयोग करते हैं। सच्चे साधु संतों की माला जनेऊ खड़ाऊ प्रयुक्त वस्त्रों को कोई व्यक्ति उपहार आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त कर लेते और उनके प्रभाव से देर तक लाभान्वित होते रहते हैं। कलम घड़ी अंगूठी बटन जैसी वस्तुओं का भी ऐसा ही महत्व हैं। भगवान बुद्ध का एक दाँत लंका में सुरक्षित है। ऐसे ही हजरत मुहम्मद साहब का एक बाल कश्मीर की हजरत बल दरगाह मस्जिद में रखा है। जैसे शरीर के साथ जुड़े हुए अवयव बाल या नाखून अपना महत्व रखते हैं वैसे ही उनसे जुड़े हुए स्थलों का भी अपना विशेष महत्व है। जो भी इनके संपर्क में आते हैं वे उनके अच्छे बुरे प्रभावों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते कारण कि इन सब के साथ संबद्ध व्यक्ति की प्राण विद्युत कुछ अंशों में चिपकी रहती हैं। यही विद्युत अपना असर दिखाती रहती है। अभिचार कृत्या घात चौकी मूँठ जैसी क्रियाओं में ताँत्रिक लोग इसी बिजली का प्रयोग कर संबद्ध व्यक्ति में भले बुरे परिणाम उत्पन्न करते हैं।

जीवित व्यक्ति में उक्त बिजली अथवा आभामंडल की व्यक्तित्व पर गहरी छाप रहती है। प्रायः यह जन्म जन्मान्तरों के अभ्यास, प्रयास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है, पर मनुष्य अपनी स्वतंत्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल भी सकता है। सामान्य स्तर के लोग इस बने बनाये तेजोवलय के अनुसार अपना स्वभाव और कर्म बनाये रहते हैं, पर मनस्वी लोग अपनी सुदृढ़ संकल्प शक्ति से अपनी अभ्यस्त आँतरिक एवं बाह्य स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन भी कर सकते हैं। तब विनिर्मित प्रभामंडल में भी वैसा ही परिवर्तन हो जाता है। उसके रंगों में कंपनी में इस परिवर्तन का हेर फेर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। सुकरात हत्यारा ही हो सकता था, पर मैंने प्रयत्नपूर्वक अपने को बदलने में सफलता प्राप्त की।

साधारणतः रूप रंग का आकर्षण हर किसी को मुग्ध मोहित करता है पर यदि तेजोवलय तद्नुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्याँकन बदल जाता है। रूपवान काया में विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो जाती है

और कुरूपों को अष्टावक्र, सुकरात, गाँधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। शरीर की कुरूपता सज्जा-साधना से एक हद छिपाई भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्म शरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता। जिनका अंतःकरण थोड़ जाग्रत हो चला है और किसी की भीतरी स्थिति समझने देखने योग्य जिनकी सूक्ष्म दृष्टि जाग्रत हो गई है, वे रंग रूप की उपेक्षा करके तेजोवलय में संव्याप्त सुन्दरता एवं कुरूपता को देख सकते है और उसी के अनुरूप किसी के प्रति श्रद्धालु अश्रद्धालु होने की आवश्यकता अनुभव कर सकते हैं। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी गर्मी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किये रहना ही है। भीतर की शक्ति बाहर निकल कर बिखरने न पाये इसके लिये वस्त्रों का आवरण चढ़ाया जाता है। नग्न शरीर रहने वाले साधु संन्यासी शरीर पर भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाये रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इसका कारण सामाजिक मान्यता भी है पर आत्मिक कारण यह है कि कोई शरीर नग्न होने की दशा अपनी षक्कित तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बिखेरता रहेगा साथ ही दूसरों के भले बुरे प्रबल प्रभावों से अपने को बचा भी न सकेगा। अनावृत शरीर पर धूप का प्रभाव अधिक पड़ता है उसी प्रकार दूसरों का चुम्बकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। रेशम एवं उन में शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है।

इसलिये प्रायः पुरश्चरण परक प्रबल साधना प्रयोजनों में सूती वस्त्रों की अपेक्षा ऊनी या रेशमी कपड़ों को अधिक महत्व दिया जाता है। यहाँ एक बात नोट कर ली जानी चाहिये कि वध करने के उपराँत भेड़ों की उतारी हुई उन अथवा कीड़ों को उबाल कर उन्हें मार डालने के उपराँत पाया जाने वाला रेशम आत्मिक उद्देश्यों में काम आने लायक नहीं रह जाता। वध के समय निकला चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता शरीरगत विद्युत के आवागमन प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमता तो ऐसे उन या रेशम में हो सकती है पर उनसे आध्यात्मिक प्रयोजनों में तो उलटी बाधा ही पड़ेंगीं उससे तो धुला हुआ सूती वस्त्र ही अच्छा है जो तेजोवलय को अपने सात्विक संपर्क में रख कर कम से कम निर्मल बनाये तो रहता है।

प्रभामंडल में विद्युत कण, चुँबकत्व, रेडियो विकिरण स्तर की चेतनायुक्त ऊर्जा भरी रहती है। इसे यंत्रों से भी जाना व मापा जा सकता है और समीपवर्ती लोग भी इसको अपने शरीर और मन पड़ने वाले अदृश्य प्रभाव के आधार पर अनुभव कर सकते हैं। कई व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद प्रेरणाप्रद और हितकर होती है। कइयों का सान्निध्य अरुचिकर और कष्टकर प्रतीत होता है इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण विकर्षण ही होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती मिलती है और सहयोग प्रोत्साहन प्रदान करती है पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकराकर वापस लौटेगी और घृणा अरुचि अप्रसन्नता खीज जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करेगी।

देखा गया है कि कई व्यक्तियों में रास्ता चलते मित्रता हो जाती है। अपरिचित होते हुए भी वे ऐसा अनुभव करते हैं।, मानों चिर−परिचित हों और पास आये, बात किये बिना रह ही नहीं सकते। इस अनायास आकर्षण के पीछे पूर्वजन्मों का संबंध परिचय भी हो सकता हे, पर प्रत्यक्ष कारण दोनों के तेजोवलय की समानता है जो एक दूसरे को समीप खींचती रहती हैं। बात की बात में वे परस्पर परिचित घनिष्ठ और विश्वस्त बन जाते हैं। तर्क के आधार पर यह आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और ऐसी जल्दबाजी में खतरे की आशंका की जा सकती है पर तथ्य इतने प्रबल होते हैं कि इन संभावनाओं को निरस्त करते हुये घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं। उसी प्रकार यह भी देखा जाता है कि स्वजन संबंधी से भी अकारण अरुचि रहती है और उसकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूंढ़ने पर वैसा कुछ कारण प्रतीत नहीं होता, तो भी ऐसी विषमता बनी ही रहती है। इसमें आभामंडल के कंपनों की गति में ऐसी असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है। इसी को कवियों ने प्रकृति मिले मन मिले अनमिल से न मिलाये की उक्ति के साथ चित्रित किया है। यह प्रकृति मात्र आहार विहार वेष भूषा आदि की समानता पर निर्भर नहीं रहती, वरन् कारण गहरा होता है इसे तेजोवलय के स्तर की समानता में ही खोजा जा सकता है अनुशासन के पालन एवं उल्लंघन में प्रायः इसी समानता असमानता के कारण उत्तेजना उत्साह मिलता है।

श्मशानों में कई बार धुँधले प्रकाश पुँज की लहरें उड़ती देखी जाती है। यह और कुछ नहीं, मृत व्यक्तियों की वह प्राण ज्योतियाँ ही है। जो स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात् इधर उधर तैरती फिरती हैं।

इनका नाश देह के साथ नहीं हो जाता है। कब्र में गाड़े गये व्यक्ति की लाश सड़ जाने पर भी उसकी वलय ऊर्जा उस क्षेत्र में उड़ती रह सकती है। इसे कभी कभी आँखों से देखा जाता है। और कभी उधर से निकलने वालों को रोमाँच कँपकँपी, धड़कन वृद्धि के रूप में इसका असुखद अनुभव होता है और वहाँ से जल्दी निकल भागने की इच्छा होती है। ऐसी अनुभूतियाँ भय और आशंका के भी कारण हो सकती है। पर कितनी ही बार पूर्ण निर्भय ओर मरणोत्तर सत्ता को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी उस तरह की प्रतीति करते और कहते हैं कि उन्हें उस क्षेत्र में कुछ अदृश्य हलचल का आभास होता है। अघोरी कापालिक इन्हीं वलय पुंजों को वशवर्ती कर उनसे अपनी स्वार्थ सिद्धि करते रहते हैं। उक्त स्वतंत्र पुँज जब शरीर में होता है तो उसे सुरक्षित संरक्षित रखने वाले व्यक्तियों में चेहरे के गिर्द आलोक की तरह फैला रहता है। यह इस ऊर्जा पुँज का ऊपरी या उत्तरी ध्रुव है। इस केन्द्र की तरह ही इसका एक दक्षिणी ध्रुव भी है। यह लिंग क्षेत्र वाला भाग है। पर चूँकि उसमें प्रजनन संबंधी आकर्षण अधिक रहता है इसलिये इस वलय का प्रभाव यौन आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है। भिन्न लिंग की समीपता ही उस वलय में अधिक उभार उत्पन्न करती है। समलिंग की निकटता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। इन अड़चनों को देखते हुये ही कटि क्षेत्र को ढका रखा जाता है। विद्युत प्रवाह की दृष्टि से वहाँ भी चेहरे की अपेक्षा मात्रा कम नहीं होती पर उपरोक्त बाधाओं ने उसे सीमित प्रयोजनों के लिये ही उपयोगी रहने दिया है। दाम्पत्य स्तर पर ही सर्वसाधारण उसका लाभ उठा पाते हैं, इस कारण ही उसे ढका हुआ, केवल प्रणय प्रयोजन के लिये ही सीमित अवरुद्ध किया गया है यदि यह दोष न होता तो यह वलय ऊर्जा चेहरे पर छाये रहने वाले पुँज से न्यून नहीं अधिक ही प्रभावशाली सिद्ध होती और शक्ति जागरण के कितने ही प्रयोजन पूरे करती। तंत्र मार्ग के पंचमकार मैथुन द्वारा इसी संसिद्धि की जाती है। यह मार्ग काली तत्व से संबंधित होने के कारण इसमें रुद्र ग्रंथि से जब शक्ति संचय करने के लिये कुर्म प्राण को आधार बनाना होता है तो मैथुन द्वारा ही सामर्थ्य भंडार जमा किया जाता है जननेंद्रिय के प्रभाव क्षेत्र में मूलाधार और के कितने ही महत्वपूर्ण संस्थान और प्राण के अवस्थान है। इनमें प्रमुख है वज्र मेरु तड़ित कच्छप कुँडल सर्पिणी रुद्रग्रंथि समान एवं सुशुम्ना आदि। इनका आकुँचन प्रकुँचन जब तंत्र विद्या के आधार पर होता है ता वलय ऊर्जा को संजोने वाले शक्ति संस्थान उत्तेजित होते और शक्ति का उद्भूत प्रवाह उत्पन्न करते हैं। यह प्रवाह दोनों ही दिशा में उलटा सीधा चल सकता है। इस विद्या के ज्ञाता जननेन्द्रिय का उचित रीति से संयोग करके काम शक्ति से आशातीत लाभ उठाते हैं परंतु जो लोग इस विशय में अनभिज्ञ है वे स्वास्थ्य और शक्ति दोनों ही खो बैठते हैं। साधारण जन तो रति क्रिया में गँवाते ही अधिक हैं पर योग साधना के विधानों द्वारा इस क्षेत्र में संकेन्द्रित वलय ऊर्जा से अन्नमय और प्राणमय कोषों की सुप्त शक्तियां जगायी भी जा सकती है।

ठस शक्ति विज्ञान को समझा और लाभ उठाया जा सके, तो प्रस्तुत विपन्नता से उबरा जा सकता है और मनुष्य भौतिक एवं आत्मिक दृष्टि से इतना संपन्न बन सकता है जिसे अद्भुत आश्चर्य स्तर का अचंभा कहा जा सके।


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