द्वैत की समाप्ति, अद्वैत की प्राप्ति

September 1994

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गायत्री का एक स्वरूप जप परक है जिसके आधार पर नित्य जप अनुष्ठान पुरश्चरण आदि के विधान संपन्न किये जाते इसका दूसरा स्वरूप है अजपा अर्थात् वह जप जो बिना प्रयत्न के अनायास ही होता रहता हो योगियों का तम है कि जीवात्मा अचेतन अवस्था में अनायास ही इस जप प्रक्रिया में निरत रहता है यह अजपा गायत्री है सोऽहम् की ध्वनि जो श्वास प्रश्वास के साथ साथ स्वयमेव होती रहती है। इसी को प्रयत्नपूर्वक विधि विधान सहित किया जाय तो प्रयास हंस योग कहलाता है। गायत्री महाविद्या के अंतर्गत हंसयोग के अभ्यास का असाधारण महत्व है तंत्र सार में इसे कुण्डलिनी जागरण साधना का महत्वपूर्ण अंग बताते हुये कहा गया है विभर्ति कुण्डल षकिरात्मानं हंसयाश्रिता अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति आत्मक्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती हैं।

गायत्री महाशक्ति का वाहन हंस है। यह पक्षी विशेष न होकर हंसयोग ही समझा जाना चाहियें यो हंस पक्षी में भी स्वच्छ धवलधारा नीर क्षीर विवेक मुक्तक आहार आदि विशेषताओं की ओर इंगित करे हुये निमा्रल जीवन सत् असत् निर्धारण एवं नीतियुक्त उपलब्धियों को ही अंगीकार किया जाना जैसी उत्कृष्टताओं का प्रतीक माना गया है किंतु तात्विक दृष्टि से गायत्री का हंस वाहिनी होना उसकी प्राप्ति के लिये हंसयोग की सोऽहम् की साधना का निर्देश माना जाना ही उचित है प्रपंच तंत्र में कहा भी गया है देह देवालय है इसमें जीव रूप में शिव विराजमान है। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं सोऽहम् साधना से करनी चाहिए।

अंतः करण में हंस वृत्ति की स्थापना की यह साधना ही अजपा गायत्री कही जाती है। अजपा गायत्री का महत्व बताते हुये अग्निपुराण में उल्लेख है अजपा नाम गायत्री ब्रह्म विष्णु महेश्वरी। अजपा जपते यस्ताँ पुनर्जन्म न विद्यते॥

अर्थात् अजपा गायत्री ब्रह्मा विष्णु और रुद्र की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। इसी तरह शिव स्वरोदय एवं गोरक्ष संहिता में कहा गया है इसका नाम अजपा गायत्री है जो कि योगियों के लिये मोक्ष देने वाली हैं इसके संकल्प मात्र से सब पापों से छुटकारा हो जाता है इसके समान न कोई विद्या है न इसके समान कोई ज्ञान ही भूत भविष्यकाल में हो सकता है।

श्वास लेते समय सो ध्वनि का और छोड़ते समय हम ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अंतः भूमिका में अनुभव करना यही है संक्षेप में सोऽहम् साधना

वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है बांसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। नासिका छिद्र भी बांसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। नासिका छिद्र भी बांसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी साधारण श्वास प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी जितनी मंदगति से ली जा सके लेनी चाहिये और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे धीरे उस वा को पूरी तरह खली कर देना चाहिये गहरी और पूरी साँस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकराकर उत्पन्न होने वाला धवि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे सुना जा के। कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेताना में ही उसे अनुभव किया जा सकता है।

सोऽहम् साधना में चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना होता है और भावना को इस स्तर तक प्रगाढ़ करना पड़ता है कि उससे श्वास लेते समय सो शब्द के ध्वनि प्रवाह की मंद अनुभूति होने लगें उसी प्रकार श्वास छोड़ी जाती है तो यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि हम ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा हैं आरंभ में कुछ समय यह अनुभूति इतनी स्पष्ट नहीं होती किन्तु क्रम और प्रयास संयमित रूप से जारी रखने पर कुछ की समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त एकाग्र होमता है वरन् आनंद का अनुभव भी होता हे यह प्रक्रिया सामान्य डीप ब्रींदिग प्रक्रिया से बहुत ऊंचे सोपान की है। मात्र फेफड़ों का व्यायाम नहीं है इतना स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिये। सो का तात्पर्य परमात्मा और हम का जीव चेतना समझा जाना चाहिये। निखिल। निखिल विश्व ब्रह्माँड में संव्याप्त महा प्राणचेतना नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करती है और अंग शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतारी जाती है और हम शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस कायकलेवर पर से अपना कब्जा छोड़कर चले जाने ईश्वर अर्पित हो जो की मान्यता प्रगाढ़ की जाती है।

प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारण है। जीवभाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता काम क्रोध लोभ मोह भरी मद - मत्सरता अपने को शरीरी या मन के रूप में अनुभव करत रहने वाली आत्मा की दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रमजाल भरे जीव भाव का हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। काय कलेवर के कण -कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीवधारण की बेदखली यही है। सोऽहम् साधना का तत्वज्ञान। श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से सो और हम ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जाग्रत किया जाता हे कि अपना स्वरूप ही बदल रहा है। अब शरीर और मन पर से लोभ मोह का वासना तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में

ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। यह एक उच्चस्तरीय चेतनात्मक परिवर्तन की भावी भूमिका है जो क्रमशः अनुभूति स्तर तक प्रगाढ़ होती चली जाती है और अंतःकरण यह अनुभव करने लगता हे कि अब उस पर असुरता का नियंत्रण नहीं रहा उसका समग्र संचालन देव सत्त द्वारा किया जा रहा है।

सोऽहम् साधना का प्रत्यक्ष प्रतिफल तभी दिखाई देता हे जब श्वास ग्रहण करते समय सो और निकालते समय हम की प्रबल धारण की जाय। इसके लिये प्रयत्न यह होना चाहिये कि इन शब्दों प्रारंभ में अति मंद स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। चिंतन का स्वरूप यह होना चाहिये कि साँस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ कायकलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे है। यह प्रवेश मात्र वायु का अंगों में आवागमन नहीं वरन् प्रत्येक अंग अवयव पर प्राण सत्ता का आधिपत्य बन रहा है एक एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना करनी चाहिये और अनुभव करना चाहिये कि उसमें भगवान की सत्त चिरस्थायी रूप से समाविष्ट हो गई। हृदय फेफड़े पाचन तंत्र आदि में परमात्मा चेतना का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित कर लिया। पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देशन पालन करना स्वीकार कर लिया। अंतःकरण चतुष्टय अर्थात् मन मस्तिष्क बुद्धि चित और अहंकार ने निकृष्टता अवाँछनीयता को त्याग कर उच्चस्तरीय आदर्शवादिता अपना ली नर और नारायण जैसा स्वरूप प्राप्त कर लिया।

यही हैं वे भावनायें जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ कल्पनाओं तक सीमित नहीं रह जाना चाहिये कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुये बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारोँ की भावनाओं की हे जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों। सोऽहम् साधना के पूर्वार्द्ध में अपने कायकलेवर पर श्वसन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुये महाप्राण की परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन भाव प्रवण चिंतन करना पड़ता हे कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के प्रत्यक्ष तथ्य के रूप में प्रस्तुत दृष्टिगोचर होने लगे।

इस साधना का उत्तरार्द्ध कषाय कल्मषों मलीनताओं शरीर में से अवाँछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का आलस्य प्रमाद जैसी दुष्कृत्यों का मन से लोभ मोह जैसी तृष्णाओं का अंतःकरण से जीवभावी अहंता का निवारण निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएं अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिये। दुर्भावनाएं और दुश्चिंतन निकृष्टताएं और दुष्टताएं क्षुद्रताएं और हीनताएं सभी निरस्त से रही है सभी पलायन कर रही है यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिये। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपराँत जो हलकापन जो संतोश उल्लास स्वभावतः होता हे और निरंतर बना रहता उसकी का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिये। तभी कहा जा सकता है कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्द्ध भी एक तथ्य बन गया।

सोऽहम् साधना के पूर्वार्द्ध में श्वास लेते समय सो ध्वनि के साथ व्यष्टिगत आत्मसत्ता पर समष्टिगत परमात्मा चेतना का आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है तो उत्तरार्द्ध में हम को अर्थात् अपनी अहंता को विसर्जित करने का भाव है। यह अहंता ही लोभ मोह की जननी है। शरीराध्यास में जीव उसकी प्रबलता के कारण भवसागर में डूबता है। माया अज्ञान अंधकार बंधन आदि की भ्रान्तियाँ एवं विपत्तियों इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती है। इसे विसर्जित कर देन पर ही भगवान का अंतः क्षेत्र में प्रवेश करना निवास करना संभव होता है।

ठस छोटे से मानवी अंतःकरण में दो के निवास की गुंजाइश नहीं है। पूरी तरह एक ही रह सकता है। दोनों रहें तो लड़ते झगड़ते रहते हैं और अंतर्द्वन्द्व की खींचतान चलती रहती भगवान को बहिष्कृत करके पूरी तरह अहमन्यता को प्रबल बना लिया जाय तो मनुष्य दुष्ट दुर्बुद्धि क्रूरकर्मा असुर बनता है अपनी कामनाएं भौतिक महत्वाकाँक्षाएं ऐषणाएं समाप्त करके ईश्वरीय निर्दोषों पर चलने संकल्प ही आत्म समर्पण है। यही शरणागति है। यही ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है तब ईश्वरीय अनुभूतियाँ चिंतन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती है। ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं सो में भगवान का शासन आत्म सत्ता पर स्थापित करने और हम में अहंता का विसर्जन करने का भाव है। प्रकारान्तर से इसे महान परिवर्तन का आँतरिक कायाकल्प का बीजारोपण कह सकते सोऽहम् साधना का यही है भावना प्रधान व्यावहारिक स्वरूप। ईश्वर जीव को मनुष्य को ऊंचा उठाना श्रेष्ठ बनाना चाहता है मनुष्य कि अपने तथा कथित पूजा पाठ के आधार पर ईश्वर को अपने इशारे पर नचाने एवं उससे उचित अनुचित मनोकामनायें पूरी कराने की पात्रता कुपात्रता परखने की न्याय निष्ठा को छोड़ देने का आग्रह करता रहता है। दोनों की दिशायें एक दूसरे के अनुकूल कैसे बने? एकत्व की सामीप्य की आशा कैसे पूर्ण हो? इस कठिनाई का समाधान सोऽहम् साधना के साथ जुड़े हुये तत्वज्ञान सन्निहित है। दोनों एक दूसरे से गुँथ जाय, परस्पर एक दूसरे में विलीन हो जाये दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाय तथा अंतःकरण आकाँक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित कर दे उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है। साधक ने इष्टदेव को भक्त ने भगवान को जीव ने ब्रह्मा को समर्पण किया है। सो ब्रह्मा की सत्ता स्वभावतः समर्पणकर्ता में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से आरंभ तो होता है पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है। यही प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के भगवान बनने का तत्वज्ञान है।। तुच्छता का असीम विशालता में परिणत हो जाना बूँद का समुद्र में विलीन हो जाना यही है वेदाँत प्रतिपादित अद्वैत की परमपद की प्राप्ति। शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम् तत्वमसि अयमात्मा ब्रह्म की अनुभूति इसी सर्वोत्कृष्ट अंतः स्थिति पर पहुंचे हुए साधक की होती हैं। ईश्वर प्राप्ति आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्मनिर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में इसे ही कहा गया है। अजपा गायत्री के हंस योग की साधना से साधक को इस लक्ष्य की प्राप्ति सहज ही हो जाती है।


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