क्रोधी लक्ष्य से वंचित

September 1994

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सब उन्हें पंडितजी कहते थे। सब के प्रति उनका अगाध स्नेह था सगे बड़े भाई भी किसी के इतने स्नेहशील कदाचित ही होते हों। उनका ध्यान हर एक की छोटी से छोटी आवश्यकता पर रहता था किसे कब क्या चाहिये। किसे क्या-क्या साथ ले जाना चाहिये?

“तुम अपना झोला बाक्स और बिस्तर दिखाओ तो सही “ उनमें से कोई ही कभी दस पाँच दिन निवास स्थान पर रह पाता था। प्रायः यात्रा करनी थी। पंडित जी भी नहीं रह पाते थे किन्तु वे हों तो यात्रा को उद्यत होने वाले का बिस्तर बंध जाने पर वे अवश्य उसे खोलने को कहते और फिर उनकी स्नेह भरी झिड़की पता नहीं तुम सबों में कब सावधानी और समझ आएंगी। न मार्ग में काम आने को मिट्टी रखी न दातोन और न कंबल जहाँ जा रहे हो, वहाँ का मानचित्र तक साथ नहीं।

वह कोई सुख सुविधा का जीवन नहीं था। प्रायः सबके पास आवश्यक वस्त्र एवं बर्तनों तक का अभाव बना रहता था जिसे सबसे अधिक आवश्यकता हो कंबल चद्दर लोटा उसका होना चाहिये। हरेक को यही लगता कि दूसरों उससे अधिक आवश्यकता है। फलतः हमारी यात्रा के समय पंडित जी को अब बंधा सामान अपर्याप्त लगना ही था और उनके लिये अपनी तो जैसे कोई आवश्यकता थी ही नहीं।

बात उन दिनों की है, जब देश स्वतंत्र नहीं हुआ था अंग्रेज सरकार का दमन चक्र पूरे वेग पर था। उस समय देश में कुछ ऐसे भी लोग थे, जिनका विश्वास अहिंसा में नहीं था। उन क्रांतिकारियों की मान्यता ठीक नहीं थी, यह कहा जा सकता किंतु उनकी देश भक्ति में कहीं कुछ कमी थी, यह कहने का साहस कभी किसी को नहीं हुआ।

दुर्भाग्यवश कहिये या परिस्थितिवश, देश के सभी क्राँतिकारी दल एक संगठन में नहीं आ सके। यह असंभव भले न रहा हो, पर अत्यंत कठिन अवश्य था। जितना सशंक सतर्क एवं गुप्त उन्हें रहना था, उसे देखते हुए वे अनेक दलों में बिखर गये यह कोई अद्भुत बात नहीं है।

देश में बिखरे उन दलों में से ही एक दल इन सबका भी था। दल का नाम था, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी। इस दल में सौ से भी कुछ ऊपर युवक रहे होंगे इन लोगों का कार्यक्षेत्र भी स्थानीय नहीं था। पूरे देश में ये सभी सक्रिय रहते थे। बिना संपर्क एवं परिचय के दूसरे दलों और जहाँ तक हो सके सत्याग्रह आँदोलन को भी स्थानीय रूप में अपने ढंग से सहायता देने का प्रयत्न करते थे। सभी अपने कार्य से संतुष्ट थे। उन्हें न यश अभीष्ट था, न सत्ता का स्वप्न उनमें से किसी ने देखा मातृभूमि के लिये अपना मस्तक अर्पित कर देना और वह भी अज्ञात रहकर यही प्रत्येक की अभिलाषा थी।

पंडित जी सबके निर्देशक थे, संचालक थे नायक थे। दल एक शरीर था और उसमें वे मस्तिष्क तो थे ही हाथ पैर का काम भी सबसे अधिक करते थे। शांत और प्रसन्न मन से सदा कर्मरत बने रहना उनकी विशेषता थी। किसी ने उन्हें कभी तनावग्रस्त भयाकुल नहीं देखा।

उस दिन माधव व्याकुल होकर फूट-फूट कर रो रहा था। पंडित जी! मुझे गोली मार दो। मैं अयोग्य सिद्ध हुआ। मैंने एक उत्तम अवसर खो दिया।”बाहर जब नगर में पुलिस उसे पकड़ने के लिये गली-गली- दौड़ती फिर रही थी। इस झोपड़ी में वह उनके पैर पकड़े कह रहा था-” आप दंड नहीं देंगे तो मैं अपने को स्वयं गोली मार लूँगा।”

“तुम न अपने को गोली मार सकते और न पुलिस के सामने सकते”। उनका स्वर गंभीर था- “तुमने अपने आपको मातृभूमि के लिये दे दिया है। अपने संबंध में तुम कोई निश्चय नहीं कर सकते। तुम्हारे संबंध में निश्चय मैं करूंगा और जब मेरे निर्णय से तुम लोग सहमत न होना, मुझे दल के नायकत्व से अलग कर देना।”

मैं उस दुष्ट को जीवित छोड़ आया और...................माधव फटी -फटी नजरों से उनकी ओर देखता रहा। उसे यहाँ के सिटी मजिस्ट्रेट को गोली मार देने का कर्तव्य दिया गया था सिटभ् मजिस्ट्रेट अंग्रेज है और उसने जो निर्मम दमन चक्र चला रखा है, उसे देखते हुये दल ने निर्णय किया था कि उस अब जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं।

उनकी योजनाओं न दल के किसी सदस्य को कभी पुलिस के हाथ पड़ने नहीं दिया। आज हुआ यह था कि क्रिकेट मैच देखने सिटी मजिस्ट्रेट साहब पधारे थे। मैच जब जम चुका था। अचानक खेल के मैदान में कहीं से एक बम आ गिरा। धुएं से मैदान भर गया। सर्वथा अहानिकर बम एक बड़ा सा पटाखा मात्र था। किंतु उसी भीड़ में भाग दौड़ मच गयी।

पुलिस दौड़ी उधर जिधर बम गिरा था और उसी क्षण एक युवक की जेब से पिस्तौल निकली। उसने सामने मजिस्ट्रेट साहब पर लगातार तीन गोलियाँ चलायी और भीड़ में कहाँ चला गया कोई जानता नहीं। घबराहट में गोरा मजिस्ट्रेट कुर्सी पर से लुढ़क गया।

“यदि माधव सरलता से न निकल सके” उनकी योजनाओं में ऐसी अनेक संभावनाएं पहिले से रहती है। आप अनुमान नहीं कर सकते कि मैदान में लगाकर कई ओर से डेढ़ दर्जन बम गिरने पर क्या अवस्था होती। स्वयं पंडित जी उपस्थित थे और उनके साथ पूरे अठारह साथी और थे। उनके झोलों में बम थे और जेबों में दो-दो भरी पूरी पिस्तौलें। साथ ही प्रत्येक को सुरक्षित वहाँ से निकल जाने की व्यवस्था थी। केवल उन्हीं और माधव को आना था उस झोपड़ी में। दूसरे साथी नगर से बाहर जा चुके थे स्टेशन से दो ट्रेनें विपरीत दिशा में जा चुकी थी। इसी समय माधव को भीड़ में से निकलते निकलते पता लग गया कि वो सफल नहीं हुआ। किंतु अब लौटने का समय नहीं था। वे उसे लगभग घसीट कर लाए थे झोपड़ी के भीतर और वह अब फूट -फूट कर रो रही था।

“तुम अब भी नहीं जानते कि क्यों तुम सुफल नहीं हुए। उन्होंने समझाने का प्रयत्न सफल न होता देखकर कहा” मैं यह खतरा लें लूँगा। एक गोली तुम चलाओ और उस वृक्ष के उस फूल को उड़ा दो।

आश्चर्य माधव असफल हुआ जिसका निशाना सबसे अधिक अचूक माना जाता था

“तुम जब तक क्रोध में रहोगे ऐसा होगा।” उन्होंने बताया उस समय भी तुम अत्यधिक क्रुद्ध थे।

“उस नालायक पर क्रोध नहीं आएगा तो क्या दया आएगी। “ माधव सचमुच अब भी कुद्ध था।

पहली बात तो यह कि हमने उसे मारने का निर्णय किया किंतु जो सबके जीवन नियंत्रक है वह उसे जीवित रखना चाहता था। वह अत्यंत गंभीर हो गये दूसरी बात यह कि हमने उसे मार देने का निर्णय किया, उस पर क्रोध करने का निर्णय नहीं किया। वह अपनी समझा से अपना कर्तव्य कर रहा है। अपने देश के प्रति ईमानदार है। तीसरी बात यह कि क्रोध करके तुम स्वयं दुःखी एवं असफल हुए। जिस पर तुमने क्रोध किया उसकी कोई हानि नहीं हुई।

अतः अब से यह समझ लो कि तुम्हें क्रोध कभी नहीं करना है।”

“क्रोध नहीं करना है?” माधव ने आश्चर्य से उनकी ओर देख। वह स्वभाव से अत्यंत क्रोधी है। उसके लिये क्रोध न करना क्या संभव होगा? हाँ क्रोध नहीं करना है केवल कर्तव्य का पालन करना है। वह कहते गये मैं जानता हूँ कि तुम्हारे लिये वह बहुत कठिन हैं, किंतु यह करना है तुम्हें। हम सब निष्काम कर्म के साधक है। अपना लक्ष्य तो हमें ही सिद्ध करना है।”

“मुझमें कौन सी कामना आ गयी?” कुछ चिढ़ उठा था माधव “कामात्क्रोवोभिजायते” अथवा लोभत्क्रोधेभिजायते।”। दोनों बातें कहीं गयी है। हम कुछ चाहते हैं और वह नहीं होता नहीं मिलता तो क्रोध होता है या हमें कुछ मिला है वह कोई मांगे या छीने तो क्रोध होता है। हम चाहते हैं कि अमुक अधिकारी अमुक ढंग से व्यवहार करे और वह नहीं करता तो हमें क्रोध आता। उनके ये उपदेश गले उतरे या नहीं कौन कहा सकता है।”

हम कुछ नहीं चाहते तो क्या व्यर्थ ही ये पिस्तौलें लिये घूमते हैं। माधव खीझ उठा।

“हम देश को स्वाधीन करने के अपने कर्तव्य का पालन करने चले है। “ पंडित जी शांत बने रहे-” तुम केवल इतना स्मरण रखो। शेष सब मुझ पर छोड़ दो और कर्तव्य मानकर आदेश का पालन करो तो आज जैसी असफलता नहीं आएगी।

“क्रोध आएगा नहीं, यदि कामना नहीं आएगी।

चंद्रशेखर आजाद जिन्हें उनके दल के लोग प्यार से पंडित जी कहते थे उनके स्नेह भरे वचन तुम क्रोध मत करो चाहो कुछ मत। केवल कर्तव्य का पालन करो। जहाँ जिस कर्तव्य में लगे हो उस कर्तव्य का पालन करो। कितना उच्चस्तरीय चिंतन रहा होगा स्वतंत्रता की बलि वेदी पर चढ़ने वाले शहीदों का? हमें आजादी यों ही नहीं मिली उसका आधार बड़ा सशक्त व उद्देश्य बड़ा निर्मल रहा है।


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