हिंसा क्या, अहिंसा क्या

September 1994

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अच्युत! आपके आदेश मेरे लिये सदा शास्त्र रहे है। गांडीवधारी के प्रश्न का समाधान जहाँ प्राप्त हो सकता था, वहीं पहुँचा वह प्रश्न हमने खाण्डव अग्निदेव को अर्पित कर दिया किन्तु वन के तो असंख्य प्राणियों की हत्या हुयी।

बहुत से प्राणी मेरे बाणों से ही मारे गये यह बात भी पूरी कर दो। मंजू स्मित आया मोहन के श्रीमुखकमल पर जो प्रजा का त्राता है वह अहिंसक बन जायेगा तो संपूर्ण प्रजा नष्ट हो जायेगी। प्रजा के प्राण एवं धन की रक्षा के लिये तुम्हारे हाथ में धनुष रहता है। वन्य पशु एवं प्राणी जब मानव के प्राण एवं उत्पादन के लिये संकट बन जायें तो पालक के लिये उनकी हिंसा अनिवार्य हो जाती है।

अर्जुन ने मस्तक झुका लिया। अनेक की हिंसा रुकती हो कुछ थोड़े प्राणों की बलि से तो उन थोड़े प्राणों की बलि अहिंसा भले न हो, कर्तव्य अवश्य हो जाएगी, यह पार्थ को समझना नहीं था उन्हें भी समझना नहीं था कि संपूर्ण प्रजा अपने अहिंसा धर्म का पालन कर सके, इसलिये अनिवार्य हिंसा का कर्तव्य क्षत्रिय अपने सिर लेता है। उसका धनुष उस कर्तव्य पालन रूप हिंसा का प्रजा की रक्षा का और अभय का प्रतीक है।

देव इसी समय दारुक ने आकर मस्तक झुकाया अंजलि बाँधकर अभी कहीं यात्रा करनी है आपको अर्जुन ने श्री कृष्ण के सारथी की ओर देखा और फिर देखा अपने उस अद्भुत मित्र की ओर। इस यात्रा की तो उनसे कोई चर्चा हुई ही नहीं थीं।

“मैं एकाकी कहाँ जा रहा हूँ।” तुम भी मेरे रथ से ही चलो। श्री कृष्ण ने उठते हुये अर्जुन को भी हाथ पकड़ कर उठा लिया।” समीप के अरण्य में अवधूत श्रेष्ठ चण्डकेतु पधारे है। तुत उनके नाम से परिचित हो सुह्म के भूतपूर्व प्रतापी नरेश। राजसदन वे आने से रहे। हम उन्हें प्रणाम कर आयें।

चण्डकेतु वे अप्रतिमभट महा शूर जिनसे जरासंध को भी मैत्री की याचना करनी पड़ी थी और वे अब अवधूत हैं। अर्जुन के मन में अनेक स्मृतियां आयीं। अनेक विचार उठे उनकी मित्रता थी पिता श्री से। किंतु आज उन वीतराग के लिये पुराने स्नेह संबंध कहाँ स्मरणीय है। वे तो इन मयूर मुकुटी के भी दर्शनार्थ नहीं आ रहे नगर में।

चिंतन के इसी सिलसिले में रथ अरण्य में जा पहुँचा। अर्जुन ने देखा कि अवधूत चण्डकेतु ने प्रणाम करते श्री कृष्ण को भुजाओं में भर लिया था और अपने नेत्र प्रवाह से उनकी घुँघराली अलकें सींचते जा रहे थे “आज मेरा शरीर सार्थक हुआ। धन्य हो गये मेरे नेत्र।”

धूलिधूसर देह, अस्त व्यस्त केश राशि, कोपीन मात्र वस्त्र कोई पागल हो ऐसे प्रतीत होते अवधूत देर तक हृदय से द्वरिकेष को लगायें रहे और अंत में वहीं भूमि पर अर्जुन ने अपना उत्तरीय डाल दिया। तीनों ही बैठ गये उस आसन पर।”

“एक एकाकी अकिंचन कहाँ तुम्हारे दर्शन की तृष्णा नेत्रों में सँजोये है, तुम इसे सावधानी से स्मरण रखते हों। अवधूत के अश्रु थमते नहीं थे।

“पार्थ के मन में प्रश्न है कि कभी के अजेय महाराज ने यह वेष क्यों स्वीकार किया? श्याम सुन्दर ने प्रसंग परिवर्तित किया। महाराज धर्म के ज्ञाता है और प्रजा रक्षण रूप क्षत्रिय को परमगति देने में असमर्थ नहीं है।

तुम्हारी कृपा से मैं धर्म का कुछ मर्म समझ सका हूँ, क्योंकि धर्म के प्रभु तुम्हीं हों।” अवधूत ने अपने हाथों से ही नेत्र पोंछ लिये “तुम चाहते हो कि अहिंसा की बात अवधूत ही करें।”

दो क्षण रुककर वे बोले “ प्राणियों को पीड़ा दिये बिना भोग प्राप्त नहीं होते। पदार्थ असीम नहीं है और प्राणियों की कामनायें अनंत है। मैंने देखा मेरे कुछ शस्त्रों के सहारे मकड़ी ने जाला बना लिया है। कई दिन से वे शस्त्र प्रयोग में आये नहीं थे। उस क्षुद्र जीव का भवन नष्ट किये बिना मैं। वे शस्त्र उठा नहीं सकता था।

“वत्स! व्यवहार हिंसा की एक सीमा के औचित्य को स्वीकार करके चलता है। तुम जिन पदार्थों का उपयोग करते हो, वे सभी अन्य प्राणियों के अभिलषित हो सकते हैं। उनकी कामना को नष्ट करके ही हम भोग पाते हैं। अपने एवं अपने आश्रितों की जीवन रक्षा के लिये एक सीमा तक हिंसा को स्वीकार करना अधर्म नहीं है।

“कर्तव्य की भी एक सीमा होती है। उस सीमा से आगे कर्तव्य की मान्यता भी मोह ही है।” मैंने कुलगुरु से जिज्ञासा की युवराज अब प्रजा की रक्षा करने में सक्षम हैं। मेरा कर्तव्य अब संपूर्ण माना जाना चाहिये।”

जब तक शरीर की सार्थकता है, शरीर की सार्थकता है, शरीर के धारण के कर्तव्य शेष है, अंतःकरण की शुद्धि के लिये कर्तव्य कर्म आवश्यक है, अहिंसा सम्यक् संपूर्ण नहीं हो सकती।”अवधूत ने कहा -”इस शरीर के रहने न रहने का आग्रह जब पूर्णतया छूट जाता है, शरीर की अपेक्षा नहीं रहतीं तब संपूर्ण प्राणियों को अभय देकर ही यह सन्यात पूर्ण होता है।”


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