अब बारी देवत्व के विकास की है

September 1994

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सभी धर्म-पुराणों में सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय एवं उस पर निवास करने वाले मनुष्य सहित समस्त जीवधारियों तथा वृक्ष-वनस्पतियों के बारे में सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इस संबंध में वैज्ञानिकों की भिन्न-भिन्न प्रकार की विचार धाराएँ देखने को मिलती है विशेष कर मनुष्य के विकास के बारे में। चार्ल्स डार्विन ने तो इस विकास प्रक्रिया को प्रकृति के चुनाव का एक सहज क्रम बताया और मनुष्य को बंदर की औलाद ठहराने का प्रयत्न किया है। आधुनिक जैविकी मान्यताओं जीवधारियों को फाइला, क्लासेज, आर्डर्स, फेमिलीज, जेनेरा और स्पेसीज में वर्गीकृत किया गया है। इन सबका अस्तित्व वंशानुक्रम और संघर्ष के कारण दृष्टिगोचर होता है। विकासवाद के आरोह की यही प्रक्रिया है जो छोटे से प्रोटोप्लाज्मिक इकाई अमीबा से लेकर विशालकाय स्तनधारियों पर समान रूप से लागू होती है। लेकिन अब इस प्रकार की परंपरागत रूढ़िवादी मान्यताओं सिद्धान्तों को महत्वहीन समझा जाने लगा है। आरोह और अवरोह जैसी प्रगतिशील मान्यताओं पर नये सिरे से विचार किया जा रहा है। मानवी आकांक्षाओं एवं प्रयास-पुरुषार्थ को आरोह और दैवीय सत्ता की अनुकंपा को अवरोह की संज्ञा दी गयी है और चेतनात्मक विकास के लिए इसे ही निमित्त कारण माना गया है।

प्रख्यात यूनानी हेराक्लिट्स ने कहा है कि सृष्टि का निर्माण किसी देवता या मनुष्य ने नहीं किया, वह तो शाश्वत रूप से प्राणवान अग्नि थी, है और रहेगी जो नियमित रूप से जलती व बुझती रहती है अर्थात् दृश्य या अदृश्य होती रहती है। बाइबिल में कहा गया है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। दार्शनिक हेगेल के मतानुसार यह संसार मनुष्य के बाहर स्थित किसी वस्तुगत चेतना द्वारा निर्मित है। ज्योतिष विज्ञानी सर फ्रेड हायल का कहना है कि जीवन का बीज सर्वप्रथम धरती पर अन्य ग्रहों की चेतना से अवतरित हुआ है। मांडूक्योपनिषद् में चेतना के प्रथम स्तर को वैश्वानर के नाम से संबोधित किया गया है और कहा गया है कि आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा इसे विकसित करके नर से नारायण स्तर तक पहुँचकर आरोह की स्थिति में आती है और दैवी चेतना से संबद्ध हो जाने पर प्राणि मात्र के लिए कल्याणकारी अनुदानों को बखेरती है।

इस संदर्भ में पिछले दिनों अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें सृष्टि एवं जीवन की उत्पत्ति तथा विकास पर गंभीरतापूर्वक विचार मंथन किया गया। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि धरती पर जीवन करोड़ों वर्ष पूर्व समुद्र में रासायनिक प्रक्रिया द्वारा हुआ है। इसमें आद्य तत्व अमीनो एसिड थे जो रासायनिक प्रक्रिया द्वारा जीवित प्रोटीन अणु में परिवर्तित हुए और उपापचय का गुण प्राप्त किया, जो जीवन की एक मौलिक विशेषता है। आरंभ में यह प्रोटीन तथा अन्य जटिल जैव यौगिक अजैव लवणों से मिलकर विशेष बूँद कलल जैसे यौगिक-कोये सेवेन्ट बने। इनमें जातीय पर्यावरण के साथ उपापचयात्मक आदान-प्रदान तथा अन्य जैव द्रव्यों को आत्मसात् करने की क्षमता थी। इसके बाद अधिक स्थिर कोये जटिल बहु आणविक प्रोटीन बने। अनुकूल पर्यावरण में पहुँच कर और उसके साथ उपापचयात्मक आदान-प्रदान स्थापित कर यही प्रोटीन जैवकाय बन गया। उनके अनुसार धरती जैसा जीवन विश्व ब्रह्मांड में अन्यत्र भी हो सकता है। प्रमाण प्रस्तुत करते हुए इस निष्कर्ष में कहा गया है कि उसका पिण्डों में भी अमीनो एसिड पाये गये है जो बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन अन्य ग्रहों की देन है।

विकासवादियों का कहना है कि आज से कोई दो ढाई सौ करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर होने वाली रासायनिक और भौतिक क्रियाओं के फलस्वरूप भौतिक तत्व से जीवत्व स्वयं ही अस्तित्व में आ गया था। प्रारंभ में जीवन की उत्पत्ति समुद्र के छिछले जल के धूप के संपर्क से लसलसी झिल्ली के समान लगने वाले प्राणियों के रूप में हुई। कालान्तर में परिस्थितियों में परिवर्तन होने के कारण उसकी शरीर संरचना सरल से जटिलतम होती चली गयी जिससे विभिन्न प्रकार के प्राणी अस्तित्व में आये। जीव विकास के इस सिद्धाँत का प्रतिपादन सर्व प्रथम फ्राँस के प्राणि विज्ञानी लेमार्क, इंग्लैण्ड के चार्ल्स डार्विन तथा अल्फ्रेड वालेस आदि ने किया। बाद में आँगस्टन वीजमान, ह्यगो द ब्रीज तथा सिम्पसन जैसे विख्यात वैज्ञानिकों ने इसमें कुछ संशोधन किया।

अनुसंधानकर्ता जीव विज्ञानियों ने जीवन के विकास को कई युगों में विभाजित किया है। प्रथम युग को उनने आर्कियोजोइक एज या प्रजीव युग कहा है जिसमें ऐसे सूक्ष्म जीव उद्भूत हुए जिनका अस्तित्व मात्र अनुमान पर आधारित है। इसके बाद प्रोटेरो जोइक एज या प्रारंभिक जीव युग आता है जिसमें लसलसी झिल्ली और कई के सदृश प्राणी और वनस्पतियाँ अस्तित्व में आयी। यह युग 120 करोड़ वर्ष पूर्व से 55 करोड़ वर्ष पूर्व तक चला। तीसरा युग “ पेलियोजोइक एज” अर्थात् प्राचीन जीवयुग कहलाता है जिसका उत्तरार्द्ध प्राइमरी पीरियड तथा पूर्वार्द्ध सेकेन्डरी पीरियड या मेसोजोइक एज के नाम से जाना जाता है।

प्राइमरी पीरियड-प्राथमिक युग में ही प्रथम रीढ़ की हड्डी वाले जीवों का प्रादुर्भाव हुआ। इस काल में पहले विशालकाय जल बिच्छू और बाद में मछलियाँ उत्पन्न हुई। कलप भी कहा जाता है। मत्स्य युग के अंत में उभयचर प्राणी जैसे मेढ़क, केकड़े आदि उत्पन्न हुए। सेकेन्डरी पीरियड में पृथ्वी की जलवायु में अनेकानेक परिवर्तन हुए, फलस्वरूप नये प्राणियों का विकास हुआ। इनमें डायनोसौर जैसे भीमकाय महा सरीसृपों का बाहुल्य था, अतः इसे सरीसृप कल्प भी कहते हैं। यह समय अब से लगभग छः करोड़ वर्ष पूर्व तक चला।

जीव विकास के इतिहास में इसके बाद का युग “ केनोजोइक एज” या नवजीवन युग कहलाता है, जो अभी तक चल रहा है। इस काल में पृथ्वी विविध प्रकार के प्राणियों और पेड़-पौधों से भर गयी।इन जीवधारियों में पक्षी और स्तनधारी प्रमुख है। नृवंशवेत्ताओं के अनुसार इन्हीं स्तनपायी प्राणियों के विकास की अगली कड़ी नर वानर थे जिनके परिष्कार के द्वारा मनुष्य जाति का आविर्भाव हुआ। इस शृंखला में सर्वप्रथम मानव सम प्राणी “ होमिनिड” अस्तित्व में आये जिनसे कालान्तर में पूर्ण मानव जिन्हें विज्ञान की भाषा में होमोसेपियंस कहा जाता है, की उत्पत्ति हुई।

कुछ विकासवादियों का मानना है कि मनुष्य का विकास बन्दर से नहीं, वरन् किसी ऐसे “ एर्न्थोपाएड” से हुआ है जो गोरिल्ला, चिंपांजी और ओरंग उटान से मिलता जुलता होने पर भी उससे भिन्न था। यह प्राणी सीधा खड़ा होकर चलता था और भूमि पर रहता था तथा पेड़ों पर आसानी से चढ़ लेता था। इसकी खोपड़ी कुछ गुम्बदाकार और नाक का अग भाग चपटा था और मस्तिष्क बन्दरों की अपेक्षा बड़ा एवं विकसित था। परंतु मनुष्य का वह पूर्वज कौन था और सर्व प्रथम कहाँ पैदा हुआ? यह सभी तथ्य अभी अज्ञात ही बने हुए है। वैज्ञानिकों ने इसे ‘ मिसिंगलिंक’ अर्थात् लुप्त कड़ी कह कर संतोश कर लिया है।

संत विनोबा के अनुसार यह सृष्टि तो अनादि कही गई है, किंतु जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसे दो ढाई सौ करोड़ वर्ग पूर्व अस्तित्व में हो गये है। ऐसा पौराणिक ऋषियों और आधुनिक वैज्ञानिकों का गत है। अनुसंधानकर्ताओं ने भी रेडियो सक्रिय अधिविश्ट पद्धति द्वारा पृथ्वी की आयु चार अरब वर्ष से कम (3.3 अरब वर्ष) आँकी है। प्राणि विज्ञानियों ने अन्य इस तथ्य का भी रहस्योद्घाटन किया है कि विकास क्रम में मनुष्य गर्भ में मछली, मेढ़क, साँप और पक्षी के आकार से क्रमशः विकसित होकर मानव अवस्था तक पहुँचता है। इससे प्रमाणित होता है कि मनुष्य भी इन योनियों से कभी सम्बद्ध रहा है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद सुरदुर्लभ मानव जीवन की उपलब्धि होती है, भ्रूणीय विकास सम्बन्धी यह प्रमाण इस दार्शनिक तथ्य की पुष्टि करते हैं।

सुविख्यात प्राणि विज्ञानी डॉ. जी.बी.एस. हाल्डेन ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि भ्रूण अवस्था में जीव एक समान होते हैं और वयस्क मनुष्य का पूरा रूप-आकार वहीं पर निर्धारित होता है जिसका बाद में विकास भर होता है। तुलनात्मक भ्रूण विज्ञान से भी इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। कि परस्पर संबंधित प्राणियों के विकास की प्रारंभिक प्रक्रिया प्रायः एक जैसी होती है। अनेक जीवधारी वयस्क होने पर एक दूसरे से नहीं मिलते, किंतु भ्रूणावस्था में वे भी परस्पर मिलते हैं। मनुष्य भी गर्भावस्था में एक कोषीय से विभाजित होकर क्रमशः मत्स्य, मेढ़क, सर्प और पक्षी के आकार का होकर स्तनधारियों की अवस्था में आता है, जो इस बात को प्रमाणित करते हैं, कि मनुष्य की उत्पत्ति एक कोषीय अमीबा जैसे प्राणी से हुई है, भले ही लाखों योनियों को पार कर यहाँ तक पहुँचने में उसे करोड़ों वर्ष का समय लगा हो। फ्राँस के सुप्रसिद्ध दार्शनिक रोबिने ने भी इसी प्रकार का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए भारतीय संस्कृति की मान्यताओं की पुष्टि की है कि चौरासी लाख योनियों से गुजरने के बाद मानव जन्म मिलता है।

ख्यातिलब्ध प्राणि शास्त्री हाल्डेन ने विकास प्रक्रिया को भारतीय धर्म-संस्कृति में वर्णित ईश्वरीय अवतारों से सुसंबद्ध कर समझाया है। उनके अनुसार लगभग 35 करोड़ वर्ष पूर्व रीढ़ वाले प्राणियों का इस पृथ्वी पर आधिपत्य रहा, जिन्हें मत्स्यावतार कहा जा सकता है। इसके बाद करीब 25 करोड़ वर्ष पूर्व उनका स्थान जमीन पर चलने वाले जीवों ने ले लिया, जिनकी तुलना कच्छपावतार से की जा सकती है। छः करोड़ वर्ष पहले पाये जाने वाले स्तनधारी चौपाये वाराह अवतार से मिलते-जुलते थे। पूर्ववर्ती श्रेणी के प्राणियों से वे बहुत अधिक विकसित थे। डेढ़ करोड़ वर्ष पूर्व उनमें मानवों के कुछ गुण विकसित हो गये थे और वे नरसिंह अवतार के करीब थे। दस लाख वर्ष पूर्व ही इनमें परिवर्तन आया और वे सीधे खड़े रहने वाले बौनों की शकल में रूपांतरित हो गये, जिन्हें वामन अवतार के समतुल्य माना जा सकता है। यद्यपि यह जाति पूर्णतया मनुष्य जाति नहीं थी, किंतु बंदर की तुलना में मनुष्य से बहुत कुछ मिलती जुलती थी। रीढ़ धारी प्राणियों में यह सबसे अधिक विकसित जाति थी। अपने इस कथन की पुष्टि उनने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में अब तक पाये गये जीवधारियों के विविध फासिल्स जीवष्यों के आधार पर की है।

हिन्दू धर्म में 24 अवतारों का वर्णन है जिनमें दस प्रमुख है। वस्तुतः ये मानवी विकास क्रम के दृष्टांत है जिनमें क्रमशः चेतनात्मक उत्कर्ष होता चला गया। इनमें आरोह और अवरोह दोनों का सम्मिश्रित स्वरूप स्पष्ट देखा जा सकता है। मत्स्यावतार पृथ्वी और पानी के मध्य निवास कर रहे जल स्थलचरों में हुआ। इस समय इन्हीं प्राणियों का बाहुल्य रहा होगा। नृसिंह भूमि का हे जो मनुष्य और पशु के बीच संबंधों को दर्शाता है। वामन अवतार छोटे और अविकसित लोगों को ऊँचा उठाने के लिये था राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि अवतारों को राजसिक, सात्विक और निष्कलंकता का प्रतीक माना जाता है। यह सभी चेतना के उत्तरोत्तर विकास के प्रतीक है योगीराज व अरविन्द ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि मनुष्य जीव चेतना से ऊपर उठकर अर्थ देवता बन चुका है और अब आगे पूर्ण देवत्व की ओर अग्रसर है। बौद्धिक विकास के बाद अब आत्मिक प्रगति का युग आ रहा है। उस अब विकासवादी अपंगों की बैसाखी अथवा मनोवैज्ञानिक सहारे की आवश्यकता नहीं वरन् व्यक्तिगत चेतना को समष्टिगत चेतना के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। सामान्य स्तर के व्यक्ति को अति मानसिक स्तर तक ऊँचे उठने की सामर्थ्य चेतना के अवरोहण से ही संभव है।


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