यह जगत ब्रह्म सत्ता की इच्छा-स्फुरणा मात्र

September 1994

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समूचा विश्व ब्रह्मांड त्रिआयामी है। इसके अस्तित्व की तीन इकाइयां मानी गयी हैं-1- ईश्वर 2-जीव 3- प्रकृति। ईश्वर के तीन गुण हैं- सत् चित्त आनंद। सत् अर्थात् अस्तित्व युक्त। जो है था जो रहेगा उस अविनाशी तत्व को सत् कहते हैं। चित् अर्थात् चेतना। जिसमें सोचने विचारने निर्णय करने एवं भावाभिव्यक्ति युक्त होने की विशेषतायें है, उसे चित्त कहेंगे। आनंद अर्थात् सुख संतोश और उल्लास का समन्वय। ईश्वर अस्तित्ववान है चैतन्य है तथा आनंदानुभूति में भरा पूरा है। इसलिये उसे सच्चिदानन्द कहते हैं।

जीव के दो गुण है सत्त और चित्। वह अस्तित्ववान है ईश्वर से उत्पन्न अवश्य है पर लहरों की तरह उसकी स्वतंत्र सत्ता भी है और वह ऐसी है कि सहज ही नष्ट नहीं होती। मुक्ति में भी उसका अस्तित्व बना रहता है और निर्विकल्प सविकल्प स्थिति में सारूप्य सायुज्य सालोक्य और सामीप्य का अनुभव करता है। प्रलय में सब कुछ सिमट कर एक में अवश्य इकट्ठा हो जाता है, फिर भी आटे की तरह एक दीखते हैं भी जीव कणों की स्वतंत्र सत्ता बनी रहती है। मूर्च्छा स्वप्न सुषुप्तुर्या एवं समाधि अवस्था में भी मूल सत्ता यथावत् रहती है। मरणोत्तर जीवन तो रहता ही है। इस प्रकार जीव की सत्-अस्तित्ववान स्थिति अविच्छिन्न रूप से बनी रहती है।

जीव का दूसरा गुण है चित् अर्थात् चैतन्यता। चेतना उसमें रहती ही है। यह चेतना ही उसका स्व है अहंता ईगो “ सेल्फ या आत्मानुभूति इसी को कहते हैं। तत्वज्ञानियों से लेकर अज्ञानियों तक में यह स्थिति सदैव पायी जायेगी। ईश्वर में आनंद परिपूर्ण है। जीव उसकी खोज में रहता है, उसे प्राप्त करने के लिये विविध प्रयास करता है और न्यूनाधिक मात्रा में, भले-बुरे रूप में उसी की प्राप्ति के लिये लालायित ओर यत्नशील रहता है।

प्रकृति में एक ही गुण है सत्। उसका अस्तित्व है। वह संपूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति जो ठहरी। अणु-परमाणुओं के रूप में, दृश्य और अदृश्य प्रक्रिया के साथ जगत सत्ता के रूप में इसको देखा जा सकता है। ईश्वर और जीव दोनों का क्रियाकलाप इस प्रकृति प्रक्रिया से साथ ही गतिशील रहता है। महाप्रलय में प्रकृति सघन होकर पंचतत्वों की अपेक्षा एक महातत्व में विलीन हो जाती है। इस प्रकार जब कभी इस विश्व ब्रह्माण्ड की लय प्रलय होगी तब ईश्वर के सत्त तत्व में प्रकृति लीन हो जायेगी। जीव चित् में घुल जायेगा और उसका अपना अतिरिक्त गुण आनंद यथावत् बना रहेगा।

महासृष्टि के आरंभ का क्रम भी यही है। तत्वदर्शियों के अनुसार ब्रह्म प्रचुर मात्रा में उसके भीतर विद्यमान है। उनमें से इच्छानुसार जिन्हें चाहें उन्हें वह अभीष्ट मात्रा में विकसित एवं उपेक्षित कर सकता है। मनुष्य की उन्नति-अवनति का, सुख और दुख की स्थिति का पूर्णतया उत्तरदायी वह स्वयं ही है। प्राणियों के भीतर विद्यमान एक स्वसंचालित प्रक्रिया के रूप में ईश्वर उनके भीतर विद्यमान भी है और किसी कार्य में व्यक्तिगत आधार पर हस्तक्षेप करने के झंझट से वह दूर भी है। इसलिये करने के झंझट से वह दूर भी है। इसलिये आत्मवेत्ता उसे निकट भी मानते हैं और दूर भी, उसे भीतर भी कहा जाता है ओर बाहर भी।

प्रकृति की सत्ता भी इसी प्रकार अपनी पटरी पर दौड़ती धुरी पर घूमती है। अणुसत्ता स्पष्टता स्वचालित हैं। वस्तुओं का विकास और विनाश अप्रकटीकरण और विलीनीकरण अपने ढंग से होता रहता है। आगे-पीछे बढ़ने हटने धुरी पर घूमने उठने और गिरने के असंख्य क्रम इस प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञात और अविज्ञात प्रकरणों में चलते रहते हैं।

इस सबके भीतर काम करने वाले ‘महत्व प्रकृति के गर्भ में समाविष्ट ईश्वरीय सत्ता को अध्यात्म की भाषा में हिरण्यगर्भ ‘ कहते हैं। दृश्य जगत के बीज में इन्हीं दो शक्ति संस्थानों को काम करते हुये देखा जा सकता हे। पदार्थ की मूल सत्ता महातत्व’ है ओर उसमें जो गतिशीलता पायी जाती है उसे हिरण्यगर्भ ‘ कहते हैं। इस प्रकार चेतन जीवधारियों की तरह ही, किन्तु दूसरे ढंग से ईश्वर सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ माना गया है। ज्ञान इच्छा और क्रिया के त्रिविध स्फुरण जीव के है। किंतु प्रकृति हलचल एवं क्रमबद्धता के आधार लेकर ही अपनी हलचलें गतिशील रखे रहती है।

अध्यात्मवेत्ता मनीषियों के अनुसार महत्व और हिरण्यगर्भ यह दो प्रकृति बीज जब अपनी अव्यक्त स्थिति से आगे बढ़कर व्यक्त होते हैं अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल बनते हैं तब उन्हें ताप और प्रकाश के रूप में देखा जाता है। गति की प्रतिक्रिया ताप और प्रकाश है वह चक्राकार घूमती है और आगे बढ़ती है। बस यहीं से वह क्षेत्र आरंभ हो जाता है जिसे हम प्रकृति क्षेत्र कहते हैं।

पदार्थ विज्ञान कार्यक्षेत्र यहीं से आरंभ होता है। भौतिक विज्ञानी यहीं से अपना श्री गणेश करते हैं। ईश्वर जीव एवं अव्यक्त प्रकृति का विवेचन भौतिक विज्ञान का नहीं आत्म विज्ञान का कार्यक्षेत्र है। उसके लिये जिन यंत्रों उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें कलकारखानों में नहीं बनाया जा सकता है। मानवी अंतःकरण के रूप में ईश्वर की प्रयोगशाला में ही उसका निर्माण होता है। तपश्चर्या ओर योगाभ्यास से उसे अधिकाधिक प्रखर एवं संवेदनशील बनाया जाता हे। अनुभूतियों के रूप में उस अविज्ञात समझे जाने वाले क्षेत्र की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त की जा सकती है। इतना ही नहीं ईश्वरीय महत्ता और जीव सत्ता में सन्निहित प्रकृतिगत ऊर्जा की अपेक्षा असंख्य गुनी आत्मशक्ति के प्रयोग उपयोग का लाभ उठाया जा सकता है। यह क्षेत्र विशुद्ध रूप से आत्म विज्ञान का है। भौतिक विज्ञान के नियम तो काम करते हैं, उनका नियंत्रण भी है, पर कठिनाई यह है कि पदार्थों के बने कोई यंत्र उपकरण उतने संवेदनशील अभी नहीं बन सके है जिनसे विश्व ब्रह्माण्ड में काम करने वाली दिव्य सत्ता की महत्ता को प्रत्यक्ष देखा समझा जा सके।

अव्यक्त प्रकृति के दो आधार ‘महातत्व और हिरण्यगर्भ’ है जिन्हें संक्षेप में पदार्थ का आकार प्रकार और उसके क्रियाकलाप भी कह सकते हैं। भौतिक विज्ञानी इन दोनों के समन्वय का सर्वप्रथम परिचय विश्व ब्रह्माण्ड के रूप में प्राप्त करते हैं। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि चिर अतीत में पदार्थ एक विशाल ब्रह्माण्ड मात्र था। उसमें विस्फोट हुआ और वह अगणित निहारिकाओं के रूप में बिखर गया। विस्फोट से जो शक्ति उत्पन्न हुई उसने निहारिकाओं में विभिन्न प्रकार की हलचल उत्पन्न कर दी, तदनुसार पदार्थ के कई पदार्थ के कई प्रकार के गुण धर्म प्रकट हो गये।

वैज्ञानिकों द्वारा सृष्टि के आरंभ का किया गया प्रतिपादन यह है कि ब्रह्माण्ड कंदुक में महाविस्फोट से जो बिखराव निहारिकाओं के रूप में विभाजित हुआ, उसमें भ्रमणशीलता के अतिरिक्त मंथन क्रिया भी चल पड़ी। जिस प्रकार दही मथने से मक्खन की परत ऊपर आ जाती है उसी प्रकार प्रकृति की परिचायक प्रक्रिया तीन रूपों में निखर कर ऊपर आयी।1- वैकारिक-वस्तुओं का स्वरूप, आकार प्रकार 2- तेजस शक्ति धारायें 3- अहंकार इन्द्रिय चेतना एवं मनन -चिंतन।

परमाणु की उत्पत्ति यहीं से होती है। वह तीन भागों में विभक्त रहता है 1- नाभिक 2- मध्यवर्ती हलचल 3- आवरण। इन तीनों को सत्व, रज, तम का अधिक स्पष्ट और अधिक स्थूल रूप कह सकते हैं। पंचमहाभूतों के अस्तित्व में आने का स्तर यहीं है। आरंभ में हिरण्यगर्भ स्वयं ही एक महान परमाणु था।

उसमेँ जो हलचल उत्पन्न हुई तो वही आरंभिक क्रम आरंभ हो गया जो पीछे परमाणु की अंतः हलचलों में दिखाई देता है।

हिरण्यगर्भ की गतिशीलता जैसे-जैसे बढ़ी वैसे ही उसमें ताप- तेजस् बढ़ता गया, फलस्वरूप आदि विस्फोट से बने कोटि-कोटि खण्ड अमापनीय दूरियों पर प्रबल वेग से फेंक दिये गये। यह टुकड़े तीव्र गति से आगे बढ़ने के साथ-साथ अपनी धुरी पर भी घूमने लगे जिससे उनमें चुँबकत्व पैदा हुआ। इस चुँबकत्व ने इन खंडों में परस्पर आकर्षण पैदा किया। वे एक दूसरे से उस चुँबकीय धारा के कारण परस्पर आबद्ध हुये। बड़ों ने छोटे को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लिया। इस प्रकार उनके हिरण्यगर्भ धूल के अनेक खण्ड परिवार बन गये। बड़े पिण्ड के इर्द-गिर्द उसके छोटे खण्ड घूमने लगे। इन्हीं का नाम आकाश गंगा पड़ा। ऐसी अनेक कोटि आकाश गंगायें हिरण्यगर्भ के विस्फोट से बनीं। विस्फोट के बाद हिरण्यगर्भ का जो नाभिकेन्द्र बच गया उस महाध्रुव की परिक्रमा यह आकाश गंगायें करने लगीं।

यहीं क्रम आगे आकाश गंगाओं में चला। वह ताप, प्रकाश की आदि प्रवृत्तियाँ आकाश गंगाओं में भी विकसित हुई, उनमें भी विस्फोट हुये। वे भी क्रमशः वायु गर्भ के ठोस वर्ग में बदलते गये और तारकों की रचना हो गयी। तारकों से ग्रह, ग्रह से उपग्रह में वहीं क्रम चलता रहता है। छितराये हुये खण्ड अपने उद्गम पिण्ड केन्द्र की परिक्रमा करने लगे। यही है वह सृष्टिक्रम जिसे भारतीय दर्शन के विविध प्रतिपादनों और अलंकारिक कथा प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। सृष्टि के आरंभ और उसके क्रियाकलाप के गर्भ में हम उस आध्यात्मिक सत्य को ही प्रत्यक्ष देखते हैं जिससे ईश्वर की स्फुरणा और आकाँक्षा के कारण इस जगत की उत्पत्ति कहीं गयी है। महत्तत्व और हिरण्यगर्भ की व्याख्या में निरत प्रकृतिगत पदार्थों और हलचलों का विवेचन-विश्लेषण भर करते हैं, पर यदि इससे कुछ और ऊंचे उठकर देखना समझना संभव हो सके तो प्रतीत होगा कि यह जगत ब्रह्म सत्ता की इच्छा-स्फुरणा मात्र है, उसी की ये चिनगारियाँ उड़ती दिखायी देती है जिन पर भौतिक विज्ञान इतने उत्साह से शोध कार्य कर रहा है। इन चिनगारियों के उद्गम केन्द्र को भी यदि समझा खोजा जाता तो मनुष्य को वह क्षमता प्राप्त होती जो प्रकृति विज्ञान की उपलब्धियों की तुलना में कोटि-कोटि गुना अधिक प्रचंड और दिव्य है।


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