महाराज अरिष्टनेमि तीसरे वय में प्रविष्ट हुए। जीवन भर उन्होंने अपने कर्तव्यों का भली प्रकार पालन किया था। बाल्यकाल में विद्यार्जन शरीर साधना आदि से लेकर अधेड़ अवस्था के पारिवारिक एवं राजनैतिक उत्तरदायित्वों एवं राजनैतिक उत्तरदायित्व के निर्वाह में उन्होंने पूरे मनोयोग से कार्य किया था। किंतु न जाने क्यों उन्हें अनुभव होने लगी थी। कर्तव्य पालन के संतोश की शीतलता के अतिरिक्त कुछ आकुलता की अनुभूति भी उन्हें होने लगी। वह कारण न समझ सके और उन्होंने अपने कुलगुरु के सम्मुख अपनी समस्या रखी।
विचारशीलता तथा क्रियाशीलता दोनों जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू है। सुविचार प्रेरित क्रिया कल्याणप्रद होती है जबकि केवल क्रिया अर्थ का अनर्थ भी कर डालती है। इसी प्रकार क्रिया के पूरक के रूप में विचार उपयोगी है स्तुत्य है। अन्यथा केवल विचार भ्रामक हो जाता है। कल्याण लोक सँवारने-सजाने तक ही उसकी सीमा मर्यादा सिमट जाती है। इसी कारण प्राचीन राज्य परंपरा में राजा की शक्ति तथा क्रियाशीलता विचारों के प्रकाश में अधिक उपयोगी बनाने के लिए विचारकों को भी रखा जाता था। मंत्रियों से लेकर राजगुरु तक इसी स्तर के व्यक्ति रहा करते थे।
राजा की समस्या सुनकर राजगुरु मुस्कराए बोले राजन! आपका कथन सत्य है। मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जबकि वर्तमान कर्तव्यों को भली प्रकार पूरा करते हुए भी उनके मन में हलचल और कौतूहल सा अनुभव होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है। शरीर की बदलती हुई अवस्था के साथ जीवन के अगले चरण में प्रवेश के लिए सन्नद्ध होने के लिए आत्मा के संकेत की यह प्रतिक्रिया है।
राजा को बात भली प्रकार स्पष्ट न हो सकी। उन्होंने पूछा यह संकेत क्या है, आत्मा इन्हें स्पष्ट क्यों नहीं करती? कुलगुरु पुनः स्निग्ध हास से बोले वत्स! स्वयं के उदाहरण से ही समझने का प्रयास करें। आपके जीवन में कभी पहले भी ऐसा अनुभव हुआ था। थोड़ा भूतकाल की गइराई में उतरकर सोचें। और राजा को ध्यान आया कि किशोर अवस्था पार करने पर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ था। तब राजगुरु ने उन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम में अर्जित ज्ञान तथा सामर्थ्य का उपयोग लौकिक कर्तव्यों के पालन करने का निर्देश किया था। उसके बाद से अब तक उन्हें शांति व संतोश का अनुभव होता रहा।
राजा ने अपना निष्कर्ष सुनाया। पुरोहित ने साधुवाद दिया धन्य है राजन! आपने ठीक-ठीक विश्लेषण किया बस उस समय जैसे शारीरिक तथा मानसिक शक्ति विकसित होकर लौकिक कर्तव्यों में प्रवृत्त होना चाहती थी उसी प्रकार अब आत्मिक शक्तियों के विकास का समय आया है। नरश्रेष्ठ। आपको अब अंतःकरण अगली उच्चस्तरीय भूमिका में प्रवेश के संकेत दे रहा है। आपको लोकोत्तर भूमिका में प्रवेश का आत्मविकास की तपोमय साधना का नियन्त्रण मिल रहा है। वत्स! अगले सुसंस्कारों के कारण अंतःकरण के संकेत आप अनुभव कर सके है। अब इनको समझकर आचरण में लाने में विलंब न करना ही श्रेयस्कर है।
राजा अमृतोपम निर्देश पाकर तृप्त हो गए। उन्होंने अविलंब युवराज को राज्य भार सौंपने की व्यवस्था की। अपने जीवन के अनुभवों का सार समझाकर एवं उपयुक्त सलाहकारों की व्यवस्था करके उन्होंने होनहार पुत्र को राज्य व्यवस्था सौंप दी। स्वयं विधिवत् वानप्रस्थ ग्रहण कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करने चले गए।
अरिष्टनेमि तपस्या में लीन थे। मन अपनी उछल-कूद करके थक गया। प्रकृति परीक्षा लेकर संतुष्ट हो गयी। मन अनुगामी बन गया-प्रकृति सहयोगिनी। राजा को आत्म शांति की शीतलता का अनुभव होने लगा। तभी एक दिन एक देव दूत उनके सामने आ उपस्थित हुआ। बोला देवराज इन्द्र ने आपको ससम्मान भेंट करने के लिए बुलाया है। देवराज इन्द्र ने बुलाया? राजा को कारण समझ में न आया। अपनी साधना को छोड़कर जाने की इच्छा भी नहीं थी। किंतु कोई प्रेम से बुलाए तो तिरस्कार भी उचित नहीं। वह शांत भाव से साथ हो लिए।
स्वर्ग के स्वामी देवराज इन्द्र ने राजा का आगे बढ़ कर स्वागत किया। प्रेम से अपने निकट बैठाया तथा चर्चा प्रारंभ की। वे बोले राजा आपकी तपस्या तथा सत्कर्मों ने आपको उच्च स्वर्ग का अधिकारी बना दिया है। आप चाहें तो उसका दीर्घकाल तक उपभोग कर सकते हैं।
मैंने तो स्वर्ग के निमित्त कोई कर्म या तप किया नहीं है, फिर उस पर मेरा अधिकार कैसे सिद्ध हुआ? राजा ने विनम्र शब्दों में शंका व्यक्त की। देवराज ने प्रशंसात्मक दृष्टि से उनकी ओर देखा और समाधान किया राजन! आपने इस निमित्त नहीं किया यह सही है, किन्तु जो किया है उससे आपको स्वर्ग लोक में उच्चतम स्थान प्राप्त हो सकता है।
अरिष्टनेमि विचार करने लगे फिर बोले देवराज! यह स्वर्ग आपके कथन के अनुसार मुझे अपनी संचित पूँजी के मूल्य पर खरीदना होगा। अस्तु कृपया स्वर्ग के विशय में मुझे अधिक जानकारी दे ताकि मैं निश्चय कर सकूँ कि वह स्वीकार करने योग्य है अथवा नहीं। इन्द्र द्वारा उत्तर देने की स्वीकृति पाकर उन्होंने प्रश्न किया “ उच्च और निम्न स्वर्ग क्या है? क्या दोनों प्रकार के स्वर्गवासियों के बीच प्रेम सद्भावना का व्यवहार रहता है? क्या स्वर्ग में अधिकांश व्यक्ति मेरी तरह के है जिन्हें स्वर्ग की प्राप्ति अनायास हुई है अथवा स्वर्ग सुख की लालसा से एकत्र हुए व्यक्ति ही वहाँ है? क्या अपने अधिकार के स्वर्ग को किसी अन्य व्यक्ति को जिसे उसकी इच्छा या आवश्यकता है, दिया जा सकता है? तथा स्वर्ग निवास की सीमा क्या है?
देवराज कुछ संकोच में पड़ गए। किंतु उत्तर देना आवश्यक था। बोले- “ राजन्! स्वर्ग के विभिन्न स्तर सुकर्मों की पूँजी से प्राप्त होते हैं। अधिकांश स्वर्गवासी स्वर्ग सुख की लालसा से आने वाले ही है। उच्च वर्ग के प्रति ईर्ष्या, हेय के प्रति तुच्छता का भाव स्वर्ग में भी है। अपने हिस्से का भोग भोगने की ही स्वतन्त्रता है उसे किसी को देने की सुविधा नहीं है। सत्कर्मों का प्रभाव समाप्त होने पर पुनः संसार चक्र में वापस लौटना अनिवार्य है।”
राजा अरिष्टनेमि का हृदय दहल गया। ऐसा स्वर्ग किस काम का? जिन साँसारिक हीन वृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए वह प्रयत्नशील थे उन्हीं में सड़ने वाला स्वर्ग का जीवन किस बुद्धिमान को ग्राह्य होगा? यह तो जेल से भी बुरा और बदतर है। इन्द्र राजा के मनोभाव पढ़ रहे थे। उन्हें लग रहा था कि पृथ्वी के इस राजा के सामने इन्द्रासन हेय सिद्ध हो रहा है। किंतु कुछ कहने की स्थिति में अपने आपको वह नहीं पा रहे थे तब तक राजा बोले-” देवराज! मैं आपके स्नेह का आभारी हूँ। आपका स्वर्ग उन्हें प्राप्त हो जो उसके लिए प्रयास करते हैं। मुझे तो उसी गंधमादन पर्वत पर भेजने की कृपा करें। वहाँ के शांत वातावरण में साधना की शीतलता से आत्मा तृप्त होती है।
इन्द्र ने उठकर राजा को हृदय से लगा लिया। बोले “राजन! आपके आगमन से मेरा स्थान पवित्र हो गया। आपने मानव शरीर की वह गरिमा जान ली है जिसके कारण स्वर्ग के देवता भी नर देह धारण करने के लिए आतुर रहते हैं। आप वस्तुतः तत्त्वज्ञान के अधिकारी है तथा इस दिशा में आपका सहयोग करके हम भी कृतकृत्य होंगे।”
इन्द्र ने राजा अरिष्टनेमि को महर्षि बाल्मीकि के पास भेज दिया। उनके मार्गदर्शन एवं अनुभव से राजा को शीघ्र ही अभीष्ट लक्ष्य की उच्चस्तरीय आत्म ज्ञान की प्राप्ति हो गई। प्रलोभनों को चीरते हुए महाराज अरिष्टनेमि संसार की विकृतियों से मुक्त रहकर मानव देह की सार्थकता का महत्व जान सके। तब जब वह सब कुछ छोड़ कर भी और अधिक की कामनाओं से मुक्ति पाकर इसी जीवन में बंधनमुक्ति का महत्व समझ सके। काश ! हर कोई साधक इस मर्म को जान ले तो यह संसार धर्मपरायण नैष्ठिक साधकों से भरा-पूरा दिखाई देने लगे।