भावनात्मक परिष्कार ही एकमात्र समाधान

September 1994

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भावनाएँ ही मनुष्य को ऊँचा उठाती और नीचा गिराती है। हम अपने विकास के आरंभिक समय में भावनात्मक उन्नति कर चरमोत्कर्ष पर पहुँचे थे पर अब उसी का दिन-दिन ह्रास होने के कारण नीचे गिरते जा रहे है। पूर्व का हमारा भावनात्मक आरोहण अब-अवरोहण बन चुका है। संवेदना की दृष्टि से हम एकदम निम्न बिंदु पर पहुँच चुके है वही हमारी सबसे बड़ी विडंबना है।

व्यक्ति के भाव-क्षेत्र के परिष्कार के साथ-साथ जैसे-जैसे उसका प्रसार विस्तार होता है; व्यक्ति में तद्नुरूप परोपकारिता एवं सेवा-सहयोग की वृत्ति भी बढ़ती जाती है और वृत्ति की परिधि का विस्तार भी होता जाता है। जब इसकी व्यापकता क्षुद्रता की सीमा लाँघ कर विराट स्तर तक पहुँचती है; तो व्यक्ति को महान बनाती और महामानव; देवमानव भूसुर; देवता जैसी उपाधियों से अलंकृत करती है। इसका प्रारंभ परिवार स्तर से होता है। जब मनुष्य अपने सुख-दुःख को परिवार का सुख-दुःख और परिवार के कष्ट-कठिनाई को अपना समझने लगे अर्थात् अपना अस्तित्व परिवार से पृथक् न मानकर शरीर और उसके अंग-अवयव की तरह अविच्छिन्न रूप से जुड़ा महसूस करने लगे; तो इसे परोपकारिता की दिशा में प्रथम चरण कहा जा सकता है और भाव-विस्तार की प्रथम अभिव्यक्ति।

नृतत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि यदि मनुष्य की भावना का इतना विकास न हुआ होता; तो आज उसका अस्तित्व सुरक्षित न रह पाता और संघर्षरत स्थिति में कब का समाप्त हो गया होता। कारण कि मानव की आरंभिक स्थिति और जंगली जंतुओं के स्तर में कोई बहुत भारी अंतर रहा होगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज जो बड़ा अंतर दिखाई पड़ रहा है वह तो क्रमिक प्रगति और परिष्कृत भाव-चेतना का परिणाम है। जब आज की विकसित बुद्धि की स्थिति में भी मानव संघर्षशीलता से बाज नहीं आता और तनिक-से हक की होड़ में मरने-मारने पर उतारू हो जाता है; तो आरंभ की अविकसित अवस्था में वह कैसा खूँखार रहा होगा इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है। आये दिन तब छोटे-छोटे कुनयों में युद्ध और मान-काट मचते होंगे तथा रक्त की नदियाँ बहती होंगी। समय बीतने के साथ-साथ रोज-रोज की लड़ाइयों से उकता कर वे किसी ऐसी युक्ति की तलाश के लिए विवश हुए होगे जो उन्हें कुछ शांति दे सकें अनावश्यक संघर्ष से बचा सके और कुछ ऐसा हस्तगत करा सके जिससे पारिवारिक कटुता में कमी आये।

मानव विज्ञानी मानते हैं कि इसका सबसे उत्तम उपाय उन्हें यही प्रतीत हुआ होगा कि दूसरे कि कठिनाइयों में दुःख और दर्द में कुछ अपनत्व प्रदर्शित किया जाय सहयोग दिया जाय और स्वयं पर विपत्ति आने पर उन्हें याद किया जाय; उनकी मदद ली जाय नृतत्व शास्त्रियों के अनुसार मनुष्य में भाव विकास का यह प्रथम सोपान था। इससे स्वतंत्र परिवारों का परस्पर मिलन-समागम संभव हुआ और धीरे-धीरे कर यही समुदाय का रूप धारण करता चला गया।ऐसे अलग-अलग समुदायों की अपनी-अपनी विशिष्टताएं और पहचान थी। जब उन्हें एक दूसरे के बारे में पता चला; तो वे पारस्परिक आदान-प्रदान द्वारा अपनी-अपनी विशेषज्ञता का लाभ एक-दूसरे को देने पर सहमत हो गये। समाज-निर्माण की यह आदिम रूपरेखा थी। कालान्तर में इसी से सभ्य समाज का जन्म हुआ। जब समाज का पूर्ण विकास हुआ तो मानव ने विभिन्न क्षेत्रों में आपसी आदान-प्रदान की रीति-नीति अपनायी। परिवार के बाहर भी स्नेह-प्रेम; सहयोग-सहकार घनिष्ठ होने लगे। संवेदना और सहानुभूति की परिधि बढ़ी तो पहले का संकुचित परिवार और बड़ा बना और फिर धीरे-धीरे विकास करते हुए वह एक बृहत्तर परिवार बन गया। यों संरचना और संगठन की दृष्टि से था तो वह समाज ही पर आचरण और व्यवहार की दृष्टि से; आत्मीयता और अनुराग की दृष्टि से उसे एक वृहद् परिवार ही कहना समीचीन होगा एक ऐसा परिवार जिसमें उसकी समग्र उन्नति के लिए सभी का संपूर्ण विकास अभीष्ट था। कार्ल मार्क्स के शब्दों में कहा जाय तो इसे”वन फॉर ऑल; एण्ड ऑल फॉर वन”की नीति का विकास कहना चाहिए। भावनाओं की दृष्टि से आदमी की यह और उन्नत स्थिति थी।

फिर राश्ट्र और विश्व राश्ट्र का विकास हुआ। भूभाग की दृष्टि से सभी की अपनी-अपनी सीमाएँ तो थी; पर सब के भाव-क्षेत्र ऐसी सीमाओं से सर्वथा मुक्त थे। यही वह काल था जब “आत्मवत् सर्वभूतेषु” एवं “वसुधैव कुटुँबकम्”के सूत्र-सिद्धाँत दिये गये। यह प्रतिपादन सिद्धाँत मात्र बन कर नहीं रह गये वरन् आचार-व्यवहार में दूध-पानी की तरह घुले-मिले थे। आँतरिक उत्कर्ष की दृष्टि से मनुष्य का यह चरम विकास था; जिसमें भाव-संवेदनाएँ अपना अधिकतम विस्तार प्राप्त कर चुकी थी।इसी भाव उत्कृष्टता के कारण युगों में इसे सर्वश्रेष्ठ सतयुग कहा गया। फिर धीरे-धीरे इसकी उदारता घटती गई। भाव-विस्तार में कमी आयी और शनैःशनैः उसमें अनुदात्त तत्वों के समावेश से उसका स्तर क्रमशः गिरता गया। हम उस सर्वोच्च स्थिति से लगातार नीचे गिरते गये। आत्मीयता की हमारी परिधि संकीर्ण होने लगी और घटते-घटते इतनी घट गई कि रूखेपन से भरा मध्यकाल का सामंतवादी युग आ पहुँचा। साम्राज्य विस्तार के इस काल में आक्रामकता का इतना विस्तार हुआ कि अपने और परायेपन का भेद घृणित रूप धारण करने लगा। यही से “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का पृष्ठ पोषण करने वाली लूट-खसोट की नीति का उद्भव हुआ। साम्राज्यवादी शासक विस्तारवादी ललक की पूर्ति के लिए आक्रमण-प्रत्याक्रमण के घात-प्रतिघात में निरत रहने लगे। नीति-अनीति का विचार छोड़ जिन्हें जो सूझता; वही करते और जो हाथ लगता उसी को बड़ी मछली की तरह निगल जाते। फिर अगले शिकार के लिए आगे बढ़ते। इस क्रम में भारत को अनेक विदेशी आक्राँताओं के आक्रमण और उत्पीड़न झेलने पड़े। भारतीय राजे-महाराजे भी स्वयं इस शरीरगत प्रवृत्ति और मनोगत वृत्ति से अछूते न रह सके। उनमें भी इस बात की प्रतिस्पर्धा छिड़ी रहती कि किस प्रकार दूसरे की संपन्नता हड़प कर अपनी विपन्नता घटायी और सामर्थ्य बढ़ायी जाय। यह राजतंत्र का जमाना था। फिर लोकतंत्र का प्रादुर्भाव हुआ किंतु हमारा भावनात्मक पतन अब भी नहीं रुका। हम और नीचे गिरे। समय के साथ-साथ यह गिरावट और बढ़ती गई और आज स्थिति यह है कि समाज पर स्वार्थान्धता इस कदर हावी है कि उस ललक को पूरा करने के लिए वह किसी भी सीमा तक जाने में जरा भी संकोच नहीं करता। जब व्यक्ति की उद्दात्त लिप्सा पराकाष्ठा को लाँघ कर कुत्सित बन जाती है। जब व्यक्ति अपना आतंक जमाने और वर्चस्व स्थापित करने के लिए दूसरों के न्यायोचित अधिकार को भी छीनने से नहीं हिचकता तो सदा इन दिनों जैसी ही स्थिति पैदा होती है। ऐसे ही लोगों को भर्तृहरि ने मानवों की सबसे निचली और चौथी कोटि में रखा है। उन्हें कोई विशेष नाम तो नहीं दिया; सिर्फ यह कहकर छोड़ दिया कि “ते के न जानीमहे”।

यहाँ प्रश्न यह है कि आखिर यह स्थिति पैदा ही क्यों हुई? हमारा अधःपतन क्यों हुआ?उत्तर जेम्स डिल्लेट फ्रीमैन अपने ग्रंथ “दि हिलटाँप हर्ट” में देते हैं। वे कहते हैं कि यह ठीक है कि हम कभी चेतनात्मक विकास की सर्वोच्च अवस्था में थे और यह भी सत्य है कि आज हम विनाश के कगार पर है; किंतु यह भी तथ्यपूर्ण है कि उक्त दशा सदा-सर्वदा आज जैसी बनी नहीं रह सकेगी। उनका विचार है कि मानव समेत यह दुनिया परिवर्तनशील है। यहाँ जैसी संप्रति है; कल भी सब कुछ वैसा ही बना रहेगा ऐसा नहीं हो सकता और कब का संसार एवं परसों का विश्व दोनों एक जैसे होगे यह भी नहीं कहा जा सकता।यहाँ सब कुछ क्षण-क्षण में बदल रहा है। भले ही यह बदलाव अदृश्य स्तर का इतना न्यून और सूक्ष्म हो जिसे देखा व अनुभव नहीं किया जा सके। इतने पर भी तथ्य यथावत् बना रहता है। यह परिवर्तन सूक्ष्म अणु से लेकर विराट ब्रह्माँड तक में समान रूप से जारी है। आदमी में भी चल रहा है। वे कहते हैं। आदमी में भी चल रहा है। वे कहते हैं कि आधुनिक मानव इस परिवर्तन का अंतिम प्रतिफल नहीं है वरन् विकास-यात्रा का निर्माण विशेष है। होमोसेपियंस (आधुनिक मानव) को प्रकटीकरण के साथ यह परिवर्तन-प्रक्रिया अवरुद्ध हो जायेगी; उसकी विकास यात्रा बंद हो जायेगी; ऐसा कहना अनुचित होगा की फिर आगामी के व्यक्ति कैसी उत्तर देते हुए ग्रंथ कवि दूसरे ढंग से विचार करें तो ज्ञात होगा कि हमारी गति-प्रगति चक्रीय है। चक्र के प्रत्येक बिंदु से गुजरना हमारी नियति है। इस क्रम में इसके शीर्ष पर कभी हम उत्कृष्टता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्थित थे तो आज अर्धबिंदु पर पड़े-पड़े उस गौरव गाथा को याद करके ही संतोश करना पड़ रहा है। उर्ध्व से अधः की यात्रा आसान है। इसमें मात्र गिरना पड़ता है पर निम्न से उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित होने के लिए पराक्रम करना पड़ता है बल लगाना पड़ता है। तिनका हवा के सहारे आकाश चूमने लगता है। पतंग को भी गगनचुँबी ऊँचाई छूने के लिए वायु की आवश्यकता पड़ती है। पानी को कई मंजिल ऊपर चढ़ाना हो तो पंप चाहिए। वायुयान; राकेट; उपग्रह सभी को ऊपर उठने के लिए अतिरिक्त बल की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य भी बिना पुरुषार्थ के अपनी उन्नति के शीर्षस्थ बिंदु पर अधिष्ठान नहीं कर सकेगा। इसके प्रयास के साथ-साथ परिष्कार की भूमिका भी संपन्न होनी चाहिए तभी वह भावनात्मक विकास की उच्च मंजिल तक पहुँचने में सफल हो सकेगा।


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