विशिष्ट सामयिक लेख - - महान याचक की महान याचना

September 1994

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परम पूज्य गुरुदेव का व्यक्तित्व और कर्तव्य बड़ा शानदार रहा है। इस विषय पर कितने ही लोगों ने उनके साथ जुड़े हुए विज्ञात विषयों को लिपिबद्ध भी किया है, पर अविज्ञात विषय उसमें नहीं है। उन पर प्रकाश डालने का शरीर रहने तक मनाही जो कर दी गयी थी। इन ज्ञात और अविज्ञात विषयों की शृंखला को गूँथकर जब लोग उनके समग्र जीवन पर दृष्टिपात करेंगे तो पायेंगे कि वे निश्चय ही अपने ढंग का अनुपम जीवन जी सके और इतने प्रचंड पुरुषार्थ का परिचय दे सके जिसकी सामान्यतः कल्पना तक नहीं की जा सकती। उनका कर्तव्य जितना शानदार रहा है उसकी तुलना में व्यक्तित्व की गरिमा और भी असंख्य गुनी उत्कृष्ट है। इसे कुछ वे ही समझ पाये हैं जो उनके निकटवर्ती एवं अधिकतम घनिष्ठ रहे हैं। उनने अनेकों देव परंपराओं को जन्म दिया है। कितने नवनिर्माण और कितने ही जीर्णोद्धार किये हैं। करोड़ों रोते-बिलखते व्यक्तियों में नवजीवन के प्राण फूँके हैं। पर चलते-चलते उन्हें एक अभाव खटकता ही रहा कि वे जिस रूप में चाहते थे उस रूप में साधु-ब्राह्मण की परम्परा का पुनर्जीवन हो सका क्या?

देव संस्कृति की महान परंपराओं को जीवंत रखने के लिए ऐसे व्रतशील प्रहरी चाहिए जो चोर-उचक्कों को घात न लगाने दें। उस महान संपदा को किसी प्रकार क्षति न पहुँचने देने के लिए जागरुक प्रहरी की तरह सतर्कता बरत सकें और प्रमाद को आड़े न आने दें। ब्राह्मण ऐसे ही होते हैं, साधु भी ऐसे ही। उन्हें स्वयं स्वर्ग जाने, मुक्ति पाने और सिद्धि-चमत्कार दिखाने की ललक नहीं होती, वरन् दूसरों को अपने कंधे पर बिठाकर पार लगाने की उत्कंठा रहती है। वह जितना बन पड़ता है, उतनी ही प्रसन्नता भी होती है।

महान परिवर्तनों के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता इसी बात की पड़ती है कि सत्प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए अगली पंक्ति में कौन खड़ा हो? अग्रगमन कौन करे? उत्तर एक ही हो सकता है-आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा व्यक्त करने वाले संकल्पवान साधु-ब्राह्म। आज भी राजकुमारी मधूलिका संताप-ग्रस्त बैठी है। नास्तिकवादी अनैतिकता के विस्तार में वह मानवी संस्कृति देवसंस्कृति के विनाश का संकट देखती है और अपने एकाकी मन तथा प्रशांत नीले आकाश से पूछती है-”को वेदान् उद्धरस्यसी” अर्थात् वेदज्ञान का उद्धार कौन करेगा? सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के लिए आगे कौन आयेगा? आज भी उसे इंतजार है कि कोई विद्वान आदर्शवादी कुमारिल भट्ट उधर से निकले और उसके शब्द उसके कानों में पड़े। उसका अंतःकरण इस चुनौती को सुनकर तिलमिला उठे और उसका साहस एवं पुरुषार्थ कहे कि युग की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए उपयुक्त साधन उन्हें मिला है, फिर भी क्यों आगा-पीछा सोचें? क्यों आनाकानी करें? क्षण भर के सोच विचार के बाद निष्कर्ष पर पहुँचे और दृढ़ निश्चय के साथ वह बोल उठे -”मा विशीद बराररोहे भट्टाचार्योऽसि भूतले” अर्थात् हे देवि! चिंता न करो कुमारिल भट्ट अभी इस धरती पर जीवित है। आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा व्यक्त करने वाले ऐसे संकल्पवानों की ही आज आवश्यकता है जो भीष्म प्रतिज्ञा के उपराँत उस कार्य में जुट पड़े जिस महान कार्य के लिए महाकाल ने पुकार लगायी है।

महान परंपराओं का नेतृत्व प्रचलन सदा इसी स्तर के साधु-ब्राह्मण करते रहे हैं। आरंभ में उन्हें उपहास, असहयोग, विरोध सहना पड़ा है। लोक मान्यताओं में परिवर्तन लाने वालों को अपनी निष्ठा की परीक्षा देने के लिए प्रतिकूलता की अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना ही पड़ता है, किंतु साहसी लोग डरते नहीं। कवीन्द्र रवीन्द्र के इस उद्बोधन को गाते-गुनगुनाते आगे ही बढ़ते रहते हैं जिसकी उन्होंने अपनी प्रसिद्ध बंगला कविता “एकला चलो रे” में हुँकार लगायी है।

आदर्शों के लिए व्यक्तिगत सुख सुविधाओं और महत्वाकाँक्षाओं का परित्याग कर सकने वाले मनस्वी महामानव ही स्वयं धन्य बनते और अपने समय तथा क्षेत्र को धन्य बनाते हैं। युग की माँग ऐसे ही मनस्वी, तेजस्वी और तपस्वी साधु-ब्राह्मणों की है। ऐसे देव मानवों का निर्माण ही वह कार्य है जिसके प्रकाश में यह आशा की जा सकती है कि मानी गरिमा को, सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण रखा जा सकेगा और दलदल से उबार कर ऊँचा उठाया जा सकेगा। जो इस कृत्य में सफल हो सकने योग्य अपने निजी व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें, समझना चाहिए कि उन्हीं के बलबूते इतना महान कार्य बन पड़ेगा। जो अपने को निर्धारित कसौटियों पर खरा सिद्ध कर सकें, उनके क्रियाकलाप कैसे ऐसे हो सकते हैं जो भारी भरकम उत्तरदायित्वों को बिना अचूकचाये वहन कर सकें।

गुरुदेव ने अनेक ठोस काम किये हैं। उनका परिवार गठन अत्यंत विस्तार वाला है, पर उसमें ऐसे लोग कह ही दीख पड़ते हैं जो माझी की भूमिका निभा सकें और अनेकों को पार उतार सकें तथा भँवरों वाली प्रचंड जल धार को चुनौती दे सकें। ऐसे लोग कम हैं जो अनवरत श्रम करके ऊसर को उद्यान में बदल सकें। पिछड़ों को आगे बढ़ा सकें और गिरों को उठा सकें। ऐसा वे ही कर सकते हैं जिनने अपने आपको निरंतर कसौटियों पर कसा और आदर्शों की आग में बिना धैर्य खोये तपाया होगा।

इस स्तर के लोग ही गुरुदेव के सहचर हो सके हैं। उन्हें प्रशंसकों, समर्थकों और सहयोगियों की कभी कमी नहीं रही। पर इन दिनों विशेष रूप से कठिनाइयों से भरे-पूरे मार्ग पर कंधे से कंधा मिलाकर और कदम से कदम मिलाकर चल सकने वाले साथी चाहिए। ऐसे लोग यदि पूरा समय साथ देते हैं तो साधु और कम समय देते हैं तो ब्राह्मण। साधुओं को प्रव्रज्या पर निकलना पड़ता है और ब्राह्मण अपने निकटवर्ती क्षेत्र में ही प्रकाश फैलाते अलख जगाते रह सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि संकल्प निभे वह बबूले की तरह कुछ क्षण कूद-फाँद करके हवा में विलीन न हो जाय। उफान ठंडा होते ही तली में न बैठ जाय। जीवन को एक लंबी तीर्थ यात्रा मानकर निर्धारित राजमार्ग पर चलता रहे। भले ही चाल कछुए जैसी धीमी ही क्योँ न हो, पर रहे निश्चित और अनवरत। दिशाभ्रम का उसमें कहीं भी व्यवधान न पड़े। कठिनाइयों और समस्याओं के नाम पर दाँत निकाल देने और विवशता व्यक्त कर देने जैसा अवसर न आये। गुरुदेव ने ऐसे ही दस हजार साथ-सहचरों को ढूँढ़ निकालने की अभिलाषा व्यक्त की थी। उनकी आरंभिक कसौटी भी छोटी ही रखी है। जो साधु स्तर का साहस कर सकें वे शांतिकुंज आकर रहे। महत्वाकाँक्षाओं को, लिप्सा-लालसाओं को त्यागें और अथक परिश्रम करते हुए ब्राह्मणोचित निर्वाह में काम चलायें। संचय में से काम चलाते हुए जितना कम पड़े उतना ही मिशन से लें। मिशन कोई जागीर नहीं है। उसमें बीस-बीस पैसे करके लोग अपने बच्चों का पेट काटकर जमा करते हैं। यह मधु संचय मिशन की संपदा है। इसमें गुलछर्रे उड़ाने और नेतागिरी का शौक पूरा करने की किसी प्रकार की गुंजाइश नहीं है। जो इतने में अपने को सिकोड़ सके वे साधु जीवन जीने के लिए कदम बढ़ायें। काम हरिद्वार या मथुरा रहकर करने योग्य भी हो सकते हैं, पर अधिकांश को परिव्राजक का काम सौंपना पड़ेगा। इसलिए बोझिल गृहस्थी का बड़ा सा जंजाल पीठ पर लदा हुआ नहीं होना चाहिए।

व्रतधारी ब्राह्मणों का कार्य ऐसा है जो किसी भी भावनाशील आदर्शवादी के लिए भारी नहीं पड़ना चाहिए। दो से चार घंटे तक का दैनिक समय जन संपर्क के लिए निकालना, किसी कारणवश नागा हो चले तो उसकी पूर्ति आगे कर देना यह दायित्व ऐसा नहीं है जो समय की व्यवस्था बना सकने वाले, आलस्य प्रमाद एवं अस्तव्यस्तता पर अंकुश लगा सकने वाले के लिए भारी पड़े।

स्वाध्याय और सत्संग की सामग्री संपर्क क्षेत्र में उपलब्ध कराते रहने के लिए कुछ राशि भी खर्च करते रहनी पड़ती है। यह न्यूनतम बीस पैसा नित्य की तो होनी ही चाहिए, ज्यादा निकाला जा से तो उससे कार्य विस्तार में और भी अधिक सुविधा होगी। इस संदर्भ में अपने इष्ट-मित्रों का भी सहयोग लिया जा सकता है।

किसी भी व्यवसाय को आरंभ करने में कुछ मूल धन लगता है। कितने ही प्रकार के प्रचार साधन क्रय करने के लिए पाँच-दा हजार की पूँजी चाहिए। इसमें कुछ उपकरण पहले से ही हो तो उतनी कटौती भी हो सकती है। जुगाड़ बिठाने पर कोई उतारू हो जा तो इतनी राशि अपने बलबूते या संपन्न मित्र-संबंधियों पर दबाव देकर या कर्ज लेकर यह व्यवस्था जुटा सकता है।

प्रत्यक्ष साधन इतने ही जुटाने हैं। प्रज्ञायोग के अनुरूप अपनी साधना चलाते रहने की बात निजी जीवन की है। इतनी उपासना कम पड़ती होगी तो उसकी पूर्ति शाँतिकुँज हरिद्वार से उसी प्रकार होती रहेगी जैसा कि गुरुदेव के सूक्ष्म-कारण सत्ता में चले जाने के उपराँत होती रही है।

इन अनुबंधों को पूरा करने वाले वरिष्ठ परिजनों की पहले भी कमी नहीं थी, पर उनमें से सक्रिय ठोस एवं वर्गीकरण नहीं किया गया था और यह असमंजस ही बना रहा था कि परिजनों में से किनकी स्थिति क्या है? युग संधि की प्रस्तुत विशय बेला में उनमें से कौन कितने उत्तरदायित्व निष्ठापूर्वक निबाह सकता है? कौन ऐसे हैं जो शेखी बघारते और उछलकूद करते तो दिखाई पड़ते हैं, पर जब काम का अवसर आता है तो दुम दबाकर बिल में घुस जाते हैं।

वस्तुतः दस हजार की माँग न तो विलक्षण है और न नवीन, केवल ठोस-जीवंतों और ढीले-पोलो का वर्गीकरण मात्र है। जो ठोस हैं - जीवंत हैं, उन पर अधिक ध्यान दिया जायेगा और जो पोले हैं उनसे उतनी ही आशा की जायेगी जितने कि वस्तुतः वे हैं। श्रेय, सुयोग और अनुदान भी उन्हें पात्रता के अनुरूप ही मिलेगा।

प्रसन्नता की बात है कि भावनाशीलों का उत्साह उमड़ पड़ा है। हजारों समर्पण पत्र आ गये हैं। उनमें कुछ साधु स्तर के हैं, कुछ ब्राह्मण स्तर के। उन्होंने विश्वास दिलाया है कि वे मिशन के कार्यों को प्रमुख मानेंगे और निजी कार्यों को गौण। काल ने युग धर्म के निर्वाह हेतु सौंपा है, उसे निश्चित रूप से पूरा करते रहेंगे। वचन निबाहेंगे और प्रतिज्ञा से पीछे न हटेंगे। इतना आश्वासन प्राप्त करने के पश्चात हम निश्चित हो जायेंगे कि पूज्य गुरुदेव ने जो उद्यान लगाया है, वह इतने मालिकों के रहते सूखने न पायेगा, वरन् उसी भूमि में नयी नर्सरी उगाकर उनके माध्यम से सर्वत्र नये उद्यान खड़े करते रहेंगे।

यह निश्चितता हमारे लिए असाधारण संतोष का और उल्लास का प्रसंग होगी। इस प्रयास के विस्तार का स्वप्न साकार होते देखते हुए हम हुलसित होते रहेंगे और उसकी सुरक्षा एवं अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त देखकर अधिक उत्साहपूर्वक अपनी उस साधना को करते रहेंगे जिसके ऊपर वातावरण के परिमार्जन, देवसंस्कृति के उन्नयन एवं विश्वमानव के उज्ज्वल भविष्य का बहुत कुछ आधार अवलंबित है।


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