समग्र परिवर्तन की बेला आ पहुंची

September 1994

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काल गणना के संदर्भ में “ युग” शब्द का उपयोग अनेक प्रकार से होता है। जिन दिनों जिस प्रचलन या प्रभाव की बहुलता होती है उसे नाम से पुकारा जाने लगता है। जैसे ऋषि युग, सामंत युग, जनयुग आदि। रामराज्य के दिनों की सर्वतोमुखी प्रगति शांति और सुव्यवस्था को सतयुग के नाम से जाना जाता है। कृष्ण की विशाल भारत निर्माण संबंधी योजना के एक संघर्ष पक्ष को महाभारत नाम दिया जाता है। परीक्षित के काल में कलियुग के आगमन और उससे राजा के संभाषण अनुबंधों का पुराण गाथा में वर्णन है। अब भी रोबोट युग, कम्प्यूटर युग, विज्ञान युग आदि की चर्चाएं होती रहती है। अनेक लेखक अपनी रचनाओं के नाम युग शब्द जोड़कर करते हैं। जैसे यशपाल जैन का “युग बोध” आदि। यहाँ युग शब्द का अर्थ जमाने से है। जमाना अर्थात् उल्लेखनीय विशेषता वाला जमाना एक एरा एक पीरियड इसी संदर्भ में आमतौर से युग शब्द का प्रयोग होता है।

एक ओर मान्यता पंचांगों में अनेकानेक संवत्सरों के आरंभ से शुरू होती है। ज्योतिष का एक मत ऐसा ही है जब कि युगों का समय लाखों करोड़ों वर्षों का बताया गया है और सभ्यता के विकास को उस आधार पर अरबों-खरबों वर्ष बीत चुके है और अभी अपने समय के तथाकथित कलियुग का अंत होने में लाखों वर्ष शेष है। यह ऐसी काल गणनायें है जिन्हें पौराणिक अलंकारिक भाषा के अंतर्गत ही स्थान मिल सकता है। मिथक ही इन किंवदंतियों के पक्षधर हो सकते हैं। अन्यथा इतिहासकारों, नृतत्व वेत्ताओं और भू भौतिकी के जानकारों के अनुसार विकसित मानवी सभ्यता के जो चिह्न मिले है, वे दस हजार वर्ष से पुराने नहीं है।

यहाँ युग से अर्थ विशेषता युक्त समय के रूप में लिया गया है। युग निर्माण योजना आँदोलन चलाने के प्रयास में भी इसी मान्यता का बाहुल्य रहा है। युग प्रभाव, युग गीत, युग संधि आदि शब्दों का उल्लेख इसी अभिप्राय से किया गया है कि अब की अवाँछनीयता युक्त परिपाटियाँ बदलकर नये स्वरूप में विकसित विनिर्मित होगी। कली खिलकर फूल बनती है। अण्डे उड़ने वाले पक्षी का रूप धारण कर लेते हैं, तो कोई कारण नहीं कि इन दिनों जो प्रचलन स्वभाव-अभ्यास में आ गया है वह उसी प्रकार का सदा सर्वदा बना रहे। वनस्पतियाँ गाय के पेट में जाकर दूध बनती है। दूध का स्वरूप घी में बदल जाता है और घी का स्वरूप घी में बदल जाता है और घी का परिवर्तित स्वरूप मिष्ठान बन कर सामने आता है, तो यही परिवर्तन प्रक्रिया मनुष्य के चिंतन और व्यवहार में परिवर्तित न ला सके ऐसा कोई कारण नहीं। मधुमक्खियाँ फूलों के पराग से जहाँ मधु बना सकती है तो प्रबल प्रयत्न द्वारा परिस्थितियों में वाँछनीय परिवर्तन प्रस्तुत न किया जा सके ऐसी कोई बात नहीं।

इस प्रकार के परिवर्तन और प्रयासों के लिए विशेष प्रकार के आरंभ से लेकर आधार खड़े होने तक के समय को यहिद युग संधि नाम दिया जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। बारह वर्ष की अवधि को व्यावहारिक युग भी कहा जाता है। युग संधि की अवधि जो 1981 से आरंभ होकर 2001 तक चलने वाली है, को भी इसी स्तर का मानकर चला जाय तो उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे अमान्य किया जाय।

मनुष्य जीवन के हर बारह वर्ष में एक नया मोड़ आता है। इससे पहले चलते रहे स्वरूप में आकृति और प्रकृति बहुत कुछ बदल जाती है। 12, 24, 36, 48, 60 वर्ष 80 आयु का यदि बारीकी से अंतर किया जाय तो प्रतीत होगा कि नाम में तो अंतर नहीं पड़ा है, पर आकार-प्रकार में असाधारण स्तर का अंतर उत्पन्न हो गया। इतना बड़ा अंतर जिसे बाहर वाले सहज पहचान भी न सके। जन्मकाल और जराजीर्ण मरणकाल के अथवा मध्यवर्ती परिवर्तनों वाले विरामों का अंतर यदि मापा जाय तो प्रतीत होगा कि एक ही व्यक्ति के स्तर में असाधारण स्तर के मोड़ आये और परिवर्तन हुए। वह कुछ से कुछ बनता चला गया। इन मोड़ों को भी यदि जीवन प्रवाह का परिवर्तन कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

वृक्षों के तनों पर क्रमशः चढ़ती बदलती परतों का अध्ययन कराने वालो ने सूक्ष्म अध्ययन करके जाना है कि प्रकृति चक्र का प्रभाव उनमें आवश्यक परिवर्तन करता, अनुदान देता चला गया है। इसमें हर बाद नियमित रूप से प्रायः ग्यारह-बारह वर्ष का अंतर रहा है।

वनस्पतियों के बाह्य स्वरूप में तो प्रायः बहुत बड़ा अंतर नहीं होता, पर उनके अंदर पाये जाने वाले सूक्ष्म रसायनों की मात्रा घट-बढ़ जाती है। इसलिए उनकी जाँच-पड़ ताल के आधार पर लोगों की शारीरिक स्थिति में परिवर्तन आते जाने के कारण औषधि निर्धारण के नये निर्धारण करने पड़ने है। यदि न किये जाये तो वह परंपरावादी चिकित्सा पद्धति आधुनिकतम न रहकर अपनी उपयोगिता गँवाती जाती है। अंतरिक्ष में होते रहने वाले परिवर्तनों का प्रभाव वृक्षों और वनस्पतियों पर पड़ता है। उसके पीछे भी एक प्रकृति चक्र काम करता है और वह प्रायः बाहर वर्ष की धुरी पर घूमता है मनुष्य शरीर की कोशिकायें प्रायः पुरानी होकर मरती और नयी जन्मती रहती हैं यह क्रम लगातार चलता है प्रायः बाहर वर्ष में पुराने सभी कोष बदल जाते हैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं यह कायाकल्प जैसे अंतर शरीर के अंतर क्षेत्र में होते हैं और उसको मोटी दृष्टि से देखने पर बाहर से कुछ भी पता नहीं चलता फिर भी बारह वर्ष में हर शरीर का कोषीय कायाकल्प होते रहने की बात विज्ञान सम्मत है।

स्वभावों में मानसिक चिंतन और आकर्षण निर्धारणों में भी यह परिवर्तन लहराते देखें जाते है। बच्चे और बूढ़े के बीच जो अन्तर पाये जाते हैं। जमाते हुए कहीं से कही पहुँचते हैं।इन बारीकियों को जहाँ ध्यान में रखा जाना संभव होता है वहाँ तद्नुरूप सुधार सहयोग की भी व्यवस्था बन पड़ती है और जिस लक्ष्य तक पहुँचना है उसकी यात्रा बिना गड़बड़ाये सुनियोजित ढंग से चलती रहती है। संस्कार कराने की पद्धति हिन्दू धर्म में प्रायः इसी आधार पर विनिर्मित की गयी है।

समस्त आकाश का स्वरूप निर्धारित करने के लिए उस विशाल क्षेत्र को बारह राशियों में बाँटा गया है। इसी से मिलता जुलता एक छोटा विभाजन सौर मंडल का भी किया गया है। पंचाँगों का निर्माण प्रायः उसी आधार पर होता है। ज्योतिष का ग्रहगणित भी प्रायः इसी पर निर्भर रहता है। अन्तरिक्ष में समुद्री हलचलों में ऋतु प्रभावों में प्रायः इसी के अनुरूप सूक्ष्म परिवर्तन होते रहते हैं। उन्हीं की आधार मानकर खगोलवेत्ता कई प्रकार के फलादेश प्रस्तुत करते रहते हैं।बारह महीनों का वर्ष माना जाने के पीछे भी काल गणकों ने इसी आधार को अपनाया है।

सूर्य में धब्बे के रूप में जाने-जाने वाले विस्फोट भी लगभग बारह वर्ष के अन्तर से ही अपने उफानों में परिवर्तन करते रहते हैं। उनके प्रभाव प्रायः पृथ्वी समेत और मंडल के अन्य ग्रहों उपग्रहों पर पड़ते हैं। इस प्रभाव को अन्तरिक्ष विज्ञानी अनुभव करते हैं। कीट पतंगों की प्रजातियों में भी धीमे सूक्ष्म-अदृश्य परिवर्तन क्रम गतिशील रहते हैं।

महागज महाव्याघ्र महासरीसृप महागरुण अचानक धरती से विलीन नहीं हुए वरन् क्रमिक परिवर्तन ने ही उन्हें छोटे से बड़ा बनाया था और बड़े से छोटे करते-करते उस स्थिति में पहुँचा दिया जिसमें कि वे सामान्य कलेवर लिये हुए अभी भी विद्यमान है।

परिवर्तन क्रम में बारह का अंक अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। तपश्चर्याएं प्रायः बारह वर्ष में पकती है। बड़े प्रायश्चित परिशोधन भी इतना ही समय मांगते हैं। पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ था। राम की तपश्चर्या में बारह वर्ष बीते और दो वर्ष युद्ध प्रसंगों में बीते। इसी प्रकार अन्य ऋषियों मनीषियों वैज्ञानिकों मूर्धन्यों का प्रतिभा उभार प्रायः बारह ही एक ढर्रे का रहा है। ध्यानपूर्वक जीवनचर्याओं का वर्गीकरण और अध्ययन करने से यह तथ्य भली प्रकार निखर कर आता है। घड़ी के घण्टे भी तो हर दिन बारह ही बजाते हैं।

युगसंधि के बारे में आम मान्यता यह रही है कि वह सन् 1989 से 2001 तक के मध्यवर्ती बारह वर्ष की होनी चाहिए।उसमें ध्वंस और विकास के दोनों ही उपक्रम अपने-अपने ढंग से सभी क्षेत्रों में चलने चाहिए। अनौचित्य को घटाने और औचित्य को बढ़ाने के लिए प्रकृति प्रेरणा और मानवी पुरुषार्थ परायणता का क्रियाकलाप दीख पड़ना चाहिए। स्थिति सूर्योदय और सूर्यास्तकाल की परिवर्तन परायण एवं संघर्षशील स्तर को होनी चाहिए।

संसार में जो कुछ भला-बुरा घटित या विनिर्मित हो रहा है।

उसके मूल में एक मात्र तथ्य काम करता है-मनुष्य का विचार प्रवाह पारस्परिक व्यवहार की उत्कृष्टता निकृष्टता उसी आधार पर बन पड़ती है। वस्तुओं के उत्पादन विनाश का सदुपयोग-दुरुपयोग का आधार यही है। मान्यता आकाँक्षा; अभिरुचि; उमंग और प्रेरणा ही वह शक्ति है जो अभीष्ट को विनिर्मित; परिवर्तित करती है।परिस्थितियों का उद्भव इसी स्त्रोत से होता है। उत्थान-पतन की यह धुरी विचारणीय ही है।

अगले दिनों यदि अवाँछनीयता को निरस्त और सुखद संभावनाओं को प्रशस्त करना है तो प्राथमिकता जनमानस के परिष्कार को देनी होगी।इस हेतु ऐसी प्रचण्ड विचार क्राँति का व्यापक अभियान आरंभ किया जाना चाहिए। विचार अपने युग की ऐसी प्रचंड प्रक्रिया है जिसके आधार पर समस्त समस्याओं का एक मात्र और सुनिश्चित हल खोजा जा सकता है। तत्वदर्शियों का कहना है कि “मनुष्य एक भटका हुआ देवता है”।भ्राँतियों ने ही उसे ऐसे जाल-जंजाल में उलझाया है कि उस कुचक्र में से निकलने और सही मार्ग पर चल पड़ने का अवसर ही नहीं आता।

विचार मनुष्य की मौलिक विशेषता है उसी के आधार पर वह वनमानुष से नरनारायण स्तर तक सृष्टि का मूर्धन्य कहलाने का अधिकारी बना है। शिक्षा; चिकित्सा; कृषि; पशुपालन; उद्योग व्यवसाय; ज्ञान-विज्ञान आदि की अनेकानेक उपलब्धियाँ इसी आधार पर हस्तगत कर सकना संभव हुआ है। किंतु दुर्भाग्य एक ही बात का है कि नीति व्यवहार लक्ष्य उद्देश्य अनुबंध अनुशासन जैसे महत्वपूर्ण विषयों में उसने औचित्य के स्थान पर अनौचित्य अपनाया है। यह इस कारण बन पड़ा कि आत्मगौरव को एक प्रकार से विस्मृत कर दिया गया। कर्तव्यों उत्तरदायित्वों के संबंध में उपेक्षा बरती गयी। मर्यादाओं का परिपालन और वर्जनाओं का अनुशासन निभा सकना बन नहीं पड़ा। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है। विचार पद्धति को अनौचित्य के साथ जोड़कर जो कुछ बन पड़ा उसमें लाभ का अंश स्वल्प और पतन पराभव का ही बहुत बड़ा अंश रहा।

सुधार इसी का किया जाना है। परिवर्तन यही से आरंभ होना है। इतिहास में राजक्राँतियों समाज क्राँतियों; आर्थिक क्राँति के वर्णन है। पर अब तक समग्र विचार क्राँति का एक अनुष्ठान संभव नहीं हुआ जो चक्रवर्ती शासन की तरह विश्व की चिंतन व्यवस्था को उत्कृष्टता के केन्द्र पर केन्द्रित रखे। दार्शनिक हेर-फेर होते रहे है। प्रथा-परंपराओं के परिवर्तन और नये समन्वय होते रहे है। साँस्कृतिक उथल-पुथल भी होती रही हैं। पर विचार क्षेत्र में ऐसी महाक्राँति अभी तक नहीं हुई जो मनुष्य को मानवी दृष्टिकोण के साथ घनिष्ठतापूर्वक जोड़ती औचित्य एवं विवेक को सर्वमान्य बना पाने में सफल होती। इसी कमी का प्रतिफल है। अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने ढंग की अवाँछनीयताएँ पनपती रही है।

विचारों की सर्वोपरि शक्ति का जिन्हें ज्ञान है उन्हें यह भी विदित है कि विचार जिस ओर भी समग्र संकल्प और पुरुषार्थ को साथ लेकर चल पड़ते हैं उसी क्षेत्र की आश्चर्यजनक प्रगति के सरंजाम खड़े करते रहते हैं। संसार में जो कुछ हुआ है या होने जा रहा है उसे एक मात्र विचार शक्ति की उपलब्धि ही माना जाना चाहिए। भली होने पर वही उत्थान के सरंजाम जुटाती है और बुरी होने पर वही पतन पराभव के अंबार खड़े कर देती है। विलास और वैभव में रुचि लेने लगती है तो उसमें भी कमी नहीं रहती। उद्दंडता पर उतरती है तो हाहाकार खड़े कर देती है। क्रियाकलापों; चेष्टा विधानों; सरंजामों और सफलताओं की चर्चा तो बहुत होती रहती है; उसके मूल में निमित्त कारण क्या रहा है? इसका पर्यवेक्षण करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि विचार प्रवाह ही वह बाजीगर है जिसकी उँगलियों से बंधे हुए तार परिस्थितियों और उपलब्धियों की कठपुतलियाँ नचाते और चित्र-विचित्र कौतुक कौतूहल खड़े करते रहते हैं। होता यह रहा है कि अनपेक्षित क्रिया-कलापों को रोकने के लिए भर्त्सनाओं और प्रताड़नाओं के अवरोध काम में लाये जाते रहे।होता यह भी रहा है कि अभीष्ट प्रगति के लिए सुविधा साधन जुटाने के प्रबंध होते रहे। पर यह भुला दिया गया कि यह सब आवश्यक होने पर भी पर्याप्त नहीं। जब तक विचार विश्वास साहस और पुरुषार्थ का आँतरिक वर्चस्व उभारा न जायेगा तब तक कोई भी प्रयास परिणाम स्थायी न हो सकेगा। विपन्नताओं में फँसने के लिए अवाँछनीय मान्यतायें ही विवश करती है। ऊँचा उठने के लिए वह उत्कृष्टता चाहिए जो सद्गुण और सत्प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होती और कोयले जैसी परिस्थितियों को उपयुक्त तापमान देकर हीरे में परिणत करती है।

संसार में वस्तुओं का इतना अभाव नहीं कि किसी को निर्वाह साधनों के संबंध में अभावग्रस्त रहना पड़े। परिस्थितियों में साधनों में इतनी शक्ति नहीं है कि वह किसी को विशिष्ट और वरिष्ठ बता सकें। हँसती हँसाती; खिलती-खिलती जिंदगी जीने के लिए वैभव की बहुलता अपनी कारगर भूमिका नहीं निभा पाती। जबकि स्वल्प साधनों के बीच भी व्यक्ति ऋषिकल्प जीवन जी सकता है और नर काया में रहते हुए भी नारायण स्तर की भूमिका निभा सकता है। स्वयं धन्य होता और संपर्क क्षेत्र को कृतकृत्य करता दीख पड़ता है।

साधन जुटाने और बढ़ाने की चेष्टा को उचित ठहराया और सराहा जा सकता है पर इतने भर से यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि उतने भर से ही कोई सुखी रह सकता है और साथियों को सुखी रहने दे सकता है। अभीष्ट उत्पादन और उसके सदुपयोग की समुचित क्षमता उच्चकोटि के विचारों में ही भरी-पूरी है। यदि वह हस्तगत हो सके तो व्यक्ति कठिन परिस्थितियों से निपटता हुआ अपने अभीष्ट क्षेत्र में अनवरत गति से आगे बढ़ता रहता है।इसके ठीक विपरीत देखा यह भी गया है कि दुर्बुद्धि के रहते प्रचुर साधन संपदा किसी प्रकार हस्तगत हो जाने पर भी उससे केवल अनर्थ ही अनर्थ उपस्थित होता चला जाता है।

इन दिनों संपन्नता; शिक्षा और वैज्ञानिक प्रगति की बात जोर−शोर से कही जाती है। कथन का औचित्य मानते हुए भी इस तथ्य को भी साथ लेकर चलना चाहिए कि गुण-कर्म-स्वभाव में सत्प्रवृत्तियों का समुचित समावेश करने वाली सदाशयता से भी जन-जन को सुसंपन्न किया जाना चाहिए ताकि वह अभावों को अपने बाहुबल से सरलतापूर्वक निरस्त कर सके। हर परिस्थितियों में व्यक्तित्व को प्रतिभा; प्रामाणिकता और प्रखरता से सुसंपन्न करते हुए समग्र प्रगति का अधिष्ठाता बना सके। यह विचार क्राँति ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जन-मानस को परिष्कृत करने की बात को उपेक्षा नहीं टाला जाना चाहिए अन्यथा अपेक्षाकृत संपन्न बनने पर भी मनुष्य न तो चैन से बैठ सकेगा और न संबंधित जनों को चैन से बैठने देगा। निर्धनता बुरी है पर उससे भी हजार गुनी बुरी विचार भ्रष्टता है जिसके कारण दरिद्रता का ही नहीं दुष्प्रवृत्तियों का भी शिकार बनना पड़ता है। समृद्धि का समुचित लाभ उठाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि सद्विचारों से उद्भूत शालीनता को प्राथमिकता दी जाय और उसे अर्जित करने के लिए प्राणपण से प्रयत्न किया जाय। इसी का नाम है विचार क्राँति। यही है नवयुग की आधारशिला। समग्र परिवर्तन इसी आधार पर होगा।


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