अवसर को पहचान लेने की औचित्य भरी सूझ-बूझ

September 1994

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महानता की अपनी निजी सामर्थ्य है। उसके आधार पर वह स्वयं तो अपनी प्रखरता एवं गरिमा प्रकट करती ही है साथ ही अपने संपर्क परिकर को भी उन विशेषताओं से भरती और कृतकृत्य बनाती देखी गयी है। अतएव महान बनने के लिए जहाँ आत्म साधना और आत्म विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है वहाँ इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी -प्रखरता सके संपर्क साधने-सान्निध्य में रहने और लाभान्वित होने का अवसर भी न चूका जाय। यो ऐसे अवसर कभी -कभी ही आते और किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं। किंतु कदाचित वैसा सुयोग बैठ जाय तो ऐसा अप्रत्याशित लाभ मिलता है। जिस ईश्वर के दिव्य अनुदान वरदान के समतुल्य कहा जा सके।

महानता के साथ संपर्क साधना उसके सहयोग का सुयोग पा लेना भी कई बार अप्रत्याशित सौभाग्य बनकर सामने आता है। चंदन के समीप झाड़-झंखाड़ों के सुगंधित बन जाने और उसी मूल्य में बिकने की किंवदंती प्रख्यात है। पानी के दूध में मिलकर उसी भाव बिकने की उक्ति आये दिन दुहराई जाती रहती है। पारस को छूकर काले कुरूप और सस्ते मोल वाले लोहे का सोने जैसे बहुमूल्य धातु में बदल जाना प्रख्यात है। पेड़ से लिपट कर चलने वाली बेल उसी के बराबर ऊँची जा पहुँचती और अपनी प्रगति पर गर्व करती है जब कि वह अपने बलबूते मात्र जमीन पर ही थोड़ी दूर रेंग सकती है। उसकी दुर्बल काया को देखते हुए इतने ऊँचे चढ़ जाने की बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती किंतु पेड़ सान्निध्य और लिपट पड़ने का पुरुषार्थ जब सोना सुहागा बन कर समन्वय बनाते हैं तो उससे महान पक्ष की तो कुछ हानि नहीं होती पर दुर्बल पक्ष को अनायास ही दैवी वरदान जैसा लाभ मिल जाता है।

महान अवसर और महान व्यक्ति दोनों ही महानता के प्रतीक माने जाते हैं और उनके अनुग्रह संपर्क का लाभ लेने के लिए सभी दूरदर्शी जागरुक रहते हैं। इसके विपरीत दीर्घ सूचना का आलम-असमंजस जिन पर चढ़ा रहता है वे अभ्यस्त ढर्रे को बदल कर समय के साथ चलने की बात न सोच ही सकते हैं और न सोचने पर इतने साहस का परिचय दे पाते हैं कि अनभ्यस्त मार्ग पर दो कदम भी रख सकें। कोल्हू के बैल की प्रकृति ऐसी ही होती है। कोई संचालन न रहने पर भी वह निर्धारित कुचक्र में स्वेच्छापूर्वक घूमता और मरता-खपता रहता है। परंपरावादियों को आदत इसी प्रकार की होती है। बुद्धिपूर्वक उन्हें किसी उपयोगी प्रयोग का परामर्श दिया जाय तो वे अधिक से अधिक सहमति सूचक सिर हिला सकते हैं। परिवर्तन के लिए जब-तब कुछ उलट-पुलट की बात सामने आती है। तो कितने ही विवशता असमर्थता सूचक बहाने बताने कारण गिनाने लगते हैं। जिन दूसरों ने उस अवसर का लाभ उठा लिया और कृतकृत्य बन गये उनका उदाहरण सामने आने पर वे पछताते भी है कि उनने भी वैसा ही करने में क्या प्रमोद बरता?

पर तब इस पछतावे का कोई महत्व नहीं रह जाता। समय चला जाता है तो फिर लौट कर कहाँ आता है?

महान अवसरों को तो समझ सकना प्रज्ञा मनीषा का काम है। आँख की सामान्य स्थिति होने पर भी पर्दे के पीछे असामान्य को झाँकते हुए कोई सूक्ष्मदर्शी ही देख पाते हैं। किंतु इसी प्रकार के दूसरे आधार महामानवों के संपर्क सहयोग का लाभ अधिक सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। वैसे सुयोगों पर उपयुक्त भूमिका निभाने की बुद्धिमता सामान्य स्तर के लोग भी दिखाने पाये गये है।

राम चरित्र के साथ जुड़ जाने पर कितने ही सामान्य स्तर के प्राणियों ने सामान्य क्रियाकलापों के सहारे असामान्य श्रेय पाया। इस तथ्य को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।

बंदर स्वभावतः इधर-उधर लकड़ी पत्थर फेंकते रहते हैं समुद्र पर पुल बनाने में प्रायः इतनी ही कूद फाँद उन्हें करनी पड़ी होगी पर उसे सुयोग ही कहना चाहिए कि उतनी छोटी सी उदार श्रमशीलता को ऐतिहासिक बना दिया और कयावाचक उसकी भावभरी चर्चा करते-करते अघाते नहीं। ऐसे आदर्शवादी सहयोगों की सफलता में कर्ताओँ को पुरुषार्थ ही नहीं दैवी सहायता भी काम करती है और श्रेय उन अग्रगामी साहसियों के पल्ले बँध जाता है। नल-नील ने समुद्र पर पुल बनाया और पत्थर पानी पर तैरने लगे। इस प्रकार के घटनाक्रम सामान्य स्थिति में देखे नहीं जाते। दैवी प्रयोजनों में दैवी सहायता की असाधारण मात्रा उपलब्ध होती है।

हनुमान का उदाहरण इसी प्रकार का है। वे सदा से सुग्रीव के सहयोगी थे पर जब बालि ने उसकी संपदा एवं गृहिणी का अपहरण किया तो वे प्रतिरोध में कोई पुरुषार्थ न दिखा सकें।

इससे प्रतीत होता है कि उस अवसर पर सुग्रीव की तरह हनुमान ने भी अपने को असमर्थ पाया होगा और जान बचाकर कही खोह-कंदरा का आश्रय लेने में ही भला देखा होगा। इससे स्पष्ट है कि उनकी जन्मजात क्षमता सामान्यों में अधिक नहीं रही होगी। पर जब वे प्राण हथेली पर रखकर रामकाज के परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हुए दो पर्वत उठाने समुद्र लाँघने अशोक उद्यान उजाड़ने लंका जलाने जैसे असंभव पराक्रम दिखाने लगे। सुग्रीव -पत्नी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहने पर भी अन्य देश में समुद्र पर बसे अभेद्य दुर्ग को बेधकर वे सीता माता को मुक्त कराने में सफल हो गये। इसमें दैवी सहायता की बात प्रत्यक्ष है। ऐसा अनुग्रह उन सभी को मिल सका जिन्होंने राम की गरिमा को उनके लीलीक्रम को सहयोग देने की परिणति की पूर्व कल्पना कर ली। वयोवृद्ध जामवंत और जटायु अकिंचन गिलहरी दरिद्र केवट और शबरी की सामर्थ्य और भूमिकाओं को देखा जाय तो उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये अनुदान अकिंचन जितने ही कहे जा सकते हैं। इतने पर उनकी गाथायें अजर अमर बन गयी। वे श्रेयाधिकारी बने और अपने उदाहरणों से असंख्यों को भावभरी प्रेरणाएं दे सकने में समर्थ हुए। इस सौभाग्य भरी उपलब्धि में प्रमुख श्रेय उस सूझबूझ को है जिसने अपनी श्रद्धा-सहायता को महान व्यक्तित्व और महान अवसर के साथ जोड़कर लाखों गुना अधिक श्रेय कराया।

कृष्णा चरित्र दृष्टिपात करने से भी यह प्रश्न असाधारण रूप ये उभरकर सार धारण है। गोपियों का छाछ पिलाना; थोड़ी सी हँसी-ठिठोली कर देना ग्वाल−बालों का लाठी-सहारा जैसे कृष्णा ऐसे नहीं है जिन्हें दैनिक जीवन में सर्वत्र घटित होने रहने वाले सामान्य उपक्रमों से भिन्न समझा जा सके। इतने पर भी वे सहयोग पुराण-उपाख्यानों में बहुत बार दुहराये-सराहे जाते रहते हैं। युद्ध में अनेकों योद्धा लड़ते और झगड़ते जीतते रहने है पर अर्जुन भीम जैसों को जो खेस मिलन उनकी गरिमा सम्मान्य हो गयी। अर्जुन भीम वे ही व जिन्हें वनवास के समय पेट भरती के लिए और जान बचाने के लिए सात बनकर दिन गुजारने पड़े थे। द्रौपदी को निर्वमन होते आँखों से देखने वाले पाण्डव भी अस्तुत महाभारत जीत सकने जैसी समर्थक के धनी रहे होते तो न तो दुर्योधन; दुशासन वैसी धृष्टता करते और न पाण्डव ही उसे महान कर पाते। कहना न होगा कि पाण्डवों की विजय की में उनकी वह बुद्धिमत्ता ही मूर्धन्य मानी जायगी जिसमें उनने कृष्ण को अपना और अपने को कृष्ण का बनाकर भगवान से रथ के घोड़े हँकवाने जैसे छोटे काम कराने को विवश कर दिया था। यदि वे वैसा न कर पाते और अपने बलबूते जीवन गुजारते तो स्थिति सर्वथा भिन्न‍ होती और यायावरों की तरह जैसे तैसे जिंदगी व्यतीत करते।

सुदामा की कृष्ण से सघन मित्रता जमा सकने की दूरदर्शिता हो उन्हें मित्र के समतुल्य बना देने का श्रेय दिला सकी। कृष्ण-सुदामा की संयुक्त चर्चा अनेकानेक अवसरों पर होता रहती है। कोई कृष्ण की उदारता को तो कोई सुदामा की गौरव गरिमा को प्रधानता देते हैं। जो हो दोनों का सान्निध्य समन्वय अपनी चमत्कारी परिणीत सिद्ध कर सके।

बुद्ध और गाँधी के महान व्यक्तित्वों के के संबंध में दे सके नहीं हो सकती पर इस संदर्भ में इस तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उनके सवान संपर्क आने वाले असाधारण रूप से लाभान्वित हुए और से भाग्यशाली बने। भगवान बुद्ध के साथ जुड़ने का साहस न कर पाते तो हर्षवर्धन; अशोक; आनंद राहुल कुमार जीव संघमित्रा अंबपाली आदि की जीवनचर्या कितनी नगण्य रह गयी होती -इसका अनुमान लगा सकता किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। महात्मा गाँधी से पाप यदि विनोबा; राजगोपालचार्य; नेहरू पटेल राजेन्द्र बाबू आदि न घुले होते तो वह स्थिति बलबूते उठते बैठने की बात सोचें तो फिर परिणाम भी कुछ दूसरे ही स्तर के होने की बात सामने आती है।

चाणक्य के साथ चन्द्रगुप्त समर्थ गुरु रामदास के साथ शिवाजी रामकृष्ण परमहंस के साथ विवेकानंद विरजानंद के साथ दयानंद की सघनता दोनों पक्षों के लिए कितनी संतोषजनक परिणाम प्रस्तुत कर सकी इसे कौन नहीं जानता। माँधाता ने आद्य शंकराचार्य के साथ जुड़कर चारों धाम बनाने का श्रेय पाया। भामाशाह का अनुदान राणाप्रताप के साथ संबद्ध होने पर ही सार्थक हुआ अन्यथा इतना पैसा तो सेठ-साहूकारों के यहाँ से चोर-ठग भी उठा ले जाते हैं और बेटे पोते दुर्व्यसनों में उड़ाते-फूँकते देख जाते हैं। महामानवों के साथ जुड़ जाने पर श्रेयपथ कितनी द्रुत गति से प्रशस्त होता है इनसे असंख्य उदाहरणों में टिटहरी का वह कण भी सम्मिलित है जिसमें अगस्त्य ऋषि की सहायता से समुद्र सोखे जाने और अंडे वापस मिलने की घटना कही जाती है।

असामान्य पतियों की अर्धांगिनी बनकर कितनी ही नारियाँ ऐसा उच्चस्तरीय श्रेय पा सकी। है जैसा कि अपने बलबूते उनके लिए पा सकना संभव नहीं था। कस्तूरबा गाँधी अहिल्याबाई लक्ष्मीबाई जैसी अगणित महिलायें इसी श्रेणी में आती है। पौराणिक युग की राधा अरुन्धती षबी मैवेयी द्रौपदी आदि की गौरव गरिमा में उनके पतियों के व्यक्तित्वों का कम योगदान नहीं रहा है। इस सौभाग्य के अभाव में उन्हें सामान्य महिलाओं की तरह ही जीवनयापन करना पड़ता। महानता आग के समान है उसके संपर्क में जो भी आता है गरिमायुक्त एवं तद्रृश होना चला जाता है।

अग्रगामी सदा श्रेयाधिकारी होते रहे है। संसार भर के आंदोलनों में जा सर्वप्रथम आगे आये वे प्रख्यात हुए। यों सत्साहस अपनाने त्याग-बलिदान करने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी पर इस दिशा में बढ़ाने सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान वे है जो किसी महान अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। महान व्यक्ति भी सदा नहीं जन्मते। जन्मते हैं तो उनके साथ जुड़कर स्वल्प पराक्रम से असीम यश पाने का सुअवसर हर किसी को कहाँ मिलता है? इस दैवी वरदान या पूर्व संचित पुण्यों का प्रतिफल ही कहना चाहिए कि महानता उभरे और उसके साथ सघनता स्थापित करने का साहस जग पड़े।

युगसंधि के आगामी कुछ वर्ष ऐसे ही है जिनमें मानवी भविष्य का निर्धारण होना है। स्रष्टा को अपने युगाँतरीय अवतार कौशल को भूतकाल की अपेक्षा असंख्य गुनी प्रखरता के साथ प्रकट करना है। धरती के आरंभ से लेकर अद्यावधि इतिहास क्रम में इन दिनों की हलचलों को अनुपम अद्भुत समझा जायेगा। जाग्रत आत्माओं को देवसंस्कृति के संदेश वाहकों को इन्हीं दिनों नव सृजन में योगदान का निमंत्रण मिला है। जो उनकी उपेक्षा करेंगे वे उन अभागों में गिने जायेंगे जो सफल होने की पूर्ण संभावना रहते हुए उच्च पदासीन होने की चुनाव प्रतिस्पर्धा में सम्मिलित होने से इनकार करके घर बैठे रहे।

दूरदर्शिता जहाँ आत्म प्रगति के लिए निजी योग्यता बुद्धिमत्ता एवं प्रयास-तत्परता को महत्व देती है। वहाँ इस तथ्य की भी अपेक्षा नहीं करती कि यदि संयोगवश कोई सुयोग संयोग महानता के साथ जुड़ सकने का हाथ लग सके तो उसका लाभ हर मूल्य पर उठाया जाय। ऐसी जागरुकता खोज और व्युत्पन्नमति की चिरकाल तक भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती रहती है कि जिसने सुयोगों को खोज निकाला और उससे लाभान्वित होने में आगा-पीछा सोचते रहने का प्रमोद न अपनाया। प्रस्तुत युगसंधि की बेला को इसी प्रकार की सौभाग्यशाली घड़ी कह सकते हैं उसमें जो महाकाल के युग निमंत्रण को सुनने-समझने स्वीकारने और साथ चल पड़ने की बुद्धिमत्ता अपना सकेंगे वे अगले दिनों कृतकृत्य होकर रहेंगे और श्रेय संचित कर सकने वाले दूरदर्शियों में गिने जायेंगे।


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