अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता – नारी जागरण

September 1994

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लम्बे समय तक अवगति की स्थिति में रहते-रहते मनुष्य का मनोबल टूट जाता है। कालान्तर तक चलने वाली हेय स्थिति भी स्वभाव का अंग बन जाती है और फिर वह उसी को नियति मान बैठती है। उसे बदलने और छुटकारा पाने की भी चेष्टा नहीं की जाती पिछड़ेपन के गर्त में गिरे हुए असंख्यों की मनोदशा ऐसी ही होती है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ तो पिछले लोगों को सताती ही हैं। पर साथ ही यह क्रम भी चलता रहता है कि गई गुजारी स्थिति में रहते-रहते मनःस्थिति अंततः दुर्बल हो जाती है। ऐसी दशा में प्रस्तुत परिस्थितियों में परिवर्तन करने की बात है कहाँ से सोची जाय? सुधार करने जैसी उत्कंठा भी नहीं उठती।

पिछड़े समुदाय के इर्द−गिर्द फैला हुआ समुदाय और वातावरण भी ऐसा बन जाता है जो प्रचलन को ही परंपरा मानने का पूर्वाग्रह की बात उसे परंपरा तोड़ने या निर्धारण करने वाले पूर्वजों का अपमान जैसी दिखती है। प्रगतिशीलता के प्रयासों का समर्थन करना तो दूर, उलटा उसमें यथा संभव अड़ंगे को अटकाने की प्रक्रिया होती रहती है। परिवर्तनों का विरोधी असहयोग ही करता देखा जाता है भले ही वह बात करता देखा जाता है भले ही वह बात कितनी ही उपयोगी आवश्यक ही क्यों न हाँ? मूढ़मति का जहाँ दुराग्रह अड़ जाय वहाँ तर्क, तथ्य और सुझाव समाधान प्रायः ही हो जाते हैं। संसार के पिछड़े समुदाय में नारी वर्ग ही सबसे अधिक विचारशील स्थिति में है। जनसंख्या की दृष्टि से आधी होते हुए भी उसे दूसरे दर्जे का नागरिक होकर रहना पड़ता है। पशु पालक अपने जानवरों को रस्सी में जकड़ कर रखता है। नारी के संबंध में इतनी उदारता बरती गयी है कि उसे बाँधने के लिए जंजीरों की आवश्यकता नहीं समझी गई। उसे वातावरण की दृष्टि से मानसिकता की जकड़न ने इस स्तर का बना दिया गया है कि वह अपने सुधार परिवर्तन के लिए कुछ सोचते या करने तक को स्वेच्छापूर्वक तैयार तक नहीं होती। इसके लिए उसे बाहरी सहयोग की आवश्यकता पड़ेगी। पक्षाघात पीड़ितों को, पोलियो ग्रस्तों को भी सहारा देकर ही उठाना चलाना पड़ता है।

भूतकालीन इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि उसका अतीत बहुत ही शानदार रहा है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रहा है जिसमें अवसर मिलते ही उसने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय न दिया हो। उपलब्ध इतिहास की पुस्तकों में प्रायः राजा सामंतोधनाध्यक्षों का ही उल्लेख प्रधान रूप से मिलता है। आधी जन संख्या में से किसी ने कुछ महान प्रयोजन संपन्न किये है इसकी चर्चा तो इसलिए भुला दी गयी कि वैसा करने में नारी को भी नर की तुलना में समान होकर बैठने का अवसर मिलता और पुरुष की वरिष्ठता का पलड़ा उतना ऊँचा न रहता। पर यदि निष्पक्ष रूप से अनीति का दर्प क्षीण किया जाय तो प्रतीत होता है कि समाज की सर्वतोमुखी प्रगति में नारी का योगदान किसी भी दृष्टि से हलका नहीं रहा। शौर्य पराक्रम, बुद्धिमत्ता, नीतिमत्ता, सुव्यवस्था, साहित्य, संगीत कला जैसे क्षेत्र में उसकी कृतियाँ ऐसी ही है। जिन्हें नर के समतुल्य स्वीकार किया जा सके।

प्रकृति ने नारी को एक विशेष श्रेय, दायित्व एवं गौरव प्रदान किया है। वह है उसकी प्रजनन क्षमता। मातृत्व वंश का अस्तित्व बनाये रहने की गरिमा। यदि इस क्षेत्र में भी वह पुरुष जैसी स्थिति में ही रहती तो निश्चय है कि मानवी सत्ता का पूरी तरह लोप आज से बहुत पहले हो गया होता। अब भी यदि किसी कारण नारी विद्रोह पर उतर आये और इस जोखिम भरे असह्य कष्टों को सहने से इनकार कर दे तो फिर एक शताब्दी से भी कम में इस धरती पर मनुष्य नाम से जाना जाने वाला जीव कहीं ढूँढ़े भी नहीं मिलेगा। लगभग मनुष्य के लिए तो महाप्रलय जैसी स्थिति पैदा हो जायेगी। भले ही अन्य जीवधारी इस पृथ्वी पर किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाये रहें।

प्रजनन की अवधि में प्रायः नारी का स्वास्थ्य शारीरिक दृष्टि से कम जरूर होता है। असह्य कष्टकारक स्थिति में होकर गुजरने के कारण का गर्भ धारण और प्रसव वेदना के कष्ट में से गुजरने के अवसर नया जन्म धारण करने जैसा अवसर बाद में दूध के रूप में अपना रक्त पिलाते रहने का असाधारण अनुदान यह सब मिल कर इतना भारी हो जाता है कि उसे नारी की सहनशीलता और धीरज धारण कर सकने की मनःस्थिति ही किसी प्रकार पार लगाती है। फिर यदि जल्दी-जल्दी कई बच्चे पैदा करने पड़े तो समझना चाहिए कि पति की कामुकता शांत करने और उसकी वंश चलने की इच्छा के नाम पर उसने जीवन के महत्वपूर्ण भाग का बलिदान ही कर दिया। जिस रूप लावण्य की लोग प्रशंसा करते-करते नहीं थकते थे वह दो बच्चों की माँ होने के बाद ही न जाने कहाँ चला जाता है और जवानी में बुढ़ापे और रुग्णता की स्थिति आये दिन सताती रहती है। प्रेम प्रसंग की बढ़-चढ़ कर दुहाई देने वाले भी उपेक्षा करने और मुँह मोड़ने लगते हैं। यह सब नारी की उदार स्वीकृति से ही संभव हो पाता है। यदि वह विरोध या असहयोग पर उतर आये तो उस हानि को उठाने की कोई आवश्यकता ही न पड़े जिसके कारण वह जर्जर हो जाती है और जन्मजात उपलब्धियों का एक बड़ा अंश कौड़ी मोल गँवा देती है।

आश्चर्य इस बात का है कि इतने बड़े त्याग के बदले उसे जो सम्मान मिलना चाहिए वह तो दूर उलटा यह समझ लिया गया कि वह तो मात्र दूसरों की तरह जीवित रहने के लिए पैदा हुई है। घर की चहार दीवारी में पिंजड़े में बंद पक्षी की तरह बंद रहना ही उसकी नियति है। उसके लिए उपयुक्त एवं पर्याप्त काम रसोईदारिन, चौकीदारिन, भंगिन एवं सफाई कार्य आदि के स्तर का ही है। यह भी स्वेच्छा सहयोग के रूप में नहीं, बाधित रूप में करने के लिए विवशता लाचारी होने के कारण। उसे कोल्हू में जीवन भर खपते रहना पड़ता है जिससे छुटकारा मृत्यु से पूर्व ही हो पाता है। कवि शास्त्रकार तथा विधि नियति की बातें करने वाले सबल पक्ष की दुविधाओं का समर्थन करने में ही अपना लाभ सोचते रहते हैं। दुर्बल या पीड़ितों का पक्ष लेने में उन्हें धाय ही घाटा दीखता है। शास्त्रों में पतिव्रत का आकाश पाताल जैसा महत्व बताता गया है। पर पत्नी व्रत की चर्चा बिना किसी अनिवार्यता के की गई है। नर के लिए ऐसा कुछ करना उन्हें जरूरी भी नहीं जान पड़ा। घूँघट स्त्रियों को शील की रक्षा की दृष्टि से निकालना चाहिए। पर पुरुष को उस अनुबंध में छूट दी गई है।

यद्यपि अमर्यादित व्यवहार करने में वही अग्रणी देखा जाता है। कभी विधवाओं को मृत पति के साथ सती होना पड़ता था। पर उन दिनों ठीक उसी का अनुकरण किसी पति ने अपनी स्त्री के मरने पर किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ता विधुर होने पर पति कई बार विवाह कर सकता है पर विधवाओं के लिए वैसी छूट कहाँ?

शिक्षा और स्वावलंबन की दिशा में नारी को बढ़ सकने की सुविधा ही नहीं मिली। स्कूलों में बड़ी आय होने से पहले ही उन्हें रोक दिया जाता है। अल्प शिक्षित और आजीविका उपार्जन क्षेत्र में पिछड़ी, जन संपर्क के अभाव में सर्वथा अनुभवहीन परिस्थिति में यदि नारी को अबला, असहाय और अपंग जैसी स्थिति में रहना पड़ा तो इसमें आश्चर्य ही क्या? इतनी अड़चनों के रहते यदि नारी वर्ग में से कुछ प्रतिभाएँ उभर कर आगे आ सके तो इसे एक आश्चर्य ही कहना चाहिए।

प्रकृति ने नर की तुलना में नारी को कहीं अधिक वरिष्ठ और विशिष्ट बनाया है। उसका रूप-लावण्य, सुगठन तथा स्वर अपेक्षाकृत कहीं अधिक आकर्षण और प्रशंसनीय है। शरीर संरचना की दृष्टि से उसमें जीवनी शक्ति और सहनशीलता का अनुपात सारे वैज्ञानिक कथनों के अनुसार नर से कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। संतुलन बनाये रहने में उसकी स्थिति कहीं अच्छी है। नर तनिक भी प्रतिकूलता आने पर घबराता, संतुलन खोता, आवेशग्रस्त होता देखा गया है। पर नारी उसकी तुलना में कहीं अधिक धैर्य और साहस का परिचय देती देखी गयी है। ताल-मोल बिठा सकने में बढ़ाने और विद्वेष घटाने में कहीं अधिक सफल रहती देखी गयी है। प्रतिकूलता के बीच भी जितने कौशल से समय गुजार लेती है वैसे करते नर को कभी-कभी ही देखा जाता है। झगड़ा खड़ा करने वालो, आत्महत्या करने वालों में पुरुषों का ही अनुपात अधिक रहता है। नशेबाजी जैसे दुर्गुण प्रायः उन्हीं के हिस्से में आये देखे जाते हैं। स्त्रियों में तो ऐसी कुटेवें कदाचित ही कहीं देखी जाती है।

इक्कीसवीं सदी के आने तक अब पाश्चात्य देशों के समृद्ध समुदायों में नारी के बंधन ढीले करने की समझदारी जगी है। विकृत रूढ़ियों और प्रतिगामिताओं से हाथ खींचा गया है और सोचा गया है कि नारी की प्रगति को अवरुद्ध करने का जो सिलसिला चल रहा है उसमें सुधार लाने की आवश्यकता है। इससे न केवल अनीति का परिमार्जन और नीति का मानवोचित समर्थन होगा, भौतिक प्रगति की दृष्टि से भी देश और समाज को अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा। समझ के परिपक्व होते चलने पर नर और नारी का स्तर समान समझा जाने लगा तथा लड़कियों को भी लड़कों की तरह समुचित स्थान प्राप्त करने के अग्रसर मिले सरकारी नौकरियों में उन्हें पुरुषों की तरह ऊँचे पद सँभाल सकने की सुविधा मिली। विवाह को लड़की-लड़कों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है। दोनों में से किनकी आयु अधिक या कम होनी चाहिए इसका कोई प्रतिबंध न रहा। फिर विवाह होने पर प्रजनन का दायित्व उठाना, न उठाना भी ऐच्छिक विचार बनकर रह गया। व्यवसाय क्षेत्र में प्रवेश की सुविधा दोनों ही वर्ग को समान रूप से प्राप्त है। इस स्तर का परिणाम यह हुआ कि सभी विकसित देश अपने क्षेत्र की आधी जनशक्ति की योग्यता का समुचित लाभ उठाने लगे है और उस समन्वित लाभ के फलस्वरूप अपने सर्वतोमुखी प्रगति में चार चाँद लगाते चले जा रहे है।

प्रतिगामिता की विडंबना के बीच जीने वाली पिछड़े समुदायों की नारियाँ कूप-मंडूक की तरह एक समुचित दायरे में कैदी की जिंदगी जीती है। उन्हें न तो समुचित शिक्षा मिल पाती है और न ऐसी योग्यता का सुयोग बनता है जिसके सहारे वे अपने अधिक कौशल का परिचय दे सकें और अधिक सक्षम और अधिक सुयोग्य बन सकें। योग्यता के अनुरूप अपनी क्षमता का समुचित मूल्य उपार्जित करके परिवार के लिए अधिक सहायक सिद्ध हो सकें। यह अयोग्यता भी एक प्रकार से पक्षाघात पीड़ितों जैसी स्थिति है। उन्हें पुरुषों की कमाई पर ही निर्भर रहना पड़ता है। कमाने वाला अधिक अहंकार की पूर्ति कर सकता है और अधिक मनमानी भी। ऐसी दशा में पिछड़ी महिलाएँ कमाऊ पुरुषों की इच्छा पर जीवित रहती और उसके गले में बँधे पत्थर की तरह लटकती रहती है।

इसके ठीक विपरीत उन देशों की स्थिति है जिन्हें मानवोचित अधिकार प्राप्त करने में लड़ झगड़ कर या उदार संवेदना को उत्तेजित करके समानता की स्थिति में रहने की सुविधा मिल गई है। यही कारण है उन देशों की महिलाएँ चिकित्सा, विज्ञान समाज-कल्याण के क्षेत्र में तो पूरी तरह जिम्मेदारियाँ सँभाल रही है। इसके अतिरिक्त व्यवसाय, सेना, राजनीति जैसे जटिल समझे जाने वाले क्षेत्रों में भी उनकी स्थिति पहले की तुलना में अनेकों गुनी अच्छी हो गयी है। राजनीति पर पुरुषों का एकाधिकार था। पर वहाँ अब वैसा नहीं रहा। उनकी कूटनीतिक कुशलता भी मूर्धन्य स्तर तक पहुँच चुकी है। वे अनेक देशों में प्रधान मंत्री है तथा मंत्रिमंडल के अति महत्वपूर्ण विभागों को सफलतापूर्वक संचालित कर रही है। उदाहरण के रूप में तुर्की, आयरलैण्ड, बंगलादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, फिलीपीन्स को देखा जा सकता है। तुर्की तो प्रतिगामी धार्मिक कट्टरता के दहशत भरे साये में रहने वाले मुस्लिम राष्ट्रों से घिरा मुस्लिम बहुल देश है किंतु प्रगति की सीढ़ियाँ कूदते-फाँदते वह कहीं से कहीं जा पहुँचा है। इसके विपरीत पाकिस्तान व बंगला देश में नारी नेतृत्व के होते हुए भी कठमुल्लापन तथा पिछड़ापन अधिक है। श्रीलंका में तो अभी-अभी एक ही परिवार बंडार नायके खानदान की दूसरी पीढ़ी की श्रीमती चन्द्रिका ने प्रधान मंत्री का पद सँभाला है।

इतने पर भी नर नारी एक समान माने जाने का लक्ष्य प्राप्त करने में अभी देर है। एशिया, अफ्रीका, मध्य-पूर्व आदि देशों की समुद्र के मध्य बसे हुए छोटे जंजीरों ही गई गुजरी है जैसे कि मध्यकाल के सामंती आतंकवाद के बीच बनकर रह रही थी। इन दिनों में पुरुषों तक की शिक्षा नगण्य है फिर नारियों का नंबर कैसे आये? जहाँ सुव्यवस्थित उद्योग धंधे हों ही नहीं, वहाँ नारी ही नहीं नर को भी अध-भूखे, अध-नंगे रहकर गुजर करनी पड़ती है। सभ्यता का श्रीगणेश सुसंस्कृत विचार और वातावरण पर निर्भर करता है। वैसा सुयोग न बने तो वनमानुषों जैसा अनगढ़ जीवन जीना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अनीति बरतने तथा अनीति सहने के लिए ही उन्हें बाधित रहना पड़ता है। प्रगति की महत्वाकाँक्षा ही न उठे तो विकास सुधार का तारतम्य ही कैसे बने यह स्थिति प्रायः आधे से अधिक जन-समुदाय की है जिसमें नारी वर्ग को और भी अधिक गई गुजरी स्थिति में रहना पड़ता है।

समुन्नत कहे जाने वाले देशों में शिक्षा में अर्थोपार्जन भी, समर्थन संवर्धन के रूप में दिखाई देते हैं। इसलिए आर्थिक कठिनाई को एक हद तक पार कर लिया गया है और बढ़ती शिक्षा के सहारे बुद्धिमत्ता भी अर्जित हुई है फिर भी उन क्षेत्रों तक में दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा। प्रगति को उत्कृष्टता की दिशा नहीं मिली और वह विलासिता की ओर मुड़ गई। कामुकता की तृप्ति के लिए अतिवादी रुझान बढ़ा, सजधज और शौक मौज के साधन जुटाने में प्रति-स्पर्धा चल पड़ी। जो कमाया गया था वह इसी भट्ठी में झोंका जाने लगा। अतिवादी उपलब्धियों के लालायित लोगों के लिए अनाचार पर उतारू होना ही एक मात्र रास्ता रह जाता है जिसके आधार पर तृष्णा को स्थायी रूप में न सही, सामयिक क्षणों में तो पूरा किया ही जा सके। संक्षेप में यही है तथाकथित सुसंपन्न देशों की मनोदशा और जीवन शैली। एक दूसरे को गिराने और निचोड़ने के दाँव-पेंच इसी आधार पर चलते रहते हैं। इससे शौक मौज की दृष्टि से वे खुशहाल दीखते हुए भी तथ्यतः ऐसी मानसिकता के बिना ही रहते हैं जिसे व्यक्ति और समाज को शांतिपूर्वक रहने देने के उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।

समूचे वातावरण के प्रभाव से नारी को और अछूता नहीं रखा जा सकता। अविच्छिन्न सहयोगी होने के वास्ते उन्हें भी बहती हवा के सुख के अनुरूप ही दिशा उनकी अपनी क्षमता जहाँ आबादी की सघनता की स्थिति के कारण दुःखदायी बनी हुई है। वहाँ समुन्नत देशों की नारी अपनी उपलब्धियों का उत्कृष्टता की दिशा न दे पाने के कारण खिन्न-विपन्न स्थिति में ही जी रही है। निजी विश्वस्तता और पारस्परिक वफादारी उठ गई है। दोनों पक्ष चौपड़ की चाल चलते रहते हैं। अपनी गोटी लाल करने की ही फिक्र में रहते हैं। आस्था के अभाव में उन्हें स्थिरता के संबंध में अनिश्चित स्थिति में ही रहना पड़ता है। कौन, किसे कब तलाक दे बैठे और प्रेम प्रसंग के दिनों उभारे गये सपनों को कब कुचल मसलकर फेंक दें, कुछ कहा नहीं जा सकता। परिवार संस्था को तो उस तथाकथित प्रगतिशीलता ने कुचल मसल कर ही रख दिया है। न वृद्ध पीढ़ी को अपनी संतान से बुढ़ापे के दिनों कुछ सहारा पाने की आशा रहती है और न नई पीढ़ी को यह भरोसा रहता है कि वे पिता-माता की शतरंजी चालों के बीच अपने आपको निराश्रित होने से बचा सकेंगे। अपना भविष्य बनाने में अभिभावकों का सहयोग किस हद तक प्राप्त कर सकेंगे? कहीं उन्हें बचपन से ही अपने भाग्य की नाव अपने हाथों ही तो नहीं खींचनी पड़ेगी? जिन्हें उस परिस्थिति का स्वयं भुक्तभोगी नहीं बनना पड़ा है, वे अनुमान लगा सकते हैं कि जीर्ण शीर्ण पारिवारिकता की छत्रछाया में कौन कितना निश्चिंत रह रहा होगा। अधिक पैसा कमा लेने, अधिक आकर्षक ठाठ-बाट खड़ा कर लेने पर भी वैयक्तिक और सामाजिक दृष्टि से वहाँ भी अवाँछनीयता ही छाई रहती है। वैवाहिक जीवन के संबंध में तो अधिकांश को अनिश्चित स्थिति में रहना पड़ता है।

अविकसित देशों की नारी दरिद्रता और दबाव के बीच घुटती रहती है तो संपन्न देशों में विलासिता के साथ जुड़ी हुई अनिश्चितता उतनी ही दुःखदायी बनकर रहती है। कारण भिन्न हो सकते हैं और देखने में परिस्थितियों के बीच भारी अन्तर दीख सकता है। पर दोनों ही समान रूप से उत्पीड़न के बीच अपने-अपने दड़बो में बैठी रुदन कर रही है। एक को सोने की जंजीरों में बँधा हुआ समझा जा सकता है तो दूसरों को लोहे की शृंखला में जकड़ा। विपन्नता दोनों को ही अपने-अपने ढंग से घेरे हुए है। संपन्न और निर्धन देशों का वर्गीकरण सरलतापूर्वक हो सकता है और उनके पिछड़ेपन एवं सुविधा के स्वरूप को भी पृथक-पृथक दृष्टि से देखा जा सकता है। पर जहाँ तक नारी की विश्वव्यापी स्थिति का संबंध है, वहीं उसमें अपने-अपने ढंग से सुधार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। अब भी देशों और क्षेत्रों की दूरी मीलों के हिसाब में प्राचीन काल जैसी ही बनी हुई है। पर समय के साथ-साथ गतिशीलता की दौड़ बहुत अधिक तीव्र हो गई है। किंतु नारी के साथ जुड़ी समस्याओं को सुलझाने, विडंबनाओं को मिटाने के लिए ऐसा प्रयास करना होगा जो धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे को छू सके और अपनी प्रेरणा से उपयुक्त परिवर्तन के लिए आवेश जैसी मानसिकता पैदा कर सके। नारी का अपना गौरव अनुभव करने दिया जाय। उसे अपनी सत्ता और महत्ता का आकलन करने दिया जाय। प्रगति के लिए दूसरों पर आश्रित कम रहने और प्रतिभा को अपने निज के बलबूते उभारने के लिए जीवट भरा उत्साह उत्पन्न कर सकने योग्य बनाया जाय। इस बदली हुई मानसिकता का प्रभाव आश्चर्य जनक और चमत्कारी हो सकता है। नर पर निर्भर रहने की विवशतः अपनाकर उसने पाया कम और खोया बहुत है। अब परिवर्तन के नये पक्ष को अपनाये जाने और ठीक समय आ गया है। जिसका प्रयोग शीघ्र परीक्षण मुक्त और खुले दिमाग से होने देना चाहिए।

नर अपनी विशिष्टता का आदि काल से ही बखान और प्रदर्शन करता रहा है। उसने अपनी शरीरगत समर्थता का अधिक परिचय दिया है। इस आधार पर उसने अधिक उपार्जन करने तथा प्रतिद्वन्द्वियों से अधिक दृढ़ता पूर्वक निपट सकने का पराक्रम प्रस्तुत किया है। इसी आधार को प्रधानता देते हुए नारी को उसने वशवर्ती बनाने और उसका शोषण करते रहने में अपने आतंक का परिचय दिया है। इससे एक पक्ष का दर्प दिखाने और दूसरे को उसके सम्मुख अपनी दयनीयता स्वीकार करने का अवसर तो अवश्य मिला है पर ऐसा नहीं हो सका, कि शक्ति का समन्वय हुआ होता। दोनों ने एक दूसरे को सक्षम और पूरक समझने की दूरदर्शिता दिखाई होती और दोनों ही पक्षों द्वारा संयुक्त प्रयास से ऐसा कुछ करते बन पड़ा होता जिससे पेड़ से लिपटी हुई बेल को भी समान ऊँचाई तक उठा सकने का सुयोग मिला होता। दोनों ही कृत-कृत्य हुए होते एवं एक दूसरे के प्रति कृतज्ञ रहे होते। इस अभाव के रहते पुरुष का दर्प और नारी का दैन्य इस संकट के लिए सब प्रकार अहित कर ही रहा है।

लेनिन ने नारा लगाया था कि “ दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ” इन दिनों भी ठीक वैसे ही उद्घोष की आवश्यकता है जिसमें दुनिया की नारियों को सर्वज्ञ मिलते-जुलते शोषण का शिकार बने रहने से इन्कार कर सकने का साहस जगे और व्यापक उत्कर्ष के लिए एक क्षेत्र की प्रगति दूसरे क्षेत्र की अवगति को निरस्त करने में हाथ बँटा सके। देश-देशांतरों के विभाजन के कारण यद्यपि एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आवागमन उतना सरल नहीं रहा तो भी यह बहुत अंशों से संभव है कि प्रगति और अवगति को मिलाकर एक सर्वोपयोगी समतल आधार बनाने का प्रयत्न किया जाय समर्थों द्वारा असमर्थों के लिए अधिक कारगर सहयोगी बन सकना भी संभव हो सकता है।

विश्व के मूर्धन्य विचारकों को नारी की अवगति को क्षेत्रीय समस्या की दृष्टि से देखने और उसका स्थानीय उपचार करने भर से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। इतना भर पर्याप्त न होगा। विश्वव्यापी नारी जागरण आँदोलन का एक जगह से संचालन संभव न हो तो उसे परिस्थितियों के अनुरूप देश-देश में अपने ढंग से चलाया जा सकता है। पर उसका मूल उद्देश्य एक ही होगा कि नर और नारी के मध्य समग्र एकता और समता की संभावना के लिए सुनियोजित ढाँचा तैयार हो सकेगा।

छोटे रूप में यह कार्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर का भी हो सकता है। मानवी सभ्यता और संस्कृति का प्रधान चिह्न यही रहा है कि सुख को बाँट कर और दुःख को बाँट कर चलने की नीति अपनाई जाय और सभी को औसत स्थिति में रहने का सुयोग्य बनने दिया जाय।

बत यदि अपने की ली जा तो भी यह तो हो सकता है कि विकसित स्तर की नारियाँ अपनी अविकसित बहिनों के प्रति अधिक उदार बने और उनके पास जो विलासिता में खर्च करने के लिए समय, चिंतन या साधन मिलता है उसे बचा कर अपने समुदाय के पिछड़े वर्ग को ऊँचा उठाने के लिए नियोजित करने की उदारता दिखायें। यह इसलिए भी संभव है कि वर्तमान प्रचलन में नर और नारियों का सहयोग सहकार चाहे कितना ही ऊँचे उद्देश्य के लिए क्यों न दीख पड़ता हो, उसे संदेह और अविश्वास की दृष्टि में देखा जाता है। अकारण उस पर उँगली उठती है। इसलिए नारी जागरण आन्दोलन में पुरुष के सहयोग को पूरी तरह लिया जाय पर जहाँ तक आन्दोलन चलाने और कार्य रूप में परिणत करने का सवाल है वहाँ तक यही अधिक उपयुक्त होगा कि समर्थ, समृद्ध, प्रबुद्ध और संवेदनशील नारियाँ आगे बढ़े और पिछड़ेपन को सर्व प्रथम मान्यता क्षेत्र में बहिष्कृत करने की पृष्ठभूमि तैयार करे। प्रत्यक्ष उपायों में शिक्षा संवर्धन और गरीबी उन्मूलन को महत्व दिया जाता है। यों सामाजिक कुरीतियों का भी इस प्रस्तुत पिछड़ेपन में कम हाथ नहीं है। इन सभी को व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने से पूर्व यह आवश्यक है कि मानसिकता में ऐसा प्रबल परिवर्तन कर सकने वाला आन्दोलन खड़ा किया जाय जिसमें किसी पक्ष का दर्प और किसी को दैन्य से आक्राँत होने की संभावना निरंतर मिटती चली जाय।

विचार बीज है और कर्म उसका पादप। महान परिवर्तन सर्वप्रथम विचार क्षेत्र से आरंभ होते हैं तो ऐसी परिस्थितियाँ बना देते हैं, जिनमें प्रतिगामी प्रतिस्पर्धी को भी नरम होना और औचित्य को अंगीकार करने के लिए बाधित होना पड़े। जिन्हें न्याय पक्ष के समर्थन का साहस है वे भी बढ़ते हुए आन्दोलन में सम्मिलित होने, सहयोगी बनने के लिए अपनी प्रसुप्त प्रतिभा का ज्वलंत करने आगे आ सकते हैं।

नारी जागरण अभियान में विकसित नारी को इसलिए सम्मिलित होना चाहिए कि यह उसकी अपनी पिछड़ी बहिनों का प्रश्न है। सजातीय और समीपवर्ती होने के नाते वे सुधार परिवर्तन की दिशा में अधिक कुछ कर सकती है। भाव संवेदना जहाँ होगी, वहाँ कुछ ऐसे उपयुक्त अवसर निश्चित ही जन्म लेकर रहेंगे। गाँधी के सत्याग्रह में महिलाओं की आश्चर्यजनक भूमिका रही है। बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में नारियों की संख्या पुरुषों, परिव्राजकों से किसी भी प्रकार कम नहीं थी। पादरियों की तरह नारी के त्याग-बलिदान भी किसी प्रकार कम नहीं है।

पुरुषों को महिला जागरण की इस ऐतिहासिक बेला में इसलिए बढ़-चढ़ कर योगदान करना चाहिए कि उस वर्ग द्वारा अपनाये गये अनौचित्य का चिरकाल से चले आ रहे अनाचार का एक बारगी समग्र प्रायश्चित करने का अवसर मिला है। खाई और टीले की दुहरी अनुपयोगिता का हटाकर उनका पुरुषार्थ ऐसी समतल भूमि बनाने का सुयोग विनिर्मित करना है जिस पर सुरभित उद्यान और नव भवन खड़े किये जा सके।

यहाँ संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं है कि जाग्रत नारी दबाव में आने में इनकार करेगी और इन दिनों जितना शोषण जन्म लाभ मिलना है वह आगे न मिलेगा। समझने की बात है कि बँधुआ मजूर की अपेक्षा कारोबार में सहयोगी मित्र अपेक्षाकृत कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। संघर्ष खड़ा होने की बात इसलिए भी नहीं सोची जानी चाहिए कि माता और संतान का बहिन और भाई का, पिता और पुत्री का संघर्ष संभव ही नहीं है। दोनों के बीच इतनी सघन आत्मीयता विद्यमान है। एक वह संवेदनशील पक्ष अपने आत्मीय के लिए किसी भी स्थिति में हानिकारक या संघर्षरत नहीं हो सकता।

विकसित नारी पति के लिए अधिक भावुक और स्नेह-सिद्ध, सहयोगी सिद्ध हो सकती है। माता की सेवा सुविधा में हाथ आने वाला कभी घाटे में नहीं रहा। कन्यादान के समय कुछ देते हुए सभी अभिभावक गौरव अनुभव करते हैं फिर ऐसा निरर्थक संदेह क्यों किया जाय कि विकसित होने पर नारी किसी प्रकार का खतरा भी हो सकती है। वह अपने पिता, पति, पुत्र के लिए कुछ प्रत्यक्ष सहायता न कर सके तो भी उसकी भाव संवेदना में कभी भी कमी आने वाली नहीं। अच्छी सहचरी अच्छी परिवार व्यवस्था पिता श्रेष्ठ संतान को विनिर्मित करने वाली, आर्थिक दृष्टि से सहायक नर के लिए हर दृष्टि से कल्याणकारी ही हो सकती है। हित को अनहित समझने की भूल अब किसी को भी नहीं करनी चाहिए।


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