सफलता की कुँजी है – संकल्प शक्ति

September 1994

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स्रष्टा ने मनुष्य को अपनी ही अनुकृति का बनाया है और वे समस्त विभूतियाँ उसके भीतर कूट-कूट कर भर दी है जिन्हें जगाने और सदुपयोग कर सकने की क्षमता वाले पूरी तरह लाभान्वित जीवन होते हैं।वे जैसा भी चाहते हैं वैसी ही परिस्थितियां अपने लिए गढ़ लेते हैं। बहुधा लोग समझते हैं कि भली-बुरी परिस्थितियों के लिए विधाता ग्रह नक्षत्र आदि कोई और उत्तरदायी है पर तथ्य दूसरा ही है। मनुष्य के भीतर शुभ-अशुभ सब कुछ भरा पड़ा है। उसमें से इच्छानुसार कुछ भी चुना अपनाया और बढ़ाया जा सकता है। यह अपनी उसी इच्छा-आकाँक्षा पर निर्भर है जो कल्पना; कामना से ऊँचे स्तर की ही नहीं; साहस विवेक और कर्मनिष्ठा से भी भरी पूरी हो। इसी मनःस्थिति को संकल्प कहते हैं। महानता का उच्च पद प्रदान कर सकने में सदुद्देश्यों के लिए संकल्प करने से बढ़ कर और कोई क्षमता इस संसार में है नहीं। कठिनाई तभी तक रहती है। जब तक अपना निश्चय दुर्बल है। यदि महानता की दिशा में चल पड़ने के लिए संकल्पपूर्वक निर्णय ले लिया जाय और तद्नुरूप अपनी गतिविधियों को भी बलपूर्वक आदर्श के साथ जोड़ दिया जाय तो दिशा मिल जाती है धारा बहने लगती है और उस क्रमिक गमन के फल स्वरूप श्रेष्ठता-महानता के उच्च पद तक जा पहुँचना सरल हो जाता है।

योगवशिष्ठ 3/70/30 में उल्लेख है कि सब कुछ अपने संकल्प द्वारा ही साधित होता है। छोटा या महान बन सकता उसी पर निर्भर है। संकल्प ही व्यक्ति के समूचे ढांचे को विनिर्मित करते हैं। इसी आत्मनिर्माण के आधार पर परिस्थितियों का निर्माण होता चला जाता है। शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्मा ने संकल्प किया कि अकेलापन उन्हें अखरता है वे अपने को अनेक बना कर अपने सीधे क्रीडा कल्लोल किया करेंगे। ’एकोहंयहुस्यामि’ की श्रुति इसी रूप से इस नियति की उत्पत्ति का वर्णन करती है। जीवविज्ञानी अपने समस्त अन्वेषण के आधार पर चेतना के विकास का एक ही आधार बताते हैं कि प्राणी के भीतर आकाँक्षा उत्पन्न हुई और अनुकूल कलपुर्जे उनके शरीर तथा मन में उगते चले आये। आकाँक्षा में असाधारण चुंबकत्व होता है। उनकी आकर्षण शक्ति अपने क्षेत्र में ग्रह-तारकों को परस्पर बाँधे रहने वाली चुंबकीय शृंखला से कम सामर्थ्यवान् नहीं है। प्राणियों में जय-जय जितने परिणाम में आकाँक्षायें जितनी अधिक आकुलता के साथ उत्पन्न हुई है तब-तब उतनी ही मात्रा में अनुकूल क्षमता भीतर से विकसित हुई है पुरुषार्थ जागा है और उसी अनुपात से बाह्य जगत से साधन सामग्री क्रमशः खिंचती घिसटती चली आयी है। प्राणि जगत का यह संक्षिप्त तथ्य इतिहास है। विकास के गर्भ में उफनते इसी आधार को हम हर क्षेत्र की प्रगति में संजोया-समाया देखते हैं। जीव शास्त्रियों के अन्वेषण इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि इस धरती पर जब जीवन आरंभ हुआ तब वह एक कोषीय अमीबा जैसी सूक्ष्म प्राणियों की स्थिति में था। उनमें से जिनमें प्रगति की जितनी आकाँक्षा भड़की संकल्प उभरा उसी अनुपात से उनकी शारीरिक बनावट और मानसिक क्षमता विकसित होने लगी और वे अपनी मूल स्थिति की अपेक्षा तेजी से से अधिक साधन संपन्न बनने लगे। अपने पुरुषार्थ से उन्होंने सुविधा-खोजी और अनुकूल परिस्थितियों का सृजन किया। जिन प्राणियों में वह आकांक्षा संकल्प क्षमता जितनी तीव्र थी उन्हें उसी अनुपात से आगे बढ़ने और साधन संपन्न बनने का अवसर मिलता चला गया। जिनमें उत्साह और साहस कम था उनकी प्रगति उतनी ही मंद बनी रही। साधनों की न सृष्टि के आदि में कमी थी न अब है। प्रश्न पुरुषार्थ का था- संकल्प का था। नियति ने आरंभ से ही प्राणियों को सुविधा प्रदान करने में उदार नीति अपनायी है और वह अंत तक अपने उदार उपक्रम को अपनाये रहेगी। जीवाणु समष्टिगत चेतना को प्रतिनिधि होने के कारण जन्मजात रूप से अधिपति और अधिकारी है। प्रकृति का परमाणु सदा से उसका इच्छानुवर्ती अनुचर रहा है और सदा तक अपनी निष्ठावान् स्वामिभक्ति का परिचय देता रहेगा। जीवन की सत्ता इस सृष्टि में सर्वोपरि है उसकी माँग यदि गहरी हो तो उसकी पूर्ति में प्रकृति बाधक नहीं बनती। नियति रोड़े नहीं अटकाती। मात्र साहस की जाँच पड़ताल करने के लिए अड़चनों के चौकीदार कुछ-कुछ पूछताछ और रोक-टोक करते रहते हैं। परिस्थितियों ने कभी किसी मनायी के मार्ग में इतनी कठिनाई उत्पन्न नहीं की जिसके कारण उसे अपना संकल्प बदलते और साहस छोड़ने को विवश होना पड़े।

यह जीव जगत की प्रगति का विकासवादी शोधकर्ताओं द्वारा किया गया पर्यवेक्षण और निकाला हुआ निष्कर्ष है। प्रगति का कारण परिस्थितियों को समझा भले ही जाता हो पर तथ्य तक पहुँचने वाले जगत है कि चमत्कार उत्पन्न करने की परिपूर्ण क्षमता मन स्थिति में ही भरी पड़ी है। बड़ जगत की मूल पता “एनर्जी”है। जीव जगत में यही कार्य संकल्प शक्ति करती है। प्राणियों का भूतकाल तत्वतः उनकी तत्कालीन मनःस्थिति का ही लेखा जोखा है। आज भी वो जिस स्थिति में रह रहा है वह अपने ही संकल्पों कर दंड-पुरस्कार भोगता है। भविष्य में भी जिसका जी बनेगा। उसमें उथली मान्यताओं साधनों और परिस्थितियों को श्रेय या दोष देती रह सकती है। पर वस्तुतः जो कुछ होने जा रहा है। उसमें मनुष्यों की भले बुरे संकल्प आकांक्षायें ही विकास था विनाश के आधार खड़े करेगी।

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस सत्य के पीछे एक ही तथ्य काम करता है। कि संकल्प शक्ति की प्रचंड ऊर्जा से वह सुसंपन्न है। वह ऊर्जा इतनी प्रखर है कि सामान्य दीखने वाला व्यक्ति उसके सहारे महामानवों की ऐतिहासिक भूमिका निधान में महज ही समर्थ बन जाता है।

इसका एक निकटतम और हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष प्रमाण अपना युग निर्माण अभियान है। उसका शुभारंभ कैसे हुआ इसका आदिम इतिहास बहुत कम लोगों को मालूम है। एक तपःपूत व्यक्ति के अंतःकरण में युग परिवर्तन की-नव निर्माण की-मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की स्फुरणा अवतरित हुई। अवतरित इस अर्थ में कि उसके साथ प्रचंड उत्साह साहस और दृढं निश्चय की समन्वित शक्ति भी जुड़ी हुई थी। यह स्फुरणा देर तक अपनी अवतरण भूमि पर निःचेष्ट नहीं बैठी रही वरन् उसने अग्रगम की गतिशील होने की ऐसी हलचल उत्पन्न कर दी जिसे दूसरे शब्दों में आकुलता कह सकते हैं। यह आकुलता न तो अंधी थी और न अनिश्चित। उसने अपना एक स्वरूप और कार्यक्रम बनाया। दिशाधारा का निश्चय किया। उसी की परिपक्वता का प्रमाण यह युग निर्माण अभियान है। इस क्राँतिकारी तूफान का प्रथम दर्शन अपने सर्वविदित बहु चर्चित युग निर्माण के सत्संकल्प” में हुआ। सर्व प्रथम यही है। अपने मिशन अभियान का अरुणोदय प्रभात दर्शन। इसके बाद का सारा घटनाक्रम लगभग वैसा ही जैसा कि मत्स्यावतार की विशाल विस्तार प्रक्रिया जिसे परिवार दृढ़ निश्चय जब कर्म निष्ठा के साथ जुड़ते हैं। तो उसकी अग्रगामी गतिशीलता आँधी तूफान जैसी होती है। वह अभावों और अवरोधों को उखाड़ती पछाड़ती आगे बढ़ती है। उसका रास्ता रोक सके ऐसा कोई दुर्गम और दुस्तर अवरोध इस संसार में है। नहीं। ईश्वर के ज्येष्ठ पुत्र का ही नाम मनुष्य है। उसमें अपने पिता की सारी क्षमतायें बीज रूप में विद्यमान है। जय परमात्मा के संकल्प से सृष्टि का सृजन हो सकता है तो जीवात्मा के प्रखर परिवेश में काम करने वाले देवताओं का संकल्प क्यों अधूरा रहेगा?

प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने तथा सफलता पाने के लिए छोटे-बड़े सभी कामों में संकल्पों की आवश्यकता पड़ती है। महान कार्यों में तो इस उपक्रम को और भी अधिक दृढ़तापूर्वक अपनाना पड़ता है। बीजारोपण की उपमा संकल्प से दी जा सकती है। संकल्प का तात्पर्य कल्पना की रंगीन उड़ानों से ऊँचा उठकर किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सुनिश्चित निर्धारण करना है। इसके उपराँत उसे पूरा करने के लिए जो लंबी मंजिल पार करनी है जो साधन जुटाने है उनका स्वरूप सामने आता है। पर प्रायः लोग अनेक मनोरथों के लिए मन चलाते रहते हैं जिन्हें मनोकामना कहा जाता है। उसमें कल्पना भर होती है सुखद प्रतिफल का लालच भर मनः क्षेत्र में छाया रहता है। रंगीन कल्पनाओं की उड़ाने उड़ते रहने वाले ललचाते तो रहते हैं पर अभीष्ट को प्राप्त करने का कोई आधार नहीं पाते और इच्छा पूर्ण न होने का रोना रोते रहते हैं। इसका कारण एक ही है कि इच्छा मात्र निष्प्राण-निर्जीव इच्छा बन कर रही गयी। वह संकल्प के रूप के विकसित न हो सकी जबकि संकल्प के साथ मानसिक साहस और साहसिक पुरुषार्थ जुड़ जाने पर साधन जुटते और सहयोग मिलने का सिलसिला इस प्रकार चलने लगता है मानो प्रगति पहले से ही सुनिश्चित बनी हुई हो। लोग इसी को दैवी वरदान परिस्थितियों का अनुदान विधि विधान आदि न जाने क्या-क्या नाम देते हैं। पर असल में वे और कुछ नहीं मात्र प्रचंड संकल्प के फलितार्थ भर होते हैं। संकल्पवान हर परिस्थिति का सामना करने के लिए साहस उभारते हैं आँतरिक और परिस्थिति अन्य अवरोधों से जूझने का पराक्रम करते हैं। फलतः असमंजस हटता है और पुरुषार्थ की गतिशीलता प्रखर होती चली जाती है। लक्ष्य तक पहुँचने का यही सामर्थ्य है। सुप्रसिद्ध मनीषी निक्टर हागो के शब्दों में मनुष्यों में शक्ति को कमी नहीं होती होती है तो केवल संकल्प की कमी। अगर वह संकल्प कर ले तो क्या कुछ नहीं कर सकता?

नैपोलियन के अनुसार इस प्राणवान संकल्प शक्ति के सामने सचमुच ही असंभव नाम का शब्द उसके अपने शब्द कोश में है ही नहीं।

संकल्प का अपना विज्ञान है।उसे कर्म का बीजारोपण कह सकते हैं। मनुस्मृति 2/3 में कहा गया ”सकल्प भूनः चै यज्ञः संकल्प संभवः। व्रतानि यमधर्माष्च सर्वे संकल्पजाःस्मृताः॥ अर्थात् इच्छा का मूल संकल्प है। यज्ञ संकल्प से होते हैं। सब व्रत यम धर्म आदि संकल्प से ही होते हैं। यही कारण है कि धर्म परंपरा में संकल्प को प्रमुखता दी गयी है। संध्यावंदन से लेकर ब्रह्मभोज तक के धर्मकृत्यों के आरंभ में पुरोहित अपने यजमानों से संकल्प कराते हैं। हाथ में जल अक्षत पुष्प लेकर अमुक धर्म कृत्य संपन्न करने की घोषणा को संस्कृत भाषा की शब्दावली में जोर-जोर से उच्चारित किया जाता है। इससे वह कृत्य प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। पूर्वजों का उल्लेख करके उस संकल्प के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी जोड़ ली जाती है। संकल्प विस्मरण न होने लगे इसलिए पुरोहित उस उद्घोष के साथ वंश परंपरा गोत्र वर्तमान तिथि मास का भी हवाला देते हैं। इतना कर लेने पर एक मनोविज्ञान सम्मत सुदृढ़ मनःस्थिति उत्पन्न होती है। संकल्प कृत्य न करने पर धर्मानुष्ठान अधूरे माने जाते हैं। श्रावणी पर्व पर जो उपक्रम किया जाता है। उसमें हेमाद्रि संकल्प ही प्रधान है। अपने गायत्री महायज्ञों में भी संकल्प घोषणा की परंपरा को यथावत् मान्यता दी गयी है। श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ने और किसी महान प्रयास को सफलता के लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए संकल्प कृत्य निताँत आवश्यक है।

श्रेष्ठता की साधना संकल्प से ही संभव होती है। संकल्प को ही व्रत कहते हैं। व्रतधारी ही तपस्वी और मनस्वी कहलाते हैं। लक्ष्य की ओर शब्दबेधी बाण की तरह मन मानते हुए चल पड़ने की क्षमता उन्हीं में होती है। जागरुक पुरुषार्थ का प्रथम चरण संकल्प ही है। अतएव हममें से प्रत्येक को प्रस्तुत विषम घड़ी में कुछ न कुछ सृजनात्मक संकल्प अवश्य करना चाहिए। संकल्प ही ऐसा मोड़ है जिसमें श्रद्धा को कर्मठता में परिणत हुआ देखा जा सकता है। कल्पना मान्यता विचारणा श्रद्धा आदि की परिधि मस्तिष्क के छोटे से क्षेत्र में ही उमड़ती-घूमती रहती है। किंतु संकल्प को बिजली की तरह कड़कते और बादल की तरह बरसते देखा जाता है। बीच-बीच में संकल्प की परिपक्वता की परीक्षा तो छुट-छुट कठिनाइयों के माध्यम से होती रहती है। और सोने की तरह तपाये जाने की विपत्ति भी झेलती पड़ती है पर इससे हमारे मनोबल दृढ़ता नहीं। वरन् और अधिक प्रखर होना चाहिए और अपने गौरव की रक्षा के लिए स्वाभिमानी शूर सैनिक की तरह बड़े से बड़ा दाँव लगाने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। विशेष दैवी अनुग्रह ऐसे ही लोगों को मिलते हैं। महाकाल की युगाँतरीय चेतना जिन्हें तब सृजन के लिए अनुदान प्रस्तुत निरर्थक नहीं गँवाना चाहिए और अपनी सजीवता का परिचय देना चाहिए। इसका एक ही उपाय है एक ही प्रमाण है-देवसंस्कृति पुनर्जीवन के सृजन प्रयोजनों के प्रस्तुत कार्यक्रमों को पूरा करने का संकल्प करना चाहिए और उसे पूरा करने के लिए तत्परतापूर्वक जुट जाना चाहिए।


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