दिव्य शक्तियों की उपलब्धि सम्भावना और दर्शन

January 1980

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महान शरीर के भीतर रहने वाली जीवात्मा के समान ही स्थूल भौतिक जगत के अन्तराल में भी एक प्राणवान चेतना भरी हुई। इस चेतना को ईश्वर, परमात्मा, बह्म भगवान कुछ भी कहा जाय, उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता पर इतना स्पष्ट है कि उसी व्यापक ब्रह्माण्डीय चेतना में जीवधारी अनेको घटक स्वतंत्र रुप से विचरण करते हैं। सागर में विद्यमान बूँदे को तरह ब्रह्माण्डीय चेतना में जीव चेतना का अस्तित्व बताया गया हैं सागर की बूँदो का जिस प्रकार कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता उसी प्रकार जीवात्मा भी परमात्मा से पृथक भिन्न नहीं है।

जीवसत्ता और ब्रह्मसत्ता एक दूसरे से इस प्रकार जुड़ी हुई है कि उनमें परस्पर आदान प्रदान का क्रम अनवरन रुप् से चलता रह सकता है। यह पारस्परिक संबन्ध सूत्र इतने मतले है कि उन्हें देख और समझसकना हर किसी के लिए संभव नहीं हो सकता। सामान्यतः लोग अपने को शरीर मात्र मानते है और उसी के पोषण पालन में लगे रहते हैं। उन्हें आत्मा की प्रतीती तक नहीं होती यदि यह प्रतीती होती तो इस दिशा में भी कुछ करने की बात सोची जा सकती थी। प्रतीती तक नहीं होती, यदि यह प्रतीती होती तो इस दिशा में भी कुछ करने की बात सोची जा सकती थीं। प्रतीती के इस अभाव के कारण ही ब्रह्मसत्ता को समझ पाना और उससे सर्म्पक मिलाना संभव नहीं होता। यदि इस दिशा में, आत्मसत्त की प्रतीती करते हुए, योगभ्यास और तप साधना द्वारा उसे ब्रह्मसत्ता के साथ संम्बद्ध करने का प्रयास किया जाय तो आत्म चेतना को जागृत करते हुए वह सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है, जिसमें ब्रह्मसत्ता ओत प्रोत है। किसी सूखे जलाशय को नदी से संबद्ध कर देने पर जिस प्रकार वह जल से परिपूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार जीवसत्ता भी ब्रह्मसत्ता के समान समर्थवान बन सकती है।

इस स्थिति की आत्म जागृति कहते है। पाँतजलि योगसूत्र विभूतिपाद में 18 से 44 सूत्र तक इस प्रकार योग और तप साधना से अनेकों प्रकार की सिद्धियों तथा दिव्यशक्तियों के प्राप्त होने का उल्लेख आता हैं। अतीत और अनागत का ज्ञान, सभी प्राणियों की भाषा समझने, पूर्वजन्म के बारे में जानने, दूसरों के मन की बात समझ जाने की क्षमता, अन्तध्यानि, आत्मबल दूरदर्शन, सर्वज्ञान, भूख प्यास होने का उल्लेख योग सूत्र में मिलता है। योगसूत्र के विभुतिपाद से 36 वे सूत्र में जिन छह सिद्धियों का उल्लेख किया गया है वे इस प्रकार हैं-

ततः प्रतिभश्रावण वेदनादर्शस्वाद वार्ता जायंते

अर्थात-उससे प्रातिभ, श्रवण, वेदन, आदर्श अस्वाद और वार्ता छः सिद्वियों का स्वरुप् इस प्रकार बताया है-

1.प्रातिभ-मनमें सूक्ष्म अर्थात् अतीन्द्रिय व्यवावहित अर्थात छिपी हुई वस्तु, विप्रकृष्ट अर्थात सुदूर स्थ्ति, अतीत और अनागत वस्तुओं घटनाओं को जानने की क्षमता।

2.श्रवण-श्रोत्रेन्द्रिय से दिव्य ध्वनि और दूरवती्र शब्दों का श्रवण ।

3.वेदना-दिव्य र्स्पश का अनुभव।

4.आदर्श-दिव्यदर्शन की क्षमता।

5.आस्वाद-दिव्य रस का आस्वादन करने की क्षमता।

6.वार्ता-नासिका द्वारा दिव्य गंधो का अनुभव करने की क्षमता।

इन क्षमताओं की प्राप्ति कैसे होती है ? इस संबन्ध में महर्षि पाँतजलि ने कहा है कि चेतना के विकास हेतु किये जाने प्रयासों, ध्यान धाराणा के अभ्यासों से ये क्षमताएँ प्राप्त होती है। विभूतिपाद में कहा गया है-

सत्व पुरुषयोर त्यन्ता संकीर्णयोंः प्रत्यम विशेषो

योगः परार्थान्यरवार्य सयंमात् पुरुष ज्ञानम॥

(विभूतिपाद 35)

अर्थात चित्त और पुरुष जो परस्पर भिन्न है, इन दोनों की प्रतीतीयों में किसी भेद का आभास न होना ही योग है। उनमें से पदार्थ प्रतीती से भिन्न जो स्वार्थ प्रतीती है, उस में सयंम करने से, पुरुष को ज्ञान होता हैं । अर्थात पुरुष विषयकः प्रज्ञा उत्पन्न होती है। इस प्रज्ञा प्रभाव से ही उपरोक्त छः सिद्धियाँ प्राप्त होती है। चित्त अर्थात बुद्धि और पुरुषः अर्थात चेतना बृद्धि और चेतना परस्पर भिन्न है किन्तु उनकी भिन्नता का भान नहीं होता। सुख, दुःख आदि का अनुभव व्यक्ति का हृदय, मन, मस्तिष्क ही करता है, किन्तु चेतना उन सबसे परे ओर अप्रभावित रहती है यद्यपित लगता यही है कि सुख दुःख की अनुभूति आत्मा को हो रही है।

सुख दुःख के अनुभव को भोग कहते है और भोग का अनुभव करने वाला भोक्ता कहा जाता है। सामान्य बुद्धि आत्म चेतना को ही भोक्ता समझती है किन्तु वस्तुतः ऐसा होता नहीं। स्वच्छ शाँत जलाशय में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बनता है। उस पानी में कोई पत्थर फेंका जाय और लहरें उत्पन्न की जाँय तो चन्द्रमा का प्रतिबिमब भी लहरों के साथ हिलता, ढुलता, प्रतीत होता दिखाई देता है। किन्तु वास्तव में पानी में उठने वाली लहरों के कारण चन्द्रमा के कुछ बनता बिगड़ता नहीं। इसी प्रकार सुख दुःख आदि प्रिय अप्रिय परिस्थितियों में चेतना अप्रभावित ही रहती है। किन्तु आत्म चेतना में सुख दुःख का प्रभाव देखने वाली वृति या भ्राँति का शास्त्रकार ने कहा है। पदार्थ प्रतीति अर्थात् भ्राँति, वस्तुस्थिति से भिन्न, पर दूसरा होने का आभास।

इसके विपरित स्वार्थ प्रतीति समझनी चाहिए। सरल भाषा में इसे तत्वदृष्टि, आत्म बोध, आत्म चेतना के वास्तविक स्वरुप का ही ज्ञान भी कह सकते हैं। इस आत्म स्वरुप में ही ध्यान धारणा को संयम अथवा स्वार्थ प्रतीति में संयम कहा गया हे और उसी से प्रज्ञा की उत्पत्ति छह सिद्धियों के अतिरिक्त आठ अन्य सिद्धियों का भी उल्लेख किया गया है। इन सिद्धियों को भी संयम का ध्यान धारण समाधि का परिचय कहा गया है। यह आठ सिद्धियाँ इस प्रकार है-

1.अणिमा-अणू के समान सूक्षम रुप धारण कर लेना।

2.लधिमा-शरीर को हल्का कर लेना। इससे जल थल, नभ सर्वत्र चलने की क्षमता आ जाती है।

3.महिमा-शरीर को बड़ा कर लेना।

4.गरिमा-शरीर को भारी बना लेना।

5.प्राप्ति-इच्छित पदार्थों को संकल्प मात्र से ही प्राप्त कर लेना।

6.प्राकाम्प-बिना रुकावट भौतिक पदार्था संबंधी इच्छाएँ अनायास ही पूरी हो जाना।

7.वशित्व-पंच भूतों, पंचतत्वों और तज्जनित पदार्थो का वश में हो जाना।

8.ईशित्व-इन तत्वों और भौतिक पदार्थो को मन चाहे रुप में उत्पन्न करने तथा उन पर शासन करने की सामर्थ्य।

इन प्रसिद्ध अष्ट सिद्धियों के अतिरिक्त काय सम्मत और अनभिछात की सिद्धियों का प्राप्त होने का भी उल्लेख शास्त्रकार ने किया है। काय सम्मत् से तार्त्पय शरीर की सुन्दर आकृति, दीप्तिमान अंग, अंगो का बलवान और वज्र की भाँति, दृढ़ तथा परिपूर्ण हो जाना। अनाभिछात से तार्त्पय साधक के कार्य में पंचतत्व अपने गुण और लक्षणों के कारण बाधा न पहुँचने से है। वह पृथ्वी के भीतर भी उसी प्रकार प्रवेश कर सकता है, जैसे कोई व्यक्ति जल में प्रवेश कर लेता है। पृथ्वी का धर्म स्थूल भाव (कड़ापन) कहा गया है। पृथ्वी का यह धर्म उसके लिए बाधा नहीं बनता। उस पर यदि पत्थरों की वर्षा की जाय तो भी वे उसके शरीर का पर आद्यात नहीं पहुँचा सकते। इसी तरह जल का गीलापन उसके शरीर को गला नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती अर्थात सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि कोई भी भूतों के धर्म उसके शरीर में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचा सकती। इन सिद्धियों की उपलब्धि का मार्ग बताते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि ये सिद्धियाँ पाँचों भूतों पर विजय प्राप्त करने से होती है। योगदर्शन विभूतिपाद सूत्र 44 में कहा है पाँचों भूतों की पाँच अवस्थाओं में संयम (ध्यान, धारणा, समाधि) करने से योगी को पाँचभूतों पर विजय प्राप्त हो जाती है।

ये पाँच भूत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पाँच तत्व है। इन्द्रियों द्वारा अनुभव होने वाले रुप को स्थूल अवस्था, लक्षणों की स्वरुप अवस्था, तन्मात्रा और सुक्ष्म रुप को सुक्ष्मावस्था, प्रकाश क्रिया और स्थिति को अन्वन्य अवस्था नया प्रयोजन अर्थवत्ता को अर्थतत्व अवस्था कहते है। इनमें संयम अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और भाव की एकाग्रता, तन्यमयता तथ तदृश्यकता को संयम कहा गया है।

यह सिद्धियाँ पढ़ने सुनने पर अतिर जिस लगती है परन्तु इनके पीछे एक सुनिश्चित विज्ञान निहित है। सुनिश्चित वैज्ञानिक कारणों से अतिरंजित लगने वाली ये सिद्धियाँ हस्तगत् कवत् करतलगत हो जाती है। यह प्रत्यक्ष ही देखा और अनुभव किया जा सकता है कि मनुष्य अपनी उपलब्ध क्षमताओं के सहारे प्रत्येक वस्तु का मनचाहा प्रयोग कर सकता है। दूसरे शब्दोँ में इसे मनुष्य की चेतन क्षमता का भौतिक वस्तुओं पर नियंत्रण भी कहा जा सकता है। उपलब्ध शक्ति और जाग्रत चेतना का ही यह प्रभाव है तो उसमें कोइ्र सन्देह कारण नहीं है कि यदि अपनी चेतना को पूर्णयता जागृत और विकसित कर लिया जाये तो उसका उपरोक्त प्रकार से उपयोग करना संभव न हो सके।

आत्मसत्ता ब्रह्मसत्ता की प्रतिनिधि है। प्रति ही नहीं अंश और प्रतीक भी है। बाधा इतनी मात्र है कि भ्राँतियों के कारण अथवा प्रमादे के कारण अथवा इस तथ्य को न जानने के कारण आत्मचेतना का ऐसा विकास संभव नहीं है। यदि उस आत्मचेतना को जागृत किया जा सके और योगाभ्यास तथा तप साधन के द्वारा उसका विकास किया जा सके जो उस जागृति के द्वारा जो कुछ इ्रंद्रिययातीत है वह सहज ही इन्द्रयम्य बन सकता है और जो बुद्धि की सीमा के बाहर है वह सहज ही उसकी पकड़ में जा सकता है।


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