नियति के परिवर्तन में अघ्यात्म शक्ति का उपयोग

January 1980

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धरती की व्यवस्था सम्भालने का उत्तरदायित्व सृष्टा ने मनुष्य को सौंपा हैं। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीर तन्त्र दिया हैं कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख शान्त बनाऐं रहे वरन् ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सकें। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उद्दंडता बरतता हैं-चिन्तन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता हैं तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का सन्तुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती हैं। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानो अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है। किन्तु अदृश्य और अप्रत्यक्ष को जो जानते हैं उनका स्पष्ट मत हैं कि पानी में पत्थर फेंकने और छींटे उठाने की जिम्मेदारी उन लड़कों की हैं जो तालाब के एक कोने पर बैठे शरारत करते रहते है। तालाब अकारण उछलने लगे और अपने जलचर परिवार के लिए संकट उत्पन्न करे ऐसी बात है नही, प्रतीत भले ही होती हो।

इन दिनों उभरने वाले प्रकृति प्रकोपों का सिलसिला अगले दिनों घटेगा नहीं बढ़ेगा। इस आँशका से सभी चिन्तित है। भय अकारण हैं या सकारण इसका अन्वेषण करने पर कितने ही तथ्य सामने आते हैं और अशुभ सम्भावना की पुष्टि करते हैं। आणविक विस्फोटों के कारण बढ़ता हुआ विकिरण, विषाक्त ईंधन से उत्पन्न वायु प्रदुषण- पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे प्रायः 4000 उपग्रहों के कारण सुरक्षा परतों में विक्षोभ-ऊर्जा के बढ़ते उपयोग से गर्मी का बढ़ना और उसके कारण हिमि प्रदेशों का असन्तुलित रीति से पिघलना-भूगर्भ से खनिज सम्पदा निचोड़ लेने पर उसका खोखला एवं ठन्डा होते जाना-आदि कितने ही कारण हैं जो धरती के भीतरी सतही और बाहरी वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। इन्हे मनुष्य की प्रकृति के साथ उद्धत छेड़खानी कह सकते हैं। छेड़ने पर तो चींटी भी काटती है फिर नियति क्यों चूकने लगी।

अध्यात्म विज्ञान का प्रतिपादन हैं कि प्रकृति ही सब कुछ नहीं हैं उससे भी ऊपर एक चेतन सत्ता है, जिसको प्राणियों के साथ व्यवहार करने की विधि को ‘नियति’ कहते हैं। दिव्यदर्शी इस नियति को ही प्रधानता देते हैं, और प्रकृति के सन्तुलन को बनाने बिगाड़ने में इसी को उत्तरदायी मानते हैं। उनका कहना हैं कि प्रकृति से भौतिक छेड़खानी करने पर दैवी प्रकोप बरसना एक पक्ष तो है पर वही सब कुछ नहीं हैं। उससे भी बड़ी बात हैं मानवी चिन्तन और चरित्र से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया जो प्रकृति की नियामक सत्ता ‘नियति’ पर प्रभाव डालती है। अनाचरण से नियति की अन्तरात्मा क्षुब्ध होती है फलतः उसका प्रकृति कलेवर भी आक्रोश का-आवेश का-परिचय देता है। दैवी प्रकोपों के मूल में जितना दोष प्रकृति व्यवस्था को उद्धत रुप से छेड़खानी करने का है उससे भी अधिक भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण का आश्रय लेने वाली मानवी निकृष्टता का है। नियति उसी से रुष्ट होती है और उसी के फलस्वरुप दृश्य एवं अदृश्य विपत्तियाँ, समस्याएँ तथा विभीषिकाएँ उभरती-त्रास देती है।

अन्तरिक्ष विज्ञानी इन दिनो सौर-मण्डल तथा उससे ऊपर के ब्रह्माण्ड क्षेत्र का पर्यवेक्षण करते है, तो कहते है पृथ्वी के लिए यह परिस्थितियाँ संकटापन्न है। सभी जानते हैं कि पृथ्वी की अपनी निज की जितनी शक्ति और सम्पदा है उसे उससे कही अधिक अनुदान लेकर अपना गुजारा करना पड़ता हैं। सौर ऊर्जा उसका प्राण है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रहों से आने वाले ब्रह्माण्डीय अनुदान उसे उपलब्ध होते है। ऊपर के वातावरण की छलनी में छनकर ध्रुवों के माध्यम से जो सम्पदा धरती को प्राप्त होती है उसी से उसका गौरव एवं वैभव इस स्तर तक पहुँचा है। ऐसी परिस्थितियाँ न हो तो वह भी सौर मण्डल के अन्य सदस्यों की तरह बुध की तरह आग-बबूला होकर प्लेटों की तरह हिमपिण्ड बनकर शुक्र की तरह विषाक्त बादलों से आच्छादित रहकर निस्तब्ध श्मशान की तरह अन्तरिक्ष के एक कोने में पड़ी अपने दुर्भाग्य का रोना रो रही होती।

अन्तरिक्ष विज्ञानी अपनी गहरी जाँच पड़ताल से पृथ्वी और अन्तरिक्ष के मध्य चले आ रहे आदान-प्रदान में विक्षेप व्यवधान होता देखते हैं। सूर्य पर इन्ही दिनों ऐसे ‘कलंक’ उभरने वाले हैं जो महान देवता को ही बदनाम नहीं करेंगे। अपनी चपेट में धरती वासियों को त्रास देंगे। उन्मादी, रोगी, अपराधी स्वयं तो कष्ट सहते ही है उसके स्वजन सम्बन्धी भी तरह-तरह के कष्ट और ताने सहते है। पृथ्वी सूर्य से लाभ भी सर्वोपरि उठाती है तो हानि भी उसी का उठानी पड़ती है। अर्धांगिनी को पति के वैभव का जहाँ श्रेय मिलता है वहाँ से रोगी होने पर उपचार का तथा मरने पर वैधत्व का भार भी सहना पड़ता है। सूर्य की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों ने समय-समय पर पृथ्वी को हँसाया, रुलाया है। अगले दिनो जो व्यतिरेक उत्पन्न होगा उससे उसके पदार्थ, वैभव एवं प्राणि परिवार को भी असन्तुलन सहना, त्रास विग्रह का सामना करना पड़े तो इसमें कुछ भी आर्श्चय की बात नहीं है। इस सर्न्दभ में अन्तरिक्ष विज्ञानी मनुष्य समाज को भावी कठिनाइयों से सचेत करते है तो उसमें यथार्थता भी है और बुद्धिमता भी।

सन् 81 से उभरने वाले सौर कलंको की-ब्रहस्पति के अत्यधिक विक्षुब्ध होने की-26 फरवरी को होने वाले असाधारण सूर्य ग्रहण की प्रतिक्रियाएँ फलित ज्योतिषी अपने ढंग से और खगोल विज्ञानी अपने ढंग से व्यक्त करते है। दोनों के कारण पृथक है पर निर्ष्कष एक। अगले दिनों की विभीषिकाओं का भविष्य कथन दोनों ही करते है। भविष्य कथन की बात चल पड़ी तो यहीं यह भी समझ लेना चाहिए कि सूक्ष्मदर्शी अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न ऐसे लोग भी इस धरती पर कभी-कभी देखने को मिलते हैं जिनमें अदृश्य दर्शन की क्षमता है। ऐसे लोगो को जो अनुभूतियाँ होती हैं उनमें ग्रह गणित नहीं दिव्य दर्शन की अद्भुत विशेषता ही कारण भूत होती है। इनकी भविष्य वाणियों में कदाचित ही कभी कोई असम्बद्ध बैठती हो। ऐसे लोगों की एक श्रृंखला हैं जिनमें कई जीवित हैं, कई दिवंगत हो चुके। इनने अपने भविष्य कथन में प्रधानतया दो तथ्य प्रस्तुत किये है-इन दिनों अवाँछनीयता एवं विपत्तियों का बढ़ना और कुछ समय उपरान्त स्वर्गीय सुख शान्ति का सृजन होना। इसे वे युग परिवर्तन की प्रसव पीड़ा बताते है जिसमें कष्ट सहन और सन्तान लाभ की कटु मधुर विसंगति जुड़ी होती है। प्रामाणिक भविष्य कथनों के विस्तृत विवेचन का साराँश इतना ही है।

दुःखद परिस्थितियों का काल क्या होगा ? और सुखद सम्भावनाएँ कब उत्पन्न होंगी ? इस संदर्भ में सूक्ष्मदर्शियों के कथन लगभग एक ही अवधि तक अपने निष्कर्षों को केन्द्रित करते हैं। सन् 1980 से 2000 तक के समय को अधिक कष्ट कारक पाया जायगा और 2000 के बाद की परिस्थितियों में सन्तोष की साँस लेने और उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में आश्वस्त होने का अवसर मिलेगा।

उपरोक्त पर्यवेक्षण से जिस निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ता है वह निकट भविष्य की अशुभ आशंकाएँ और जो सम्भावनाओं का चित्र सामने आता है। इससे किसी को भी आतंकित या भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी हड़बड़ी तो विपत्ति को और भी कई गुना बढ़ा सकती है। कठिन समय का एक ही तकाजा है धैर्य और साहस बनायें रहना-मनोबल न गिरने देना-साथ ही आशंकाओ को निरस्त करने वाले प्रयासों का निर्धारण करके उनकी पूर्ति में जूट जाना। हमारे लिए यही उचित है कि भौतिक और आत्मिक स्तर पर ऐसा प्रबल पुरुषार्थ सँजोये जिनसे रुष्ट नियति को मना लेने और क्रुद्ध प्रकृति को शान्त करने का अवसर मिल सके। रोग अपनी जगह है और उपचार अपनी जगह। विपत्ति अपना काम करती है और रोकथाम के लिए बरते गये पुरुषार्थ का अपना महत्व है। विषम बेला में यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी हैं कि आतंकित होने की मनःस्थिति उत्पन्न न होन दी जाय साथ ही प्रचण्ड पुरुषार्थ को सँजोकर असम्भव को सम्भव बनाया जाय। विपत्ति का परोक्ष वरदान यही हो सकता है कि वह सजुझारु साहस और प्रबल पराक्रम उभारे। ध्वंस को सृजन से ही निरस्त किया जा सकता है। आग को पानी से ही बुझाया जा सकता है।

अशुभ आशंकाएँ एवं दुःखद सम्भावनाएँ किनको, कितना, किस प्रकार त्रास देंगी। इसका ऊहापोह करने की अपेक्षा यह सोचना उत्तम है कि उन्हें निरस्त करने के लिए क्या कुछ सम्भव है ? यदि हैं तो उसे बड़े साधनों की अपेक्षा किये बिना उसके लिए जुट पड़ने का साहस है। सृजनात्मक साहस बड़ी बात हैं। टिटहरी का समुद्र पाटने का-जटायु का रावण से लड़ने का और गिलहरी का राम समर्थन में अपना योगदान प्रस्तुत करना ऐसे उदाहरण हैं जिनमें तुच्छ प्राणियों से भी समर्थ मनुष्य को प्राणवान मार्गदर्शन मिल सकता है। आवश्यक नहीं कि विपत्ति की आशंका से ही सृजन साहस सँजोया जाय। उज्ज्वल भविष्य की संरचना अपने आप में एक महान लक्ष्य है जिसे बिना किसी विपत्ति या आशंका के रहते हुए भी पूण्य पुरुषार्थ के सहारे सामान्य परिस्थितियों में भी आरम्भ किया जा सकता हैं।

युग निर्माण परिजनों का देव परिवार इस विषम बेला में नियति की चुनौती को लेकर सामने आया है। हर बसन्त पर उसे अभिनव प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं और परिवर्तन की महान प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए क्रमिक जिम्मेदारियाँ उनके कंधों पर लदती रही है। इस बसन्त पर उसे प्रकृति और नियति की विभीषिकाओं से जूझने ताि उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए जुटने के दुहरे उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं। इसे लंका दहन और रामराज्य स्थापना के लिए अंगद, हनुमान द्वारा निभाई गई दुहरी भूमिका समझा जा सकता हैं।

इस भूमिका का स्वरुप हैं-सन् 1980 से आरम्भ होकर सन् 2000 तक चलने वाली बीस वर्षीय युग परिवर्तन योजना। इसे चार, पंच वर्षीय योजनाओं में विभाजित किया गया है। विरामों पर ठहरते हुए एक-एक बाद दुसरा कदम उठाना ही उपयुक्त होता है। एक-एक मोर्चा जीतते हुए एक-एक सीड़ी पर कदम बढ़ाते हुए समग्र सफलता के लक्ष्य तक पहुँचना ही उपयुक्त है। बसन्त अपना अध्यात्म वर्ष है। इसे प्रेरणा पर्व के रुप में मनाया जाता रहा है। इस बार उसमें आपत्तिकालीन परिस्थितियों के अनुरुप साहसिक कार्यक्रमों का नियोजन हुआ है।

सन् 80 से 84 तक चलने वाली प्रथम युग परिवर्तन योजना में पाँच कार्यक्रमों पर ध्यान केन्द्रित करने और उन्हे सुदृढ़ परिपक्व बनाने का सन्देश सामने आया है। उसके पाँच कार्यक्रम इस प्रकार हैः-

(1) जाग्रत आत्माओं की विशिष्ट उपासना

(अ) नित्य नियमित रुप से गायत्री मंत्र की न्यूनतम पाँच मालाओं का जप, साथ में प्रातःकाल उगते सूर्य का ध्यान। उस आलोक से स्थूल शरीर में सत्कर्मों की-सूक्ष्म शरीर में सद्विचारों की-कारण शरीर में सद्भावों की क्रमिक अभिवृद्धि।

(ब) दिवाली से होली तक प्रातः 5॥ बजे और होली से दिवाली तक 4॥ बजे पन्द्रह मिनट चलने वाली प्राण आकर्षण की विशेष साधना। गहरे साँस खींचते हुए उसके साथ हिमालय के प्रेषित विशेष प्राण प्रवाह को खींचना और अपने कण-कण में उसे धारण करना।

(स) रात्रि को 8॥ बजे पूरे वर्ष भर चलने वाली पन्द्रह मिनट की नियति सन्तुलन साधना। साँस भीतर खींचना। इडा मार्ग से मूलाधार तक प्राण का ले जाना। प्राण और कुण्डलिनी का मन्थन। उत्पन्न ऊर्जा का सुषुम्ना मार्ग से ब्रह्मरंध्र तक लाना और वहाँ से अनन्त अन्तरिक्ष में नियति सन्तुलन के लिए बखेर देना। श्वाँस को पिंगला मार्ग से निकाल देना। फिर पिंगला से खींचकर इडा से निकालने के साथ ही प्राण प्रयोग दुहराना।

ध्यान धारणा के माध्यम से देव प्राण को अपने में आकर्षित एवं अवधारित किया जाता हैं। साथ ही उस अनुदान में अपना प्राण योगदान मिलाकर अनन्त अन्तरिक्ष में नियति अनुकूल बनाने के उद्देश्य से बखेर दिया जाता है। यह जागृत आत्माओं की व्यक्तिगत साधना देखते हुए भी सामूहिक सम्भव महान आत्म-शक्ति का उद्भव करते है। इसकी विशेषता नियत समय का परिपालन आवश्यक है। घड़ी की सहायता से ही यह सम्भव हो सकता हैं। यों इसे किया तो आगे-पीछे भी जा सकता है, पर तब उसका लाभ व्यक्तिगत ही रह जायगा। यह विश्व-शान्ति की सामूहिक साधना तभी बनेगी जब अधिकधिक व्यक्ति एक ही समय, एक ही भावना से, एक निष्ठ होकर समष्टि शक्ति उत्पन्न करने की दृष्टि से उसे सम्पन्न करें।

(2) जीवन साधना

जागृत आत्माओं को इसका नियमित शुभारम्भ ‘आहार’ की सात्विकता और ‘बिहार’ की शालीनता की दृष्टि से कुछ संकल्प करते हुए करना चाहिए। व्रत चाहें छोटा-सा ही है, पर उसका परिपालन संकल्प पूर्वक समग्र निष्टा के साथ किया जाय।

आहार में सात्विक पदार्थ ही सम्मिलित रखे जाय। राजसी और तामसी वर्ग के घटाने और हटाने का प्रयत्न करें। मद्य, माँस से बचें। अनीति उपार्जित एवं अनुपयुक्त वातावरण में पकाया, अवाँछनीय व्यक्तियों द्वारा परोसा हुआ न हो।

बिहार में यथासम्भव ब्रह्मचर्य पर अधिक ध्यान दिया जाय। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार आदि उपकरणों में सादगी बरती जाय। आलस्य और अपव्यय छोड़े। अशिष्टता न बरतें। अनीति न अपनायें। स्वार्थ को सीमित और परमार्थ को विकसित करें।

(3) सामूहिक साधना

गायत्री यज्ञों की सामूहिक साधना का क्रम नियमित रुप से जारी रखा जाय। हर पूर्णिमा को मासिक यज्ञ हो। सभी जागृत आत्माएँ अपने साथियों समेत सम्मिलित हों। बसन्त पर्व, गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा को अखण्ड जप किया जाय। समाप्ति पर यज्ञ। दोनों नवरात्रियों में नौं-नौ दिन के सामूहिक अनुष्ठान सम्पन्न किये जाये।

(4) सत्प्रवृक्ति सर्म्वधन

यह कार्य परिवारों में धार्मिक वातावरण बनाने से आरम्भ किया जाय। पंचशीलों का परिपालन, पाँच आहुति का बलि वैश्व। नियमित नमन बन्दन। कथा प्रसंग। स्वाध्याय की अनिवार्यता। जन्म दिन संस्कारो का प्रचलन। शाखा संगठनों के माध्यम से सृजनात्मक प्रवृत्तियों के सामूहिक प्रयास। ज्ञान यज्ञ के लिए सुनिश्चित अंशदान।

(5) दुष्प्रवृत्ति निराकरण

वैयक्तिक कषाय-कल्मषों और सामाजिक अवाँछनीय प्रचलनों के उन्मूलन का प्रयास। मूढ़ मान्यताओं और भ्रष्ट परम्पराओं का उन्मूलन। मानवी मर्यादा को घटाने वाले आचरणों का असहयोग एवं विरोध।

उपरोक्त पाँच कार्यक्रम ऐसे है जिन्हे अपनाने के लिए निरन्तर कहा जाता रहा है। उनका परिपालन भी किसी न किसी रुप से होता है। युग परिवर्तन की प्रथम पंच वर्षीय योजना में विशेषता यह रहेगी कि सभी जागृत आत्माएँ इनका परिपालन शिथिलता, उपेक्षा के साथ नहीं वरन् सुदृढ़ निष्ठा के साथ सम्पन्न करेगी। शिथिलता एवं प्रमाद नहीं बरतेगी। इन पाँचों कार्यक्रमों को व्यापक बनाने का प्रयत्न किया जायगा। चुनाव के दिनो में प्रत्याशी जिस प्रकार वोट माँगने के लिए घर-घर जाते और जन-जन से भावभरा आग्रह करते है वही नीति जागृत आत्माओं द्वारा अपने समूचे सर्म्पक क्षेत्र में अपनाई जायगी। आजीविका उपार्जन की तरह ही इन कार्यो को वास्तविकता लाभ एवं श्रेष्ठतम परमार्थ मान कर पूरा किया जाता रहेगा।

गायत्री शक्ति पीठें और प्रज्ञा पीठें इसी उद्देश्य की पूर्ति में निरत रहेंगी। उनके साथ जुडे़ हुए संगठन एवं कार्यकर्त्ता समुदाय का नियमित कार्यक्रम उपरोक्त पाँचो कार्यक्रमों का प्रकाश अपने क्षेत्र में घर-घर तक पहुँचना और जन-जन को उससे प्रभावित करना ही होगा। अस्तु उसके निर्माण को प्रधानता देना इस बसन्त पर्व का प्रेरणा का प्रधान सूत्र संकेत है। जहाँ बड़ी इमारते बनने में कठिनाई आ रही हो वहाँ छोटी 30 म 30 जमीन में बन सकने वाली 25 हजार लागत वाली ‘प्रज्ञापीठ’ बनाली जाँय। बड़ी इमारतों की प्रतीक्षा में देर तक बैठे रहने की अपेक्षा सामयिक उद्देश्य की पूर्ति छोटे निर्माणों से भी आरम्भ की जा सकें तो हर्ज नहीं। समय की माँग है कि एक क्षण का भी समय न गँवाया जाय और वातावरण का परिशोधन करने के लिए मानवी प्रयत्नों में सर्वोपरि महत्त्व के इस पंच वर्षीय योजना को कार्यान्वित करने में जो भी बाधाएँ हो उनका निराकरण सोचा जाए। प्रस्तुत बसन्त पर्व पर सर्वत्र इस पाँच वर्षीय प्रयास का विधिवत् शुभारम्भ किया जाय और इसके लिए अपने स्थान की व्यवस्था का प्रबन्ध करने में समग्र बुद्धिमत्ता और तत्परता का उपयोग किया जाय। यह प्रथम पंच वर्षीय योजना की चर्चा हुई। इस प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाये जाने वाले भाषा, गणित, भूगोल, स्वास्थ्य, सामान्य ज्ञान की तरह अनिवार्य माना जाय। इस शिक्षा में प्रवीणता मिलते ही अगले कदम द्वितीय पंच वर्षीय योजना के रुप में प्रारम्भ कर दिये जायेंगें। उसमें भी पाँच कार्यक्रम है। यथा-

(1) समस्त धर्मो की एकता, समता, ममता, शुचिता को समर्थक बनाना। उनमें पारस्परिक सामंजस्य पैदा करना। धार्मिकता की संयुक्त शक्ति को नव सृजन में लगाना। एक विश्व धर्म-एक विश्व राष्ट्र-एक विश्व संस्कृति-एक विश्व भाषा एवं एक विश्व आचार संहिता के लिए जन-जन में समर्थन एवं उत्साह उत्पन्न करना।

(2) आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं नैतिकता समर्थक धर्म शिक्षा की सामान्तर शिक्षा व्यवस्था चलाना। भौतिक ज्ञान के लिए आवश्यक सरकारी शिक्षा को अपने ढंग से चलाना। धर्म शिक्षा, अवकाश के समय दैनिक साप्ताहिक पाठ्यक्रमों में चल सकता है। पत्रकार उसका माध्यम हो सकता है।

(3) विभूतिवानों को विशेष उत्तरदायित्व वहन करने के लिए तत्पर करना। संगीत, साहित्य, कला की दिशा मोड़ने और उसे सृजन प्रयोजन में लगाने के लिए बृद्धि, प्रतिभा एवं सम्पन्नता के लिए नया द्वार खोलना। प्रतिभा एवं मनीषा को युग चेतना का साथ देने के लिए कटिबद्ध करना। उनके प्रयासों को अग्रगामी बनाने के लिए वातावरण बनाना-साधन जुटाना।

(4) युग का उत्तरदायित्व सम्भालने वाली महान आत्माओं का अवतरण सम्भव करना। इसके लिए ऐसे पारिवारिक वातावरण एवं दम्पत्ति तैयार करना जिनमें दिव्य आत्माएँ अनुकूलता अनुभव करें और जन्म लेने को सहमत हो सके। जहाँ वे जन्म ले चुकी वहाँ उनकी घुटन दूर करना।

(5) धर्म तन्त्र को इतना समर्थ बनाना जो राजनीति को भी दिशा दे सके। शासन तन्त्र दूसरे सम्भालें। पर उसे स्वच्छ और समर्थ बनाने के लिए जिस जन जागरुकता की आवश्यकता है उसे बनाये रखने के लिए धर्म तन्त्र को तत्पर करना। प्राचीन काल में वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि ऋषि स्वच्छ शासन बनाये रखने में अपनी परोक्ष भूमिका निभाते थे। वही अगले दिनों भी करना होगा।

यह द्वितीय पंच वर्षीय योजना का व्यवहार स्वरुप है। साधकों की अध्यात्म साधना का स्तर भी इसी प्रकार ऊँचा उठेगा जैसी कि रचनात्मक प्रवृत्तियों के संबंध में प्रथम योजना की तुलना में द्वितीय का कार्यक्रम भारी और ऊँचा हैं। प्रथम स्तर को साधन सम्पन्न कर लेने वाले साधक पंचकोशों का अनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण की वह शिक्षा प्राप्त करेंगे जो युग शिल्पियों को आवश्यक शक्ति एवं सामर्थ्य प्रदान कर सके। पात्रता विकसित हुए बिना साधना के चमत्कारी लाभ मिलते नहीं यह सर्वविदित है इसलिए ब्रह्म वर्चस साधना की पृष्ठभूमि तो अभी से बना दी गई है, पर उसमें सफल हो सकने योग्य अधिकारी विनिर्मित करने का ठोस कार्य सम्भवतः द्वितीय पंच वर्षीय योजना से ही व्यापक रुप से बन सकेगा। अभी तो उसके लिए अधिकारी साधक उत्पन्न करने के लिए प्राथमिक प्रयत्न ही चल सकेंगे।

यह तथ्य सभी को ध्यान रहना चाहिए कि अन्तरक्षीय शक्तियाँ जिस प्रकार पृथ्वी को, उसकी परिस्थितियों को तथा प्राणियों को प्रभावित करती है। ठीक उसी प्रकार प्राणवान आत्माएँ अपनी आत्मशक्ति से प्रकृति और नियति को प्रभावित और परिवर्तित करने में समर्थ हो सकती है। तरह-तरह के यन्त्र प्रकृति को प्रभावित करतें हैं। मनुष्य एक ऐसा यन्त्र है जिसमें वे सभी यन्त्र फिट है जो प्रकृति को प्रभावित एवं परिवर्तित कर सकें।

भावी अशुभ सम्भावनाओं को निरस्त करने के लिए अपने देव परिजनों को उसी तत्परता से कटिबद्ध होना चाहिए जैसे कि वे बंगला देश की गड़बड़ी, चीनी आक्रमण, पाकिस्तानी हमला, आपत्तिकालीन, स्काईलैव आदि की विपत्तियों के निवारण सफलतापूर्वक कर चुके। अब की बार आशंकाएँ बढ़ी है इसलिए हमारे सुरक्षा प्रयास भी बढ़े-चढ़े होने चाहिए। उसी का प्रारुप इस बसन्त पर्व के अवसर पर प्रस्तुत किया गया और उसमें परिपूर्ण सहयोग देने के लिए समस्त देव परिजनों को आमन्त्रित किया गया है।


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