समू़चे ़़़व़्य़़ि़क़्त़व को ही सम्मोहक बनाएँ

January 1980

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25 अगस्त 1976 को घटना है। आस्ट्रेलियाँ के प्रसिद्ध शहर म्यूनिख के एक बड़े हाल में सैकड़ो डाक्टर पत्रकार और बुद्धिजीवि एकत्रित थें वातावरण बिल्कुल शान्त था। डाक्टरों के एक दल ने उस महिला का शारीरिक-परीक्षण किया और पाया कि उसे कोई दवा शारीरिक-परीक्षण किया गया और पाया कि उसे कोई दवा नहीं दी गई तथा वह सामान्य रुप से स्वस्थ है इसके बा सम्मोहन-विद्या विशेषज्ञ ने वह यन्त्र लगा दिये, जिससे निद्रावस्था में मस्तिष्क के भीतर चलने वाली विपुल तरगों का पता चलता है।

रानारिकों ने घोषित किया कि यह महिला 3 सितम्बर को सुबह के समय जागेगी। सामान्य अवस्था मं किसी व्यक्ति को आठ-दस घण्टे से अधिक की नींद नहीं आती। बहुत हुआ तो बारह-चौदह घण्टे। किन्तु वह महिला ठीक 3 सितम्बर को घोषित समय पर जागी। डाँक्टर इस बीच बराबर यह जाँचते रहे कि वह स्त्री सो रही है अथवा नहीं? दो सौ घण्टे बीतने पर रानारिको ने जब उसे जागने और नींद से उठने का निर्देश दिया तो वह बिल्कुल ताजा दम होकर उठी। डाँक्टरो ने जाँच कर बताया कि इस बीच उसके शरीर में को अस्वाभाविक परिवर्तन नहीं आया था।

पश्चिमी-देशों में सम्मोहन के इस प्रकार अनेकों प्रयोग किये जा रहे है और मनुष्य की इच्छा-शक्ति की प्रचण्डता को मापने के अनेकानेक प्रयास किये जा रहे है, इन प्रयोगों की विद्या को अंग्रेजी में ‘हिप्नोटिज्म’ कहा जाता है। पहले इसे बाजीगरी और हाथ की सफाई से अधिक महत्व नहीं दिया जाता था। किन्तु इस दिशा में जैसे-जैसे वैज्ञानिक प्रयोग किये गये और उनसे जो निर्ष्कष प्राप्त हुए उनके अनुसार हिप्नोटिज्म को एक विशेष प्रकार की सुझाई हुई ‘नर्वस निद्रा’ कहा जाता है। साधारण नींद में मनुष्य अपन सुधबुध खो कर लगभग अचेत-सा हो जाता है। प्रायः उसका सचेतन मस्तिष्क पूरी तरह सो जाता है, किन्तु सम्मोन द्वारा सुझाई गई नींद में मनुष्य का आधा सचेतन मस्तिष्क भर सोता है और उसके स्थान पर अचेतन मन अपेक्षाकृत अधिक जागृत हो जाता है तथा आदेश-कर्त्ता के निर्देशो के प्रति पूर्ण सजगता का परिचय देता है। इसे चेतना की सामान्य-स्थिति का असामान्य परिवर्तन, जागरण कहा जा सकता है।

अब तो इस विद्या को इतनी मान्यता मिल गइ्र है। कि चिकित्सा-क्षेत्र में भी इसका प्रयोग होने लगा है। शरीर का सुन्न करने में सम्मोहन प्रयोग बहुत सफल हुए है। प्रथम महायुद्ध के दिनों रुसी डाँक्टर पाडियों पोलेरकी ने 30 घायल व्यक्तियों के शरीर बिना क्लोरोफार्म दिये सुन्न करके दिखाये थे और उनके पीड़ा रहित आँपरेशन सम्पन्न किये थे। ब्रिटिश-डाँक्टर एस्टल ने इस प्रयोग के आधार पर लगभग 200 आँपरेशन सफलता पूर्वक किये। कई यूरापीय-देशों में दन्त चिकित्सक इस पद्धति को जरा भी कष्ट या पीड़ा उत्पन्न किये बिन दाँत उखाड़ने के लिए काम में लाते है। प्रसूति-गृहों में भी बिना कष्ट उठाये प्रसव करने के लिए सम्मोहन’-विद्या का प्रयोग बहुत ही उपयोग सिद्ध हो रहा है। सन् 1975 में अमेरिका की मेडिकल एशोसियेशन ने सम्मोहन को एक प्रामाणिक चिकित्सा-विज्ञान के रुप में मान्यता प्रदान की है। इसी प्रकार ‘ब्रिटिश एण्ड अमेरिका मेडीकल एसोसियेशन ने भी उसे उपयोगी चिकित्सा-विधि के रुप में मान्यता दे रखी है।

कहा जा चुका है किसी समय सम्मोहन को जादुई करिश्मे से अधिक नहीं समझा जाता था। इसके समर्थक और विरोधी अपने पक्ष में इतनी जोर-शोर से बाते करते और तर्क देते थे कि सर्वसाधारण के लिए उस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट अभिमत बना पाना सम्भव ही नहीं होता था। परन्तु अब यह बात नहीं है और उसे विज्ञान की प्रमाणों पर आधारित एक तथ्यपूर्ण धारा के रुम में स्वीकार किया जा चुका है तथा सम्मोहन को अब कोई कला नहीं, अपितु विज्ञान के रुप में मान्यता मिल चुकी है। इसे आर्श्चयजन प्रदशनों के रुप में नही, अपितु मनुष्य के लिए उपयोगी और चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करने वाली विद्या के रुप में मान लिया गया है।

रुसी मनोविज्ञानवेत्ता पावलोव के अनुसार सम्मोहन में जादू जैसी कोई बात नहीं है। वह मनोविज्ञान सम्मत सहज प्रक्रिया है, जिसमें कुछ मस्तिष्कीय-कणों की अन्तः क्षमता को कृ़ित्रम रुप से सुला देने और जगा देने की प्रक्रिया को संकल्प-शक्ति के आधार पर सम्पन्न किया जाता है। पावलोव का यह भी कहना है कि सम्मोहन द्वारा शरीर की सामान्य स्थिति में भी परिवर्तन किया जा सकता है। यह अन्तर उन्होनें कई प्रयोगों द्वारा भी स्पष्ट किया। अन्य वैज्ञानिकों द्वारा भी इस तरह के प्रयोग परीक्षण हुए तो पाया गया कि हृदय गति 82 से बढ़कर 143, रक्त का दवाब 105 से उठकर 136 और तापमान 66 डिग्री फारनेहाइट से बढ़कर 101 डिग्री तक बढ़ जाता है । इतना होने पर भी शरीर के भीतर कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होते। उदाहरण के लिए जिन रक्त में जिन तत्वों को समावेश है, उनके अनुपात में कोई अन्तर नहीं पाया गया। लवण, शर्करा आदि की जो मात्रा शरीर में विद्यमान थी, उनका परिणाम नहीं बदला जा सका। लेकिन सम्मोहन द्वारा रोग के कारण होने वाली शारीरिक-पीड़ा पर अवश्य नियन्त्रण किया जा सकता है और बीमारियों के कारण होने वाले कष्ट में भी रोगी अपने को अच्छा अनुभव कर सकता है, बीमारी का जड़-मूल से कट जाता तो सम्मोहन द्वारा तत्काल सम्भव नहीं देखा गया, पर इतना अवश्य पाया गया कि सुधार की धीमा सिलसिला चल पड़ा है।

सम्मोहन द्वारा पूर्व निर्धारित नैतिक मान्यताओं को भी धीरे-धीरे बदल पाना सम्भव हो गया है और इस तरह के अनेक प्रयोग सफल हुए है। लड़ाइयो में पकड़े गये शत्रु-पक्ष के सैनिकों को पहले की अपेक्षा भिन्न मत बनाने के लिए सम्मोहक विज्ञान के आधार पर प्रयोग चलते रहे है। इन्हे ‘बेन वाशिंग’ कहा जाता है। इन प्रयासों में आशिंक-सफलता ही मिली है, क्योंकि है उनकी परिक्व और पुष्ट देश-भक्ति की मूल धारा को बदल देने के लिए अति कठिन कार्य थें इनकी तुलना में किसी अनाचारी व्यक्ति को उसके अनाचार कुकर्मों से छुड़वा कर सदाचार सत्कर्मों में प्रवृत करने की दिशा में अधिक सफलता मिली है। इसका कारण है-व्यक्ति के लाख अनाचार लिप्त होते हुए भी उसके भीतर आत्मा में सत् तत्वों के बीज रहते है और वे समय पाकर अंकुरित फलित होने की बाट जोहते रहते है।

सम्मोहन में इच्छा और संकल्प-शक्ति ही प्रधान रहती है। प्रयोग-कर्त्ता की इच्छा और संकल्प-शक्ति जिस है। फिर भी सम्मोहित-व्यक्ति में उसके विनिर्मित-व्यक्तित्व की सीमा के अर्न्तगत ही कार्य कराये जा सकते है। अचेतन की गहरी परतें, अपने भीतर कुछ नैतिक और आत्मिक-मान्यताएँ अत्यन्त सधन होकर जमाये रहती है। उन्हें सम्मोहित प्रयोगों से नहीं छुआ जाता। सामान्य कामकाजी बातों को ही शरीर और मस्तिष्क द्वारा पूरा कराया जा सकता है। किसी व्यक्ति की आत्तरिक-आस्था यदि जीव-दया पर आधारित है और उसे सम्मोहित-स्थिति में माँस खाने के लिए कहा जाये व्यक्ति उसका आदेश पालन करने से इन्कार कर देगा। कराने जैसे कुकुत्यों के लिए आदि यदि सम्मोहन-कर्ता कोई प्रयोग करे तो अन्तःकरण की अस्वीकृति होने पर वे प्रयोग सफल नहीं हो सकते। कहा जा सकता है कि दूसरे को सम्मोहित कर उससे कोई काम कराने में सफलता प्राप्त की जा सकती है, जितनी कि आमतौर पर उसे सामान्य अवस्था में सहमत कर-कराई जा सकती थी।

इच्छा और संकल्प-शक्ति द्वारा दूसरों को सम्मोहित करने क अपेक्षा आत्म-सम्मोहन का स्तर अधिक ऊँचा है और उस आधार पर आत्म-समर्पण के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में मनवाँछित परिवर्तन कर सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा अपनी आत्म-शक्ति के माध्यम से ही अपने चतना-मस्तिष्क को अर्ध-तन्द्रा को धकेल देता है और अचेतन को सामान्य जीवन-संचार की व्यवस्था जुटाते रहने के लिए सीमित कर दिया जाता है। इसे योग-निद्राँ या समाधि भी कह सकते है। इस स्थिति में अहिर्निश श्रम करते रहने पर भी बाह्म-मस्तिष्क की कृत्रिम क्रिया शक्ति के साथ ही दिव्य-निद्रा का आनन्द मिलता है। इस विश्रान्ति के उपरान्त एक नई स्फूर्ति का लाभ मिलता है। इस विश्रान्ति के उपरान्त एक नई स्फूर्ति का लाभ मिलता है, साथ ही चेतना की अनावश्यक परतों को दुर्बल एवं आवश्यक परतों को सबल बनाने का अवसर मिलता है। योगीजन इस योग-निद्रा आत्मोर्त्कष के अन्यान्य लाभ भी प्राप्त करते हैं

सामान्य स्थिति में आत्म-संकेत द्वारा, आत्म-सम्मोहन भी अपना मनोबल बढ़ाने, बुरी आदतें छुड़ाने और उपयोगी निष्ठाएँ जाग्रत करने के लिए अतीवउपयोगी सिद्ध हो रहा है। इससे उच्च स्तर का आत्मसम्मोहन, जिससे योग-निद्रा को प्राप्त किया जा सके, कठिन है। वह स्थिति आत्म-बल को प्रखर बनाने के उपरान्त ही प्राप्त होती है। उस स्थिति में इतनी अधिक क्षमता उत्पनन होती है कि जागृत-मस्तिष्क को शिथिल बनाया जा सके और उस स्थिति का लाभ लेकर अनावश्यक को हटाने एवं आवश्यक को जमाने का कार्य सम्पन्न किया जा सके ? सामान्यता जागृत मस्तिष्क ही सबल बनाने मस्तिष्क ही सबल होता है। और वह अपनी सर्वोपरिता को चुनौती दी जाना स्वीकार नहीं करता। तर्क सन्देह के अस्त्रों से वह अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को रोकने की पूरी चेष्टा करता है। इस कारण आत्मसम्मोहन द्वारा अभीष्ट गहराई उत्पन्न होने में भरी कठिनाई उत्पन्न होती है। इतने पर भी शान्त-चित्त और एकाग्र मन से श्रद्धापूर्वक किन्हीं विचारों को यदि बार-बार दुहराया जाये तो उससे भी कुछ प्रभाव पड़ता ही है तथा उपयोगी मानसिक-परिवर्तन के लिए किये गये प्रयासों के काफी सफलताएँ मिलती है।

फ्राँस के प्रसिद्ध मनःशास्त्री प्रो. इमाहलकु ने अपनी पुस्तक ‘कान्श आटोसजेशन’ में इस तरह के अनेक उदाहरण देते हुए बताया है किस प्रकार इच्छा शक्ति का प्रयोग करके अपने आप में तथा दूसरों में असाधारण परिवर्तन किये जा सकते है। ये प्रयोग शारीरिक और मानसिक रुग्णता को दूर करने में भी बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुए।

बढ़े-चढ़े और प्रखर आत्म-बल सम्पन्न व्यक्ति ने केवल अपने व्यक्तित्व को आमूल-चूल बदल देते है, वरन् दूसरों को बदल डालने का भी असम्भव-सा लगने दूसरों को बदल डालने का भी असम्भव-सा लगने वाला कार्य कर दिखाते है। नारद ने थोड़े-से सर्म्पक द्वारा ही प्रहलाद, धुव्र, पार्वती, वाल्मीकि आदि कइयों की जीवन-धारा ही बदल दी। भगवान बुद्ध के सर्म्पक में आने के बाद अगुँलिमाल, आग्रपाली जैसे अगणित व्यक्ति पतनोन्मुख दिशा से विमुख होकर उच्चस्तरीय उत्कृष्ट जीवन-दिशा ग्रहण कर सके। महात्मा गाधी के प्रभाव से अगणित व्यक्ति त्याग-बलिदान के क्षेत्र में उतरे और उन्होंने बढ़े-चढ़े आदर्श उपस्थित किये इसे आत्म-बल की प्रखरता, प्राण-तत्व की तेजस्विता का चमत्कार ही कहना चाहिए कि जो अगणित असंख्यों की जीवन-धरा उलट सके। सम्मोहन-एक कला है छोटी-मोटी साधनाओं द्वारा उसमें पारगंत हुआ जा सकता है किन्तु व्यक्तित्व में यदि इतना सशक्त आत्म-तेज, आत्म-बल, प्राण-शक्ति, ब्रह्मवर्चस् विकसित किया जा सके तो लोगों को अपने व्यक्तित्व के जादू से सम्मोहित कर अनायास ही उन्हे उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की ओर अग्रसर किया जा सकता है।


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