जल की यह विशेषता है कि जिस भी बर्तन में रखा जाये वैसा ही आकार ग्रहण कर लेता है। लोटे में रखने पर लोटे जैसा और बाल्टी जैसा बन जाता है। नदी की धारा में मिलकर तंरगो के रुप में परिवार्तित हो जाता है। वस्तुतः उसका अपना कोई स्वरुप नहीं है। विभिन्न प्रकार के पात्र ही अपने अनुरुप जाल का स्वरुप गढ़ते है। भासित होने वाला स्वरुप पात्रों का होता है न कि जल का। पात्र बदल देने से उसका स्वरुप भी बदल जाता है। दिखाई पड़ने वाले स्वरुप को ही यर्थात मान बैठना भूल है।
संसार के विषय में भी यही बात लागू होती है। जो कुछ भी अच्छा बुरा दिखाई पड़ता है वह आन्तरिक कल्पनाओं, मान्यताओं, का प्रतिबिंब मात्र है। दर्पण वस्तुओं के स्वरुप को प्रतिबिम्बत करता है। अपनी मान्यताएँ ही अपने अनुरुप संसार को गढ़ती तथा दर्पण के बिंब के समान दिखाई पड़ती है। मन जैसी कल्पना करता है। वे कल्पनाएँ ही भले बुरे संसार को गढ़ती तथा सुख दुःख का कारण बनती है।
अपना आपा श्रेष्ठ हो तो श्रेष्ठताओं का दिर्ग्दशन होता है। अन्दर का आनन्द संसार में भी छलकता हुआ दिखाई पड़ता है। दृष्टिकोण परिष्कृत हो तो काँटो में पुण्य का सौर्न्दय ही परिलक्षित होता है। अन्यथा विकृत दृष्टि तो पुष्पों के सौर्न्दय सुरभित गंध को एक किनारे रखकर काँटो को ही देखती है। एक ही वस्तु एक ही परिस्थिति किसी के दुख एवं किसी के सूख का कारण बन जाती है। कारण स्पष्ट है अपनी मान्यताएँ कल्पनाएँ एवं विचारणाएँ एक ही स्थिति के दो व्यक्तियों को ही परस्पर विरोधी प्रकार की अनुभूतियों का कारण होती है। हँसने वाले व्यक्ति को संसार हँसता हुआ तथा रुदन करने वाले को रोता हुआ दिखाई पड़ता है। सामान्यतया इस तथ्य को उल्टे रुप में ही समझा जाता है। संसार की प्रसन्नता एवं दुःख को अपनी प्रसन्नता एवं दुःख का कारण माना जाता है। जबकि संसार रुपी दर्पण में अपना आन्तरिक स्वरुप में ही प्रतिबिंबित होता है। तीव्रगति से चलती हुई गाड़ी में बैठे यात्री को मार्ग की सभी वस्तुएँ गति करती जान पड़ती है। जबकि वह स्वयं ही गाड़ी की गति के साथ गतिशील है। ट्रेन से सम्बद्ध यात्री की गतिशीलता स्थिर वस्तुओं को भी गतिशील देखनी है।
मान्यताओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन का आधार बदल जाने पर ब्राह्म स्वरुप भी परिवर्तित हो जाता है। सुख दुःख भले बुरे की बीच अन्तर परिस्थितियों को नहीं वरन् चिन्तन के स्तर का है।
शास्त्रकारों ने इसी कारण मन को निर्लिप्त बनाने की प्रेरणा दी है। ब्राह्म जग्त अपने अन्तःजगत का प्रतिबिंब मात्र है। अन्तः संसार में परिवर्तन करके जैसा उसी रुप में संसार को गढ़ा एवं उसके अनुरुप सुख दुखा का अनुभव किय जा सकता है। मन चेतना की विशेषताओं एवं उसके अजस्त्र आनन्द की अनुभूति कर सके तो उसे बाहर भी आनन्द का निर्झर बहता दिखाई पड़ता है। विषमताओं को भी जीवन का एक आवश्यक अंग मान कर उसमें भी आनन्द की अनुभूति की जा सकती है परिस्थितियों में आमूल चल परिवर्तन कर सकना सम्भव नहीं है। किन्तु अपने दुष्टिकोण एवं चिन्तन में परिवर्तन करके प्रतिकुलताओं भीमें भी दर्शन किया जा सकता है।
बाह्म परिस्थितियों एवं संसार से प्रभावित होने उन्हें सुख दुख का कारण मानने के स्थान पर आवश्यकता इस बात की है कि अपने चिन्तन को उर्ध्वगामी बनाया जाय। मान्यताओं में परिवर्तन किया जाय। यह संसार को आन्तरिक विचारों को प्रतिबिंब मानने से ही सम्भव हो सकता है। इस तथ्य को समझने एवं अनुभव करने से ही मन को सन्तुलित रखा एवं प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्नचित रहा जा सकता है।