आज में जो जिया सो, जिया आदमी।गत-अगत का नहीं, मर्सिया आदमी!
भूत का या भविष्यत का ‘कल’ नाम दे,भूल के साथ भटका किया आदमी!
कल ही कल के लिये हाय रोता रहा,,आज को छोड़कर, चल दिया आदमी!
कल मिली हैं, किसे, आज को त्याग कर, सोचता ही नहीं क्यों जिया आदमी ?
काल का कौर हर बार बनता रहा, भोग ने आज भरमा लिया आदमी!
श्वास-उच्छवास ही जिन्दगी बन गया, घूँट विष के बनाकर, जिया आदमी!
ध्यान आया कि जब तीलियाँ चुक गई,रोपड़ा चीख कर तब, हिया आदमी!
बिन पते की लिये चिट्ठियाँ बाँटता, खुद झरे पात सा, डाकिया आदमी!
डस रहा आपको, आप फुसकार कर, बन रहा हैं स्वयं कालिया आदमी!
रोशनी का पता पूछता और से, देख तू ही है जलता दिया आदमी।
और के अवगुणों की मुनीमी करे, काँच से ही भरे, झीलियाँ आदमी।
लोक-हित के लिये जो हलाहल पिये, शिव, अमृत पुत्र बो बन गया आदमी!
‘आज’ में जो जिया सो जिया आदमी,गत-अगत का नहीं, मर्सिया आदमी!
*समाप्त*