संस्कृति के तीन आधार काय, वाक एवं चित्त संस्कार

January 1980

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काय संस्कार एव चित्त-संस्कार इन त्रिविध संस्कारों की सामूहिक अभिव्यक्ति का नाम ही संस्कृति है। अतः संस्कृति का अर्थ और आधार सामूहिक-संस्कारों में सन्निहित रहता है।

संस्कार शब्द द्विअर्थी है। योग, मनोविज्ञान में ‘संस्कार’ कहते है, उस धुत-भाव या प्रभाव को, उस ‘इम्पे्रेशन’ को जो किसी चेष्टा या क्रिया के होने पर चित्त रह जाता है। इस प्रकार प्रत्येक चित्त-वृत्ति संस्कार उत्पन्न करती है और प्रत्येक संस्कार, वृत्तियों के उदय कारण बनता है। वृत्ति है वृक्ष और संस्कार का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। वृत्ति है वृक्ष और संस्कार उसका मूल यानी उसकी जड़। संस्कार का दूसरा अर्थ है-परिमार्जन, परिष्करण, शुद्धिकरण, परिपक्वीकरण। संस्कृति के आधारभूत तत्व ‘संस्कार’ में दोनों अर्थ सन्निहित है। जब मनुष्य अपनी कायिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आस्थागत प्रवृत्तियों को परिष्कृत उदात्त एवं श्रेष्ठ बना लेते है, तब उनके ‘इम्पेशन्स’ या संस्कार गहराई तक अंडिग हो जाते है और प्रत्येक क्रिया में वे अभिव्यक्त होते है। यह अभिव्यक्ति ही संस्कृति है।

जीवात्मा के तीन कलेवर ओढ़ रखे है, इन्हें स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर कहते है। शरीर-संस्थान, मनः संस्थान एवं अन्तः करण-संस्थान भी इन्हें कहा जाता है। क्रमशः क्रिया, चिन्तन एवं आस्था-इनकी मूलभूत शक्तियाँ है। इन तीनों शक्तियों का श्रेष्ठतम सदूपयोग की काय, वाणी एवं चित्त का संस्कार है। संस्कृत मनुष्य वही है, जो इन संस्कारों से सम्पन्न हो।

अपने शरीर को उसमें निवास करने वाली परम, पवित्र प्रकाशवान्, परम चैतन्य परमात्म-सत्ता का मन्दिर समझकर उसे सदा, पवित्र, पुष्ट, प्रखर, क्रियाशील बनाये रखना ही काय-संस्कार है। सक्रियता, श्रमशीलता, शुचिता की समुचित उपासना-शरीर को भगवान का मन्दिर की कसौटी और प्रमाण है।

वाक-संस्कार का अर्थ वाणी की चतुराई मात्र नहीं सत्यवत-वाक् ही संस्कारित-वाक् है। ऐसी ही वाणी को वैदिक-ऋषियो ने मधुमती वाणी, कल्याणी वाणी आदि कहा है। हमारे पूर्वज विचारक-मनीषियों का मत है।

“ शब्दब्रह्माणि निष्णातः परं ब्रह्माधि गच्छति।”

अर्थात्-शब्दब्रह्म में निष्णात व्यक्ति परमब्रह्म को प्राप्त करता है।

परावाक् ही वाक् का मूल रुप है। वही शब्द-ब्रह्म है। भतृहरि के अनुसार प्रतिभा की समग्र अभिव्यक्ति वाक् में ही होती है। व्यष्टि-पिण्ड में वाक्-शक्ति अपने मूल रुप में प्रकाश-शक्ति के रुप में ही रहती है प्रकाशन, अभिव्यक्ति उसी का धर्म है। उसी सूक्ष्म-शक्ति को पश्यन्ती वाक् कहा जाता हैं। वह शक्ति जब चिन्तन के रुप् में सक्रिय होती है तो उसे मध्यमा-वाक् कहते है। वहीं जब ध्वनि-समूह के रुप् में अभिव्यक्ति होती है, तो वैखरी कहलाती है। इस प्रकार वाक्-शक्ति का समग्र रुप में चिन्तन-शक्ति है। अतः वाक्-संस्कार का अर्थ मधुर-सरस उच्चारण भर नहीं, वरन् चिन्तन का संस्कार है। परिष्कृत, उदात्त, सत्यनिष्ठ चिन्तन की वाक्-संस्कार है। इसलिए वैदिक-ऋषि कहते है-’

‘वाचः सत्यमशीय” (यजुर्वेद 364)

अर्थात-मैं अपनी वाणी में सत्य को प्रतिष्ठित करुँगा। यह भी कहा है कि-

सा मा सत्योक्तिः परिपातु विश्वतः (ऋग्वेद 10/37/12)

अर्थात-सत्य-भाषण द्वारा मैं सब बुराइयों से अपने को बचाता रहूँ।

वस्तुतः मनुष्य को सार्थक वाणी को जो विराट् वैभव परमात्मा ने प्रदान किया है, उसका सर्वोत्तम सदूपयोग करना वाक्-संस्कार द्वारा ही सम्भव है। उस हेतु ज्ञान-साधना, चिन्तन-परिष्कार, विचार-संयम आवश्यक है। शब्द की सहायता के बिना विचार नहीं होता। अतः विचार-साधना और वाक्-साधना पर्यायवत् है। छान्दीग्य उपनिषद् में सनत्कुमारजी नारद से कहते है।

“ वाग्वाब नाम्नों भुयसी, वाग्वा ऋग्वेद विज्ञापयति यजुर्वेद सामवेद माथर्वण चतुर्थमितिहास पुराणं पज्चमं वेदाना वेदं पिव्यं राशि दैव निधिं............धर्म चाधर्म च सत्यं चानृत च साधु चासाधु च.....................वागेवैर्त्सव विज्ञापति वाचमुपास्स्वेति॥ “ (छान्दोग्य 7/2/1)

अर्थात्-वाक् नाम से बढ़कर है। वही ऋग्वेद को विज्ञापति करती है। यजुर्वेद, सामवेद, चतुर्थ अथर्व वेद, पंचम वेद इतिहास, पुराण, वेदो के वेद व्याकरण आदि समस्त विद्याएँ, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, साधु-असाधु यह सब वाक् ही विज्ञापति करती है। अतः वाक् की उपासना करो। शकंराचार्य ने मुख्य परोक्षानुभूति में कहा है-

“नीत्पद्यते बिना ज्ञानं विचारेणाऽन्य साधनैः।”

अर्थात्-ज्ञान की उपलब्धि विचार के अतिरिक्त अन्य किसी साधना से सम्भव नहीं। इसलिए विचार् साधना, ज्ञान-साधना ही वाणी-साधना का सही रुप है।

चित्त-संस्कार तीसरा एवं सर्वोपरि संस्कार है चित्त का लक्षण ‘चेतयितृत्व’ अर्थात-बोधयुक्त होता एवं निर्णय-समर्थ होता है। मन, बुद्धि, अंहकार आदि उसी के प्रयोजन-भेद से रखे गये नाम है। अन्तःकरण समुच्चय इन्ही का नाम है।

संस्कार, आस्थाएँ, भाव-सम्वेदनाएँ चित्त में पुच्जीभूत एवं क्रियाशील रहती है। काय-संस्कार एवं वाणी संस्कार की प्रेरणा भी परिष्कृत, संसस्कृत चित्त में ही उठती है। अतः चित्त-संस्कार सर्वोपरि संस्कार का स्वरुप-निर्धारण चित्त ही करता है। संस्कारित काया सक्रियता का सुख देती है। संस्कारित वाणी सरस्ता, मधुरता, अनुकूलता, सत्प्रेरणा उत्पन्न करती है। ये दोनों प्रक्रियाएँ संस्कारित चित्त में ही प्रेरित होती है। वाणी या विचार-शक्ति का कैसा उपयोग किया जाय, उसे प्रज्ञा के उर्त्कष का साधना बनाया जाय या पतन के प्रयोजन में प्रवृत्त रखा जाय, यह निर्धारण चित्त-तल में जीम आस्थाएँ करती है। सम्पूर्ण-जीवन का दिशाधारा का निर्धारण चित्त में सव्याप्त संस्कार जगत ही करता है। वाणी उसी के संकेत पर नाचती है। शरीर उसी के संकेत पर चलता है। व्यक्तित्व को मूल वे आस्थाएँ ही है, जो चित्त में छायी रहती है। उनके ही संकेत पर मनुष्य की गतिविधियाँ सच्लित होती है।

संकल्प की दृढ़ता चित्त-संस्कार पर निर्भर है। चित्त मं जो संस्कार जितना गहरा होगा, उससे पे्ररित संकल्प भी उतना प्रचण्ड होगा। बिना आस्था के बिना गहरे विश्वास के, संकल्प का प्रखर नहीं बनते विश्वास की ही प्रतिक्रिया संकल्प है। आस्थाएँ है-बीज और संकल्प है-वृक्ष। उन पर ही विचार एवं क्रिया के फूल-फल उगते है।

वैशेषिक दर्शन में संस्कार की तीन विशेषताएँ बतायी गयी है-भावना, वेग एवं स्थिति-स्थापकत्व संस्कार भावना रुप में फैले रहते है। वे वेगवान् संकल्प बनकर प्रकट होते है तथा संस्कारो के इर्द-गिर्द ही मनुष्य की समस्त गतिविधियाँ मंडराती रहती है।

चित्त-संस्कार से प्रज्ञा का उन्मेष होता है। संस्कारित चित्त की सबसे बड़ी शक्ति है-श्रद्धा। श्रद्धा ही मनुष्य को उल्लसित रखती है। वही विचाराणा एवं क्रिया का स्वयप निर्धारण करती है। सुँस्कृत-चित्त में सात्विक-श्रद्धा घनीभूत होती है। उसी स्थिति में भावनाएँ विचार एवं क्रियाएँ श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ती है। श्रेष्ठ भावनाएँ सद्भाव बनकर प्रकट होती है। श्रेष्ठ विचार सद्धिचार कहलाते है और श्रेष्ठ क्रियाएँ सदाचार कहलाती है। इन्हें ही सद्भव, सद्ज्ञान एवं सर्त्कम भी कहा जाता है। काय-संस्कार का परिणाम है-सद्धिचार तथा चित्त-संस्कार की परीणिति है। सद्भाव। जब इस त्रिविधि उर्त्कष कहते है। संस्कृति व्यक्ति की नहीं, समाज की ही होती है। इसलिए लिन्टन ने संस्कृति की ‘सामाजिक-विरासत’ कहा है। लाँबी के अनुसार समस्त सामाजिक परम्परा ही संस्कृति है।

विचारक टी.एस. इलियट ने अपनी पुस्तक “नोट्स टुबर्ड ए डेफिनीशन आव कल्चर” में कहा है कि व्यक्ति की संस्कृति समूह या वर्ग की संस्कृति पर ही निर्भर करती है और वर्ग या ‘क्लास’ की संस्कृति उस सम्पूर्ण समाज की संस्कृति पर आश्रित होती है, जिसका वह वर्ग अंग है। इलियट ने यह भी कहा है कि ‘जब परिवार रुपी इकाइयाँ संस्कृति-दान करने से विमुख हो जाती है, तब संस्कृति का अध-पतन होने लगता है।’

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संस्कृति को प्राणवान् रखने में परिवारों की भूमिका प्रधान है। काय, वाक् और चित्त इन त्रिविध-संस्कारों की सामूहिक-साधना से संस्कृति विकसित होती तथा जीवन्त रहती है। इस साधना की इकाई है-परिवार। परिवार ही शरीर, वाणी और अन्तः करण की सामूहिक संस्कार-साधना के आधारभूत घटक है। उनमें विकसित संस्कृति ही सामाजिक-संस्कृति का रुप निर्धारित करती है। अतः साँस्कृतिक-विकास के लिए पारिवारिक-सुव्यवस्था अत्यावश्यक है।

साँस्कृतिक-चेतना का अर्थ होता है-जीवन-मूल्यों की चेतना। जीवन-दर्शन एवं जीवन-व्यवहार दोनाँ ही उसके अंग है। शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य साँस्कृतिक-परम्परा एवं साँस्कृतिक-उत्तराधिकार का सम्प्रेषण भी होता है। सुव्यस्थित-परिवार शिक्षा के इस दायित्व की बड़ी हद तक पूरा करते है। अपने सदस्यों के शारीरिक, वाचिक एवं भावनात्मक व्यवहारों को परिष्कृत करने का प्रशिक्षण सुव्यवस्थित-परिवार दिया करते है। अतः जिस प्रकार संस्कृति के साधनात्मक आधार उसी प्रकार उसके व्यावहारिक आधार भी तीन व्यक्ति-निर्माण एवं समाज-निर्माण तीन स्तरों पर सम्पन्न संस्कृति की यह त्रिविध-साधना तीन परिणामों के रुप में सामने आती है-सामूहिक सद्भाव, सामूहिक-सद्विचार एवं सामूहिक सर्त्कम या सदाचार। इस प्रकार संस्कृति की साधना-जीवन की साधना है।


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