सहयोग, सदभाव भरी उदार दिव्य आत्माएँ

January 1980

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मनुष्य जीवन भर के संचित संस्कारों और अभ्यासों से जो स्वभाव अर्जित करता है, वह मरने के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। बल्कि मरने के बाद भी वे अभ्यास संस्कार मनुष्य के साथ जुड़े रहते है। ओर उसे अपने स्वभाव के अनसार कर्म करने के लिए प्रेरित करते है। यही कारण है कि एक ही वातावरण में पले, एक ही माता पिता की सन्तान दो बच्चों में दोनों अलग-अलग और पिता की सन्तान दो बच्चों में दोनों अलग-अलग और कभी-कभी तो सर्वथा भिन्न स्वभाव के पाए जाते है।

स्वभाव की यह विशेषताएँ जीवन काल में ही नहीं देखी जाती वरन् अशरीरी अवस्था में, मरने के बाद और जन्म लेने के पूर्व की अवस्था मरणोत्तर जीवन काल में भी आत्माएँ अपने सुक्ष्म शरीर के माध्यम से पूर्व अर्जित गुण व संस्कारों के अनुसार बर्तता है। परामनोविज्ञान के इतिहास में ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिनमें मृतात्माओं के किन्हीं व्यक्तियों का सहयोग किया और उन्हें मानसिक उलझनों, समस्याओं, विपत्तियों से छूटकारा दिलाया तथा प्रगति पथ पर आगे बढ़ चलने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित किया। हाल ही में लन्दन की एक अधेड़ संगीतकार महिला रोजमेरी ब्राउन का मामला प्रकाश में आया है, जिसके संबन्ध में कहा जाता है कि उसे बाख, बीथोवेन, शोपो, देबुसीजिल्ट, शुवर्ट आदि महान संगीतकारों की आत्माएँ संगीत का शिक्षण देती और अभ्यास कराती है। स्मरणीय है इन संगीतकारों को देहावसान हुए कई वर्ष बीत चुके है।

श्रीमती ब्राउन जब सात वर्ष की थीं तो उसने रात को देखा कि काला कोट पहने कोई छाया उसके बिस्तरे की ओर बढ़ रही है। इस दृश्य को देख क रवह इतनी भयभीत हो गई कि उनके मुँह से चीख भी नहीं निकल सकी। उस काली छाया ने ब्राउन को पुचकारा और उस की पीठ पर हाथ फेरा। आर्श्चय की बात है कि चारों ओर से बन्द उस कमरे में वह छाया किस प्रकार प्रकट हुई ओर बिना कोई आहट हुए रोजमेरी तक पहुँच गई ? जबकि पास में ही उसके माता पिता सोए हुए थे। उस काली छाया का चेहरा साफ दिखाई देने लगा और रोजमेरी को आश्वस्त भी कर रही थी, कहा “घबड़ाओं मत मेरी बेटी! मैं तुझे एक प्रसिद्ध संगीतकार बनाऊँगा और तुम्हें संगीत सिखाऊँगा। “

इसके वर्षो बाद तक उस काली छाया से कोई सर्म्पक नहीं हुआ। इस बीच रोजमेरी का विवाह हो गया, वह दो बच्चों की माँ भी बन गई और दुर्योगवशा सन् 1961 में उस के पति का निधन हो गया, परन्तु वह साधारण संगीत शिक्षा ही प्राप्त कर सकी थी। पति का निधन होने के बाद रोजमेरी को अपने और अपने बच्चों के निर्वाह की चिंता रहा करती थी। घर की हालत कोई अच्छी नहीं थी कि उस ओर से निश्चन्त रहा जा सके इसलिए उसका अधिकाँश समय गुजर बसर की व्यवस्था करने में ही बीतता था। इस मुफलिसी में उसे संगीत सीखने या संगीत सभाओं में जाने के लिए न पैसा था ओर न समय पर उसमें संगीत सीखने के तीव्र लालासा थी। वह काली छाया जो सात वर्ष की आयु में दिखाई दी, यही नहीं उसके साथ अन्य छायाएँ भी थी। अब तक रोज ब्राउन ने संगीत शाखा का जो अध्ययन किया था और जिन संगीतकारों के बारे में जाना पढ़ा था उन्हें देख कर उसने पहचाना कि वह आत्म विख्याता पियानों वादक फ्राँज लिज्ट की हैं फ्राँज लिज्ट के साथ और भी कुछ संगीतकारों की आत्माएँ थी।

इन भूत संगीतकारों ने उसे अब तक लगभग 400 संगीत रचनाएँ सिखाई। इनमें शुबर्ट का 40 पृष्ठों का सोनारा और 15 गीत शोपा की एक रचना तथा बीथोवन के दो सोनारा आदि है। कहा जाता है कि रोज ब्राउन को संगीत सिखाने और नई रचनाएँ तैयार करवाने में लिज्ट की आत्मा उसका हाथ पकड़ कर मार्गदर्शन करती है। कौन सी धुन किसी प्रकार निकलनी चाहिए यह सिखाने के लिए संगीतकारों की आत्माएँ उसे गाकर समझाती भी है। ऐसा नहीं कि ये दावे निराधारा हों इन दावों की सत्यता जाँचने के लिए कुछ पत्रकारों और परामनोवैज्ञानिक ने जाँच पड़ताल भी की। उन आत्माओं के चित्र भी लिए गये और इन दावों को सच पाया गया।

ब्रिटेन के प्रसिद्ध संगीतकार सर डोनोंल्डटोष की आत्मा भी रोजमेरी के पास आती है। स्मरणीय है कि डोनाल्डटोष का देहावसन सन् 1940 में ही हो गया था। पर उनकी आत्मा अभी रोजमेरी को संगीत की शिक्षा देती है। वह प्रतिदिन काम से निबट कर दस बजे शाम के चार बजे तक संगीत शिक्षा प्राप्त करती है। मृत संगीतकारों की आत्माएँ इस बीच छह घन्टे तक उसके पास रहती है।

सन् 1936 में न्यूयार्क से पेरीस आई एक महिला श्रीमती बीजरुस के साथ भी ऐसी ही घटना घटी, जब उसे श्रीमती बीजरुस के साथ भी ऐसी ही घटना घटी, जब उसे सौ वर्ष पूर्व दिवगंत हो चुके चित्रकार गोया ने चित्रकला सिखाई। बीजरुस चित्रकला सीखने के उद्देश्य से ही पेरिस आई थी। उनका विश्वास था ‘कि पेरिस में रह कर कलाकारों से सर्म्पक करने और उनसे कुछ सीखने के लिए भी तो थोड़ा बहुत पूर्वाभ्यास या कला के बीज के चाहिए। बीजरुस इन सब बातों से एक दम रहित थी। उन्होंने काफी प्रयत्न किया कि चित्रकला का कुछ अभ्यास किया जा सके और अपने आप को एक छोटे मोटे चित्रकार के रुप में प्रतिष्ठित कर सके, लेकिन बार-बार अभ्यास करने पर भी कुछ सफलता नहीं मिल सकी।

कई दिनों तक अभ्यास करने के बाद भी जब कोई सफलता नहीं मिली तो बीजरुस निराश होने लगी, एक दिन वह निराशा के गहन अन्धकार में डूबी सोप रही थी कि मेरा पेरिस आना र्व्यथ रहा। यहाँ आए कई महीने हो जाने के बाद भी तो सृजन की कोई प्रेरणा, एक दिन वह निराशा के गहन अन्धकार में डूबी सोच रही थी कि मेरा पेरिसा आना र्व्यथ रहा। यहाँ आए कई महिने हो जाने के बाद भी तो सृजन की कोई प्रेरणा, का कोई मूर्त रुप सामने नहीं आ सका है। उन्हें पेरिस आये कई महीने हो चुके थे। आते समय यह सोचा था कि वहाँ के कलात्मक वातावरण में कई विषय मिलेंगे बैठी रहती थी और फिर उसे ज्यों का त्यो रख देती थी, उस दिन वह बहुत ब्लास और उदास थी। रात को सोने से पहले भी उन्हें घनघोर उदासी घेरे हुई थी।

इसी निराशा, हताशा और उदासी के बीच कब नींद आ गई ? कुछ पता नहीँ चला। उदासी के बीच, निराशा और थकान में डूबी वीजरुस को गहरी नींद आ गई ओर जब वह गहरी नींद में सो गई तो उन्हें लगा कि कोई अज्ञात शक्ति उन्हें झिझोड़ कर उठा रही है। वह परवशसी नींद में सोते हुए ही स्टुडियों की ओर चल पड़ी। वीजरुस को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्यों और कैसे हो रहा है ? स्टूडियो में आकर उन्होंने अंधेरे में कागज पर बु्रश चलाना शुरु कर दिया। उन्होंने पाया कि उनके हाथ बड़ी तेजी से चल रहे है और उन्हें अपने चित्र के बारे कुछ भी नहीं मालूम है। उन्हें लग रहा था कि कोई अज्ञात शक्ति उन्हें माध्यम बना कर अपनी मन चाही कलाकृति का सृजन करा रही है, और जो कुछ भी घट रहा है, उस पर उनका कोई वश नहीं है। कुछ देर बाद बीजरुस के हाथ अपने आप रुक गये, लगा चित्र पूरा हो गया है और वह जिस तरह बिस्तर से उठ कर स्टूडियो तक आई थी, उसी प्रकार वापस चलती हुई बेडरुम में पहुँच गई और बिस्तर पर सो गई।

सुबह उठते ही बीजरुस को रात वाली घटना याद आई। उन्होने स्टूडियो में जाकर देखा तो दंग रह गई। वह समझ ही न पाई कि बिना किसी प्रेरणा के बिना किसी अनुभव के और बिना किसी प्रेरणा के बिना किसी अनुभव के और बिना कुछ सोचे विचारे योजना बनाए इतना सुन्दर चित्र कैसे बन गया है ? चित्र सचमुच इतना उत्कृष्ट और असाधारण रुप में सुन्दर था कि उस की मुँह माँगी कीमत मिल सकती थी। पर बीजरुस को इससे ज्यादा यह जानना आवश्यक लग रहा था कि इस कलाकृति का निर्माण कैसे हो गया ? सारा दिन इस उधेड़बुन में लग गया। अगली रात फिर वैसी ही घटना घटी। अब तो बीजरुस की हैरानी को कोई ठिकाना नहीं था। जरुर ही कोई अदृश्य शक्ति उन्हें चित्रकला का अभ्यास करवा रही है।

उन्ही दिनों बीजरुस को एक ऐसी महिला के बारे में पता चला जो किसी भी वस्तु को देखकर या छूकर उसके सम्बन्ध में जानी अनजानी, प्रकट अप्रकट बातें बता सकती थी। बीजरुस ने उस महिला से संपर्क साधा और उस महिला ने कलाकृतियों को छूकर उनका अदृश्य इतिहास बताया। उसके अनुसार बीजरुस को नींद में उठाकर चित्रकला सिखाने वाली शक्ति स्पेन के प्रख्यात चित्रकार गोया की आत्मा थी, जिनकी मृत्यु सन् 1828 में हुई थी। वह अपने जीवन के अन्तिम दिनों में स्पेन स्थित अपने दुश्मनों से मुक्ति पाने के लिए गोया ने फ्राँस के दक्षिणी भाग में स्थित बीजरुस के पति के पूर्वजों के घर में शरण ली थी। वे उन दिनों काफी असहाय थे और मरने से पहले तथा मरने के बाद भी उनक हार्दिक आँकाक्षा रही थी कि वे मि. रुस के पूर्वजों के एहसास का बदला किसी प्रकार चुकाए। जिन लोगों के घर में गोया ने अपने जीवन के संध्याकाल में शरण प्राप्त की थी, उन्हीं के वंश की बीजरुस को कष्ट में देखकर गोया ने धन की सहायता करने का निश्चय किया और इस प्रकार निद्रित अवस्था में बीजरुस की सहायता की तथा उन्हें मार्गदर्शन दिया।

उदार और सहृदय व्यक्ति मरने के बाद भी अपने स्वभाव की इन विशेषताओ के अनुरुप औरों का हित साधन करते रहते है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि दुष्ट आत्माएँ अपनी दृष्टता और कुसंस्कारो, परपीड़क वृत्ति के कारण मरने के बाद भी भूत प्रेत बन कर दूसरे लोगों को कष्ट पहुँचाती रहती है। उदार सहृदय और सद्भाव सम्पन्न आत्माओं को ही तत्व दश्ियों ने पितर और देव आत्माएँ कहा है। उनका सहयोग और मार्गदर्शन हर कोई प्राप्त कर सकता है और वे इसके लिए आतुर तथा उत्सुक भी रहती है।

राजा शतनीक बहुत दानी था। किन्तु वह प्रजा के कष्टों के निर्धारण की ओर समुचित ध्यान न देता था। उसके बाद उसका पुत्र सहस्त्रानोक राजा बना वह तत्ववेत्ता एवं कर्त्तव्य निष्ठ था किन्तु ब्राह्मणों को दान बहुत कम देता था। एक बार ब्राह्मणों के प्रतिनिधि राजा सहस्त्रानीक के पास पहुँचे वे उसके पिता को दान परम्परा का ध्यान दिलाते हुए उससे भी उसी परम्परा को आगे बढ़ाने का आग्रह किया। सहस्त्रोनीक ने कहा ‘यदि परलोक विद्याविद् कोई योगी यह बता सके कि दानशील मेरे पिता इन दिनों उस पुण्य के क्या सुफल पा रहे है, तो मैं आप लोगों को अवश्य दान दूँगा। मेरी बुद्धि के अनुसार तो मैं जो न्याय दान कर रहा हूँ वह राजोचित दान है। राजा की बात सुन ब्राह्मणों ने देखा कि ऐसे योगी से सर्म्पक किया जाये जो स्वर्गीय नरेश का अता-पता बता सके।

बहुत प्रयास के बाद एक आरण्यकवासी तपस्वी ऋषि इस हेतु सहमत हुए। दिव्य शक्ति से सुक्ष्म शरीर द्वारा उन्होंने लोकान्तर भ्रमण किया और वहाँ दिवंगत नरेश शतानीक की स्थिति जानी। नियत समय पर सभा में सबके समक्ष वह विवरण रखना तय हुआ था।

निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सभी जुटी। राजा, राजकर्मचारी, ब्राह्मण वर्ग एवं नागरिकगण विशाल सख्या में उपस्थित थे। दिव्य योगी ने बताया “यद्यपि राजा शतानीक ने ब्राह्मणों के निर्देशानुसार 16 प्रकार के महादान दिये थे, ब्राह्मणों को रत्न वस्त्र दिया था। किन्तु वे नरक त्रास भोग रहे है। क्योंकि यह धन उन्होंने प्रजा को उत्पीड़ित कर संचित किया था। राजा का प्रथम कर्त्तव्य प्रजा का योग्य परिपालन है। वैसा करते हुए ही सुयोग्य ब्राह्मणों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है। धन बाँटना ब्राह्मणों का सच्चा सम्मान नहीं, राजा का यक्षलोभ था, लोकेषणा थीं दुःखी राजा के बेटे को सन्देश भेजा है कि मेरी गलती न दुहराना और प्रजा के परिपालन के कर्तव्य की ओर प्रथमतः ध्यान देना।


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