भावनाओं में घुला हुआ विष और अमृत्

January 1980

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मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करने वाली, उसे विशिष्ट सिद्ध करने वाली को चीज इस शरीर में है तो-मस्तिष्क, जहाँ विचार, कल्पनाएँ, इच्छाएँ और भावनाएँ सबसी है।

शरीर के अन्य किसी अवयव में इतनी सक्रियता, सम्वेदनशीलता औी नेनापन नहीं होता, जितना कि मस्तिष्क में। उसकी विशेषताओं के कारण ही मस्तिष्क को मानवीय-सत्ता को केन्द्र-बिन्दु आधार माना गया है। रेलगाड़ी में जो महत्व इज्नन का है, वही महत्व मानव-शरीर में मस्तिष्क का है। इसीलिए मस्तिष्क को हड्डियों से बनी एक पिटारी में रखी लुगदी की-छोटी-सी टोकरी को समस्त ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता के विकास का आधारभूत केन्द्र कहा गया है। जब किसी को बहुत अधिक पक्ष-पोषण दिया जाता है तो यही कहा जाता कि उसे सर पर बिठा लिया गया। सर्वाधिक सम्मानित व्यक्तियों के लिए सरताज सम्बोधन का उपयोग अकारण या निरर्थक ही नहीं है। यह सम्बोधन विशेषण मस्तिष्क के, सिर के महत्व को ही प्रतिपादित करते है।

वैज्ञानिकों ने जैसे-जैसे इस रहस्य पिटारी का, मानवीय सत्ता की आधार भित्ति का, मनुष्य अस्तित्व के केन्द्र-बिन्दु का अध्ययन किया, वैसे-वैसे वे चमत्कृत होते गये और यह सिद्ध होता गया कि शरीर के अन्यान्य अंग अवयवों में जो गतिशीलता दिखाई पड़ती है, वह उन अंगों की अपनी स्वयं की ही नहीं है, बल्कि मस्तिष्क उन पर पूरी तरह नियन्त्रण रखता है। अंगो के संचालन और नियमन की प्रेरणा उसे उन्हें मस्तिष्क से ही मिलती है। विचार, इच्छाएँ, कल्पनाएँ, वासनाएँ और भावनाएँ आदि मस्तिष्क में ही उत्पन्न होती है। इन प्रेरणाओं के सम्बन्ध में पिछले दिनों कई नये तथ्य प्रकाश में आये है। उदाहरण के लिउ मस्तिष्क शरीर की विभिन्न गतिविधियों और क्रियाकलापों का नियमन नियन्त्रण तो करता ही है, उसमें उठने वाली भावनाएँ भी शरीर को असाधारण रुप से प्रभावित करती है।

जीव-विज्ञान के विश्लेषणानुसार शरीर में दो तरह के स्नायु होते है, एक ऐच्छिक और दूसरा अनैच्छिक। शरीर में सभी भीतरी ओर बाहरी क्रियाओं का संचालन स्नायुओं द्वारा होताँ ऐच्छिक स्नायुओं से इच्नानुसार काम लिया जाता। उदाहरण के लिए चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोला, बात कराना, हाथ पैर हिलाना आदि क्रियाएँ ऐच्छिक होती है और इनका सम्पादन ऐच्छिक-स्नायुओं द्वारा ही होता है। इन स्नायुओं द्वारा हृदय की धड़कन, फेफड़ो द्वारा श्वास-प्रश्वास की क्रिया, पाचन-क्रिया, गुर्दों कि क्रिया आदि क्रियाकलाप सम्पन्न होते है।, जिन पर मनुष्य की इच्छा-अनिच्छा का को प्रभाव नहीं पड़ता। यह स्नायुओं का नियन्त्रण मस्तिष्क भूमिका निवाहते है। इन स्नायुओं का नियन्त्रण मस्तिष्क में स्थित ‘हाइपोथैल्मस’ नामक केन्द्र द्वारा होता है। भावनाएँ इसी केन्द्र द्वारा अपना प्रभाव डालती या उत्पन्न करती है।

कहा जा चुका है कि ‘हाइपोथैल्मस’ केन्द्र से मनुष्य शरीर को अनैच्छिक गतिविधियाँ नियन्त्रित होती है। और भावनाएँ उसी केन्द्र को प्रभावित करती है। इसलिए इनके द्वारा अनैच्छिक-क्रियाओं पर, जो शरीर और जीवन-रक्षा के लिए आवश्यक है, प्रभाव पड़ना स्वाभविक है। पिछले तीस वर्षो में मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए अनेकानेक अनुसन्धानों से यह प्रमाणित हो गया है कि भावनाओं के द्वारा कई रोग उत्पन्न होते है, वहीं यह भी सिद्ध हा गया है कि मस्तिष्क को यदि ठीक ढंग से प्रशिखित किया जा सके, विचार पूर्वक नियन्त्रण द्वारा उसका उपयोग किया जा सके तो शरीर-स्वास्य एवं जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आर्श्चयजन सफलताएँ प्राप्त की जा सकती है।

वैज्ञानिक विश्लेषणों के अनुसार प्रत्येक प्रौढ़-मस्तिष्क 20 वाट विद्युत-शक्ति से चलता है। मस्तिष्क के कुछ कोषाणु विशेष रुप से इस बिजली को उत्पन्न करने का काम करते है और शेष उनका उपयोग करके अपना काम में ग्लुकोज और आक्सीजन का रासायनिक-ईधन जलता है तथा उसकी ऊर्जा बिजली के रुप् में परिवर्तित होती है। उस बिजली के रुप् में परिवर्तित होतीं। उस बिजली से कोषाणुओं का काम-चलाऊ मात्रा में शक्ति प्राप्त होती है और यदि वह अनावश्यक मात्रा में बन जाती है तो स्वयमेव विसर्जित हो जाती है। उसका उपयोग विसर्जन मानिसिक-क्रियाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है। इलेक्ट्रोऐन्सी-फेलोग्राफ से यह जाना जा सकता है कि उत्पन्न हुई मानसिक विद्युत का उपयोग और उपभाग कहाँ हो रहा है। इसमें घट-बढ़ हो जाने से मानसिक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। यों भी कहा जा सकता है कि मानसिक-सन्तुलन गड़बड़ाने से इन विद्युत-धाराओं में गड़बड़ी उत्पन्न होने लगती है।

भावनाएँ मानवीय-मस्तिष्क को अनेक प्रकार से प्रभावित करती है। हाल ही की हुई स्नायु विज्ञान-सम्बन्धी खोजों से यह भी सिद्ध हुआ है कि इनके कारण मस्तिष्क में ऐसे रसायन उत्पन्न होते है, जो विषय जैसा प्रभाव भी छोड़ते है और जीवन-रस भी प्रदान करते है। मस्तिष्क-विज्ञानियों का कथन है कि स्नायु-तन्त्र का संचालन केवल मस्तिष्क में उतपन्न होने वाली विद्युतधारा से ही नहीं होता है बल्कि उनके संचालन से रासायनिक तत्व भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इस आधार पर अब यह प्रयास किए जा रहे है कि भावनाओं और रसायनों का सम्बन्ध खोजकर, विशिष्ट रसायन को मस्तिष्क के अमुक भाग में पहुँचा कर व्यक्ति को दर्द से छुटकारा दिलाया जा सके, मनोरोगों की चिकित्सा की जा सके और उसकी बौद्धिक-क्षमताओं को प्रखर बनाया जा सके।

इन रसायनों के प्रयोग द्वारा मनुष्य की आदतें बदलने, नशे की लत छुड़ाने तथा उसका व्यवहार तक बदल डालने के प्रयोग किये जा सकते है यह सम्भवानाएँ आगे की है। फिलहाल तो यही माना जा रहा है। कि अमुक प्रकार की भावनाओं से मस्तिष्क के विशिष्ट केन्द्रों में अमुक प्रकार के रसायन उत्पन्न होते है और पूरे शरीर-तन्त्र को प्रभावित करते है। मस्तिष्क में विद्यमान न्यूटोने कोशिकाएँ कुछ विशिष्ट रसायन छोड़कर सूचनाओं का आदान-प्रदान करती है। इन सन्देशवाही रसायनों को ‘न्यूरेट्रोसी मीटर’ कहा जाता है की खोज हुई है, जिसे ‘पेप्टाइन’ कहते है। इस वर्ग के रसायन प्रोटीन के छोटे-छोटे कण होते है। इनमें से कुछ एमीनों एसिड की सीधी लड़ में एक दूसरे से जुड़ रहते है। कुछ पेप्टीइड हारमोन होते है, ये लड़े या जुड़ी हुई कोशिकाएँ अनेक तरह से जुड़ी रहती है।

इन रसायनों के उत्पादन और नियन्त्रण पर भावनाओ, उद्वगों और मनःस्थितियों का बड़ा प्रभाव पड़ता हैं। मस्तिष्क इस प्रकार के नियन्त्रण हारमोन स्वयं ही उत्पन्न करता है। स्टेन्फोर्ड विश्व-विद्यालय के औषधि-विशेषज्ञ आवारामगोल्ड स्टीन ने पिछले दिनों इस विषय में कई प्रयोग किये कि रसायनों का मस्तिष्क के किस भाग पर प्रभाव पड़ता है अथवा किन मनःस्थितियों में मस्तिष्क किन रसायनों का उत्पादन करता है। डा. गोल्ड स्टोन ने पहले चूहों, पर बन्दरों प्श्र और बाद में मनुष्यों पर प्रयोग किये । प्रयोगों से गोल्ड स्टीन इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि मध्य-मस्तिष्क का वह भाग, जहाँ से भावनाओ का नियन्त्रण होता है, वहाँ इस तरह के कोश होते है, जिनसे कई तरह के रसायन उत्पन्न होते है अथवा उस केन्द्र पर किसी प्रकार कोई रसायन पहुँच जाता है तो वैसी मनःस्थिति उत्पन्न होती है। इस तथ्य को यों भी समझा जा सकता है कि मीठा बनाते है अर्थात् पानी में ऐसे तत्व उत्पन्न हो जायँ, जो मीठेपन के उत्पादक हों तो पानी मीठा हो जाता है अथवा पानी में कोई मीठा तत्व घोल दिया जाये तो पानी मीठा हो जाता है।

मस्तिष्क में भावनाओं और मनःस्थितियों की उत्पत्ति तथा रसायनों का जन्म भी इसी प्रकार अन्योन्याश्रित हैं। किसी कारण शरीर में कहीं असामान्य स्थिति उत्पन्न होती है और पीड़ा या वेदना उत्पन्न होती है तो उस पीड़ा से राहत पाने की उत्कण्ठा मध्य-मस्तिष्क में ऐसे रसायन उत्पन्न होने की परिस्थितियाँ बनाती है, जो बहुत कुछ मारफीन या कोडीन जैसा होता है। पर यह भी देखा गया है कि पीड़ा की अनुभूति से मुक्ति पाने के लिए ऐसी औषधियों का प्रयोग कारगर होता है, इसका यही कारण है कि भावनाएँ और मस्तिष्कीय-रसायन एक दूसरे के उत्पादक-कारण है। किन्तु भावनाओं द्वारा स्वयमेव जो रसायन उत्पन्न होते है तथा उनसे शरीर की स्थिति में जो परिवर्तन होते है, वे अधिक उपयोगी और निरापद होते हैं। बाहरी उपचारों द्वारा इस तरह के रसायन पहुँचाने से उनके हानिकारक प्रभाव ही होते है। उदाहरण के लिए दर्द से मुक्ति दिलाने वाले बाहृयकारक रसायन पाचन-शक्ति पर बुरा प्रभाव डालते है और शरीर उनका आदि बन जाता है तथा उनसे छुटकार पाने मं परेशानी अनुभव होती है। वैज्ञानिकों ने पहले यही सोचकर प्रयोग किये थे कि रसायन ही भावनाओ का उत्पन्न और प्रभावित करते है।

अफीम और उससे बने पदार्थो द्वारा इस तरह के प्रयोग किये गये। पीछे यह प्रश्न उठा कि प्रकृति ने मस्तिष्क के कोशों में इस तरह की व्यवस्था क्यों की है ? शरीर की प्रकृति, प्रतिकूल या विजातीय तत्वों को बिलकुल सहन नहीं करती। प्रथम तो इस तरह के तत्वों को प्रवेश ही नहीं करने देते और किसी तरह प्रविष्ट हो भी जाते है तो उन्हें मार भगाते है या उनसे लड़ते-लड़ते स्वयं ही नष्ट हो जाते है। इस स्थिति में यह प्रशन उठना स्वाभाविक हे कि अफीम जैसा बुरा प्रभाव डालने वाले तत्वों को शरीर या मस्तिष्क किस प्रकार सहन कर लेता है ? इस प्रश्न के उत्तर की खोज में परीक्षण किये गये और यह तथ्य सामने आया कि अफीम से बने रसायन या उससे मिलते-जुलते रसायन से मस्तिष्क स्वयं ही बनाता है। भावनाएँ इन रसायनो को उत्पन्न करने में सहायक या उत्प्रेरक का काम करती है। मस्तिष्क के कोशों की व्यवस्था इन्हीं रसायनों को ग्रहण करने क लिए है। हर पीड़ा और दर्द-निवारक रसायनों क अणु मस्तिष्क द्वारा बनाये गये रसायनों के अणुओ से कई अर्थो में मिलते-जुलते है और इसी कारण बाहरी रसायनों को थोड़ी-सी समानता के आधार पर मस्तिष्क स्वीकार कर लेता है या बाहरी रसायन वहाँ घुसपेंठ कर अपना आधिपत्य जमा लेते है तथा वहाँ के उत्पादन केन्द्र को शिथिल या निष्क्रिय कर देते है।

बाहरी स्त्रोतों से पहुँचने वाले इन रसायनों का दुष्प्रभाव तो पड़ता ही है। मस्तिष्क अपनी व्यवस्था आप कर लेता है। उस व्यवस्था का आधार है-भावनाएँ भावनाओं के द्वारा मनःस्थिति और शरीर-स्थिति किसी प्रकार प्रभावित होती है ? इसका एक प्रमाण अन्तःस़्त्रावी ग्रन्थियों द्वारा छोड़े जोने वाले स्त्राव से भी मिलता है।

मनुष्य-शरीर में सात अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ होती है, जो कि सीधे ही अपने स्त्राव रक्त में मिला देती है। ये हारमोन्स शरीर में अनेक चमत्कारपूर्ण कार्य करते है। शरीर की प्रत्येक क्रिया को और मनुष्य के पुरे व्यक्तित्व को ये प्रभावित करते है। ये ग्रन्थियाँ बारह से भी अधिक प्रकार के हारमोन्स छोडती है। जब शरीर पर किसी रोग या कीटाणु का आक्रमण होता है तो इन ग्रन्थ्यों से कुछ ऐसे हारमोन्स पैदास होते है, जो रक्तकणों में कीटाणुओं से लड़ने की शक्ति उत्पन्न करते है और स्वयं भी कीटाणुओं से लड़ते है। इस प्रकार शरीर युद्ध क्षेत्र बन जाता है। रुग्णावस्था में जो बेचैनी, क्षोभ और अशान्ति उत्पन्न होती है, उसका यही कारण है। भावनाओं का ज्वार आने प्श्र भी ये अन्तःस़्त्रावी ग्रन्थियाँ कुछ विशेष प्रकार के हारमोन्स छोड़ती है। ये हारमोन्स शरीर पर भावनाओ के पड़ने वाले भलेबुरे प्रभाव से संघर्ष करते है और उसी कारण हर्ष, उत्साह अथवा क्लान्ति और थकान जैसे लक्षण उत्पन्न होते है।

मस्तिष्क इस प्रकार प्रकृति को श्रेष्ठतम कलाकृति है। वह प्रतिकुल परिस्थितियों से संघर्ष के लिए , यथासम्भव प्रयन्त्न करता है। किन्तु कितना अच्छा हो, यदि हम मस्तिष्कीय-शक्तियों को प्रतिकुल परिस्थितियों से लड़ने में अपनी शक्ति नष्ट करने से बचाने का प्रशिक्षण देते हुए उसे उच्च् प्रयोजनों में लगाएँ।


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