निकट भविष्य की अशुभ सम्भावएँ

January 1980

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सन् 1957-59 के सौर-सक्रिय वर्ष में 12 अक्टुबर 1985 को सूर्य ग्रहण पड़ा था। उस स्थिति के अध्ययन के लिए अमेरिका तथा रुस ने महत्वपूर्ण राकेट छोड़े थे। उस अध्ययन का निर्ष्कष यह था कि ग्रहण के समय जैसे-जैसे सूर्य ढकता जाता है, पृथ्वी पर पड़ने वाला अल्ट्रावालेट किरणों का प्रभाव कम होता जाता है। जीव-जन्तु चूँकि प्रकृति के बहुत समीप होते है, अतएव उनके रहन-सहन में अचानक परिवर्तन का कारण यही परिवर्तन हो सकता है।

ग्रहण की सम्भावना कब होती है ? इसका सामान्य नियम यह है कि पूर्णिमा समाप्ति के समय चन्द्रमा यदि राहु या केतु से 13 अंश से अधिक दूर हुए तो सूर्य-ग्रहण होता है । एक वर्ष में इस प्रकार अधिक से अधिक 7 ग्रहण पड़ते है, जिनमें से 4-5 सूर्य-ग्रहण और 2-3 चन्द्र-ग्रहण हो सकते है। एक सौर वर्ष में यदि दो ही ग्रहण पड़ते है तो वे दोनों सूर्य-ग्रहण ही ज्यादा दिखाई देता है। इसका कारण चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य का आकार में एक दूसरे से छोटा-बड़ा होना है।

खग्रास सूर्य-ग्रहण के समय करीब 8 मिनट तक सूर्य पूरी तरह छूप जाता है अर्थात्-चन्द्रमा की ओट में जाता है। जिस समय यह ग्रहण आरम्भ होता है, उस समय सूर्य-बिम्ब पर एक ओर से कालपान बढ़ता आरम्भ होता है। उस समय वातावरण का तापमान कम होने लगता है, आकाश में कालिमा फैलने लगती है। पक्षी व प्राणी रात होने जैसी स्थिति में घर वापिस लौटने लगते है। उस समय सूर्य-बिम्ब तो पूरी तरह चन्द्रमा की ओट में आ जाता है, परन्तु उसके चारों ओर फैला रहने वाला तेजपुज्ज, जिसे कारोना कहते है, बड़ा विलक्षण प्रतीत होता है। यह कारोना केवल खग्रास सूर्य-ग्रहण के समय ही देखा जा सकता है।

16 फरवरी 60 को मध्यान्ह तीन बजकर 36 मि. से यह अद्भुत सूर्य-ग्रहण प्रारम्भ होगा और 4 बजकर 1 मिनट तक चलेगा। इस बीच तीन मिनट तक सूर्य पुरी तरह चन्द्रमा की छाया से ढका रहेगा। उस समय सधन अन्धकार छाया होगा। लगेगा-रात्रि हो गई। दिन में तारे दीखने जैसी स्थिति उस समय बन जायगी। पक्षी घोंसलों में जा घुसेंगे और कितने ही प्राणी अपना सामान्य सन्तुजन खोकर चित्र-विचित्र क्रियाएँ करने लगेंगें।

इस शताब्दी में यों और भी कई खग्रास सूर्य-ग्रहण पड़े है, पर वे सभी केवल समुद्र में ही देखे जा सकते थे। मात्र यही एक ऐसा है, जो पृथ्वी पर-भारत में स्पष्टतया देखा जा सकेगा। चन्द्रमा की छाया दक्षिणी अटलाँटिक महासागर से आरम्भ होगी और सूर्य छिपने तक दक्षिणी-चीन में दृष्टिगोचर होती रहेगी। भारत-इसके मध्य में ही आता है। इस रुप में यह ग्रहण 700 वर्ष बाद दृष्टिगोचर होगा।

ऐसे समय में अन्तरिक्ष में आच्छादित एक्स किरणों और पराबैंगनी किरणों के स्तर एवं प्रवाह में असाधारण परिवर्तन होता है। ऐसे परिवर्तन पृथ्वी निवासियों की मन’ स्थिति और परिस्थिति का असाधारण रुप में प्रभावित करे तो इसमे कुछ भी आर्श्चय की बात नहीं है।

भारतीय वैज्ञानिकों ने गुब्बारे, राकेट तथा आधुनिक उपकरणों की सहायता से इस घटना का अध्ययन करने की तैयारी प्रारम्भ कर दी है। विदेशी वैज्ञानिक भी इसका अध्ययन करने के लिए भारत के प्रमुख स्थानों में अपने शिविर लगायेंगे, जिससे कि सही प्रकार से पूर्ण सूर्य-ग्रहण का अध्ययन कर सकें।

इन पक्ितयो में मुख्य चर्चा भावी सूर्य-स्फोटों की पृथ्वी पर होने वाली प्रतिक्रिया की चर्चा की जा रही है, क्योंकि बड़ी विभीषिक वही है। अभी कुछ ही दिनो में आने वाली 16 फरवरी 60 के खग्रास सूर्य-ग्रहण की चर्चा तो इस सर्न्दभ में की गई है कि जब छाया पड़ने से उत्पन्न व्यतिवम कई प्रकार की विभिषिकाएँ उत्पन्न कर सकते है तो स्फोटों के कारण होने परिवर्तनों की प्रतिक्रिया किस स्तर की हो सकती है ? फलित ज्योतिषियों ने इसी फरवरी वाले ग्रहण को अशुभ बताया है, उसे न देखने के लिए कहा है उसका प्रतिफल कई अनिष्टीं के रुप में बताकर, उप समाधान को उपसनात्मक उपचारों से बताया था। यदि कुछ ही समय रहने वाला, यह छाया-प्रभाव इतना चिन्ताजनक है तो स्फोटों का वह प्रभाव-जो अन्तरिक्ष के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करेगा, और भी अधिक विचारणीय होना चाहिए।

सन् 81 के सूर्य-कलंकों पर इन दिनों विश्व भर के अन्तरिक्ष-विज्ञानी गम्भीरता पूर्वक विचार कर है और इस निर्ष्कष पर पहुँचने का प्रयत्न कर रहे है कि उनकी प्रतिक्रिया किस क्षेत्र पर क्या हो सकती है। और उसके लिए सुरक्षात्मक तैयारी क्या की जानी चाहिए ?

इस सर्न्दभ में सर्वसाधारण की अधिक जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। जिस संकट से मनुष्यों समेत समस्त जीवधारी और पदार्थ प्रभावित हो सकते है, उसके सम्बन्ध में अधिक जाने की अभिरुचि का बढ़ना सामान्य बात है। विस्तृत विवरण तो विज्ञानवेत्ता ही अपने प्रतिवेदनों में प्रस्तुत कर सकते है, पर सामान्य जानकारी के रुप में स्फोटो का सामान्य स्वरुप और इनका प्रभाव संक्षेप में यहाँ भी समझाया जा सकता है।

सूर्य-पिंड पृथ्वी से 330 हजार गुना अधिक बड़ा तथा कुल ग्रहों के पिण्डों के योग से 750 गुना अधिक बड़ा है। यही कारण है कि भारी सूर्य को उसके चारों और घुमने वाले ग्रह अपने सामुहिक आकर्षण से नहीं हटा पाते।

विज्ञान की दृष्टि में सूर्य केवल वायु पदार्थों से बना एक ज्योतिपिण्ड मात्र है और अन्य ग्रह घने तत्वों प्रभाहशील और वायु-पदार्थों के बने आकाशीय-पिण्ड है। सूर्य पर जितनी गर्मी है, उस गर्मी के अनुपात में अन्य ग्रहो का तापमान और दबाब अत्यन्त कम है और कारण ग्रहों के द्रव्य या तो स्थायी रुप में प्राप्त हुए परमाणुओं की या उनके घटकों की संरचना वाले है। ग्रहों पर भौतिक-प्रक्रियाएँ और रासायनिक संयोजन चलते रहते है। सूर्य में परमाणुओं के आँशिक घटकों की एंव नाभियों की टूट फुट अथवा अति उष्ण तापमान पर सिद्ध हो सके। सुर्य के भीतर प्रबल वायुघनता अन्य ग्रहों की भारी धातुओं से भी अधिक सघन होती है। इसका कारण उन ग्रहों की पारमाणविक संरचना है। सूर्य के अन्तराल में परमाणु अपने स्थायित्व को बनाये नहीं रख सकते, प्रचंड गर्मी व दवाब के कारण टूट जाते है। सूर्य की ऊपरी सतह का द्रव्य उत्तरात्तर गाढ़ा होता जात है। सूर्य त्रिज्या के आधे भाग पर आए हुए द्रव्य का घनत्व पानी जितना गाढ़ापन बताते है, सूर्य के केन्द्र भाग में आए हुए द्रव्य पानी का घनत्व से 75 गुना अधिक होता है। सूर्य के गर्भ पदार्थो का घनत्व शीशे के घनत्व से 11 गुना और पृथ्वी की सर्वाधिक भारी धातु ओसापियम के घनत्व से लगभग चार गुना अधिक होता है। सूर्य के केन्द भाग पर हवा का दवाब पृथ्वी के वायु दवाब से सौ अरब गुना अधिक है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि यह दवाब प्रति वर्ग संटीमीटर आठ करोड़ टन है। इसके अतिरिक्त सूर्य के गर्भ में प्रकाश का दवाब होता यह दवाब बीस लाख टन वर्ग सेंटीमीटर भी होता है।

सूर्य कंलक है क्या ? और उनसे पृथ्वी का किस तरह सम्बन्ध है। सूर्य से पृथ्वी में जो प्रकाश् कण टकराते है उनकी गति से पता चलता है कि उनकी पहुँच सूर्य में 18 से 24 घण्टे पूर्व सूर्य में हुई किसी विस्फोट या प्रज्वलन से होता है । सौर टेलेस्कोपों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि प्रकाश की एक छोटी सी चमकदार बगूली सी उठती है यह किसी काले धब्बे जैसे स्थान से उठती है और कुछ ही क्षणों में विराट् आकार अर्थात लाखों मील व्यास का रुप धारण कर लेती है उसमें असाधारण दिव्यता परिलक्षित होती है मानो आकाश में फुलझडियाँ छूट रही हों यह आधा घण्टे के लगभग ही जीवन धारण करने के बाद ही अदृश्य हो जाता है पर इतनी ही देर में एक्स किरणों इन्फ्रारे अल्ट्रा वायलेट तथा ब्रह्माण्ड किरणों की असीम मात्रा फेंक जाता है, अग्नि शिखाओं के इस उद्धोग का अभी तक भी वैज्ञानिक को निराकरण नहीं कर पाये। किन्तु इनको एक ऐसी खिड़की माना जा रहा है जिसेसे ब्रह्माण्ड को बहुत अच्छी तरह देखा और समझा जा सकता है।

सूर्य स्फोटों के समय के विकिरण का विस्तृत अध्ययन करने के बाद पता चला है कि उस मय उत्सर्जित प्रकाश कण सामान्य प्रकाश कणों से भिन्न और बेधक होते है उदाहरणार्थ एक बार क्लाईमेक्स पर्वत कोलोरेडा (अमेरिका) स्थित वेधशाला की सूचना पर कोलोनिअल अमेरिका जहाज ने जो तरंगी पकड़ी वह सामान्य पराबैंगनी (अल्ट्रा वायलेट) न होकर एक्स किरणें थी और वह इतनी तीव्र थी उनका विस्फोट जहाँ हुआ होगा वहाँ का तापमान न्यूतम 1 करोड़ अंश ऐन्टीग्रेड रहा होगा। सभी जानते हैं कि एक्स किरणों में अन्तःस्थिति के भी फोटो निकाल देने की क्षमता होती हैं।

सूर्य पर होने वाली परमाणु, विखण्डन की प्रक्रिया से जो कास्मिक प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई वह पृथ्वी पर भी अपने सूक्ष्म प्रीव छोड़ती है। वैज्ञानिक यंत्रों की पकड़ में केवल उनका स्थूल स्वरुप ही हैं पर वह भी कम चौंकाने वाला नहीं होता है। उदाहरण के लिए जुलाई 1959 में सूरज पर देखे जाने धब्बों के एक बडे़ समूह वाले क्षेत्र क्रोमोस्फियर की विशाल चमक देखी गई। उसी समय पृथ्वी पर रेडियो सम्बन्धों में शिथिलता अंकित की गई तथा 15-16 जुलाई के मध्य युरोप और अमेरिका के बीच रेडियो सम्बन्ध समाप्त हो गया, टेलीग्राफ के सम्बन्ध भी टूट गये और दूसरे भू भौतिकीय संबंध भी समाप्त हो गये। फिर वायुमंडल की गहरी परतों में 6070 किलोमीटर की ऊँचाई पर पारजंपु विकिरण ने प्रवेश किया जिसके कारण आयोनाइजेशन में अनियमित्ताएँ तथा हृस्व तरंगों की कर्ण गोचरता में कटाव पैदा हो गया। लगभग प्रकाश की गति से दौड़ती हुई कास्मिक रश्मियों के, जो सूर्य में होने वाले विशाल विस्फोटों की उपज थी, निरन्तर होने वाले कास्मिक रेडियेशन में परिवर्तन कर दिया।

सूर्य से पृथ्वी तक आने वाली पदार्थ कणों की धाराएँ पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन करती रहती है क्योंकि उस समय चुम्बकीय आँधियाँ आने लगती है। ऐसे अवसरों पर दिशा सूचक यंत्र की सुई अपने स्वाभाविक स्थान से अनायास ही हटती हुई देखी गई हैं। इन चुम्बकीय आँधियों के प्रभाव के कारण पृथ्वी और धातुपदार्थों पर विशेषतः तारों पर, जिन विद्युत धाराओं का प्रवाह रहता है वे मनमाने ढंग से बदलती रहती है और इतनी अधिक तीव्र हो जाती है कि टेलिग्राफ टेलीफोन के काम में बाधाएँ खड़ी कर देती है। कभी-कभी तो तार द्वारा विद्युत संचार तक असम्भव हो जाता हैं।

यह चुम्बकीय आँधियाँ बार-बार आती रहती है और ध्रुव प्रदेशों में उनका वेग सबसे तीव्र होता हैं। भूमध्य रेखा से ध्रुव प्रदेशो की ओर बढ़ते समय चुम्बकीय आँधियों का सिलसिला बढ़ता ही चला जाता हैं। जिस समय चुम्बकीय आँधियाँ आती है। उस समय ध्रुव प्रकाश भी निश्चित रुप से दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए सन् 1938 के जनवरी माह में जब एक बार अत्यंत तीव्र ध्रुव प्रकाश चमका था जो क्रीमिया और अफ्रीका तक दिखाई दिया, उस समय एक बहुत तेज चुम्बकीय आँधी भी उठी थी जिसने करीब-करीब पूरी पृथ्वी को अपनी लपेट में ले लिया था।

चुम्बकीय आँधियों के आने और धु्रव प्रकाश के उत्पन्न होने का एक ही कारण है और वह है पृथ्वी के वायुमण्डल पर सौर कणों की तीव्रतर वर्षा। स्मरणीय है सूर्य अपनी किरणों के माध्यम से जो कण उत्सर्जित करता है वह वास्तव में विद्युत धारा होती है अर्थात सूर्य रश्मियों के माध्यम से पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी का सूर्य के साथ विद्युतीय सर्म्पक रहता है। इस सम्बन्ध में किये गये कई प्रयोगों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि सूर्य द्वारा उत्सर्जित कणों धारा जो वास्तव में एक विद्युत धारा होती हैं अपने चारों ओर की खाली जगह में चुम्बकीय क्षेत्र पैदा करती है। यह क्षेत्र पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र पर ऊपर से छा जाता है परिणाम स्वरुप चुम्बकीय आँधी पैदा हो जाती है।

सूर्य स्फोटो का गतिचक्र प्रायः 11 वर्ष 1 महीनें एवं 22 वर्ष दो महीने में लौट-लौट कर वापिस आता रहता है। फलस्वरुप उसी क्रम से कितनी ही उलट-पुलट धरती के वातावरण में भी होती रहती है। यह गतिचक्र अन्रु प्राणियों में एवं वृक्षों में भी पाया जाता हैं। सालमन मछली पर हर साड़े नौवे वर्ष ऐसा उन्माद चढ़ता है कि वह मछुओ के जाल पर दौड़ दौड़ कर कूदती हैं और बेमौत मरती हैं। कुछ पेड़ों की छाल भी ऐसी ही नियत अवधि पर साधारण की अपेक्षा अधिक मोटी होती देखी गई हैं।

पृथ्वी का जीवन सौर मंडल के परिवर्तनों से आबद्ध है इस तथ्य को अति प्राचीन काल से स्वीकारा गया है मिश्र में सिंचाई के समय एक त्यौहार मनाया जाता हैं यह उस दिन मनाया जाता हैं जिस दिन जुलाई माह में नील नदी में एकाएक बाढ़ आ जाती है। लम्बे समय तक के अध्ययन के बाद यह पाया गया कि बाढ़ ठीक उसी दिन आती हैं जिस दिन सूर्योदय के ठीक समय लुब्धक तारा दिखाई देता हैं इसका अर्थ यह हुआ नील नदी का परिवर्तन किसी न किसी रुप में लुब्धक के जीवन से जुडा हुआ हैं। यों एस्टोनोमी (खगोल विद्या) और एस्टोलाजी (फलित ज्योतिष) के मध्य तीर तुक्का जैसा संबंध है गणित एक विज्ञान है और फलित परिकल्पना। फिर भी जब दोनों कभी एक ही निर्ष्कष पर पहुँचते हों तो तथ्यों को बल ही मिलता है। सूर्य पर अगले दिनों उभरने वाले धब्बों की विभीषिका साथ ही खग्रास सूर्य ग्रहण की प्रतिक्रिया इसके अतिरिक्त एक राशि पर छः ग्रहों की युति उपस्थिति को देखते हुए उन आशंकाओं की परिपुष्टि हो जाती है जो भविष्य की विभीषिकाओं के संबंध में सतर्क करती है, और सुरक्षा की व्यक्तिगत एवं सामूहिक व्यवस्था बनाना सम्भव हो तो उसके लिए प्रोत्साहित करती है।

साप्ताहिक हिन्दुस्तान के गत 5 अगस्त अंक में इन ज्योतिषियो की भविष्य वाणियाँ छपी हैं। इनमें शनि राहु की सिहस्थ युति-मकर राशि में चन्द्र सूर्य, मंगल, बुध की युति मेष राशि में शुक्र, मंगल, बुध सूर्य की युति कर्क राशि में गुरु, बुध चन्द्र सूर्य की युति-एवं सिंह राशि पर छः ग्रहों की युति का उल्लेख करते हुए दैवी प्रकोप, युद्ध, महामारी, आक्रोश, असन्तोष विग्रह, दुर्भिक्ष आदि विपत्तियों की आशंका व्यक्त की हैं और कहा हैं कि ऐसा विचित्र योग संयोग लगभग 150 वर्ष बाद आया है।

यूरोप भर में चमत्कारी दिव्य पुरुष के रुप में माने गये अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न एक व्यक्ति हुए है-नोस्ट्राडेमस। वे 1503 में फ्राँस के एक कस्बे में जन्में। बचपन से ही भविष्यवाणी करने और उनके अक्षरशः सही निकलते रहने के कारण उनकी ख्याति युरोप भर में फैल गयी और तत्काल शासनाध्यक्ष एवं मूर्धन्य व्यक्ति उनसे भविष्य जानने के लिए आते रहे। कथन सही होते रहने के कारण अपने समय के वे दिव्यदर्शी गिने गये। उनकी सामयिक भविष्य वाणीयाँ सही होने के कारण दूरगामी भविष्य के संबंध में भी उनके कथन प्रतिपादनों को अभी भी सच निकलने पर विश्वास किया जाता है।

नोस्ट्राडेमस की एक-एक सौ भविष्य वाणियों की चार पुस्तकें प्रकाशित हुई है इन चारों भागो का नाम ‘शतियाँ’ है। इनमें वर्तमान शताब्दी में घटित होने वाले घटनाक्रम का भी उल्लेख है और वह अक्षरशः सही उत्तर रहा हैं। उनके एक भविष्य कथनों का कुछ उल्लेख जर्मनी से प्रकाशित एक पुस्तक “दी फ्यूचर आफ ह्यूमनिटी” में हुआ हैं। उसके अनुसार बीसवी सदी के अन्तिम वर्ष प्रकृति प्रकोपों और मानवी विग्रहों से भरे हुए है। इसमें दैवी दुर्घटनाओं से लेकर मनुष्य कृत उपद्रवों के कारण और स्वरुप बताते गये है। इस डरावने प्रतिपादन के साथ एक आशा किरण का भी संकेत है। वह यह कि भारत के हिमालय क्षेत्र से उसी अवधि में नवयुग के सृजन का एक प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होगा और वह समस्त मानव जाति को सत्प्रवृतियाँ अपनाने की प्रेरणा देगा। इन दिनों घटित हो रहे घटनाक्रमों के साथ इन भविष्य वाणियों और सौर मण्डल की अदृश्य परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा कर विचार किया जाता है तो लगभग एक जैसे ही निर्ष्कष निकलते हैं।

भविष्य कथनों की श्रृंखला में ब्रिटेन के सात जनरलों और राजनायिकों द्वारा लिखित एक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं ‘ थर्ड वर्ल्डवार एवं फ्यूचर हिस्ट्री।’ इसमें अगले दिनों तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावना का उल्लेख है कहा गया है कि यह युद्ध ईरान पर किसी अरब देश के आक्रमण से आरम्भ होगा और छः सप्ताह चलेगा। इस थोड़ी अवधि में प्रलय जैसे महा विनाश का संकेत हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय, राजनैतिक, आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक एवं चारित्रिक गति प्रवाह जिस दिशा में चल रहा है उससे निकट भविष्य में दुर्दिनों की सम्भावना का आभास मिलता है। इसके साथ यदि अन्तरिक्षीय परिवर्तनो को सामने रखकर विचार किया जाता है तो अशुभ सम्भावनाएँ सामने आती हैं। ऐसी अशुभ जिनके संबंध में गम्भीर विचार करने की आवश्यकता है। नियति कितनी ही अप्रिय क्यों न हो मानवी पराक्रम उससे जूझने और कारगर परिवर्तन करने में समर्थ हो सकता हैं।


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