अपना र्स्वग स्वयं ही बनाएँ

January 1980

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र्स्वग एक ‘ उपलब्धि’ मानी गई है, जिसे प्राप्त करने की इच्छा प्रायः हर मनुष्य को रहती है। कई लोग उसे संसार से अलग ही भी मानते है और विश्वास करते है कि मरने के बाश्द वहाँ पहुँचा जाता है या पहुँचा जा सकता है। इस मान्यता के अनुसार लोग र्स्वग प्राप्त करने के लिए जप, तप, पूजा, पुण्य परमार्थ और साधना उपासना भी करते है। इस पृथ्वी से अलग ही अन्यान्तर लोक में र्स्वग जैसै किसी स्थान का अस्तित्व है, अथवा नहीं, यह विवाद का विषय है। पर उसे प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य के आगे बढ़ने की आकाँक्षा को द्योतक है जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता।

मनुष्य की यह इच्छा स्वाभविक ही है जिस स्थान पर वह है, उससे आगे बढ़े। वह उन वस्तुओं को प्राप्त करे, जो उसके पास नहीं है। मनुष्य जन्म के रुप् में उसे संसार तो मिल चुका, जहाँ सुख भी है और दुःख भी, अनुकूलताएँ भी है तथा प्रतिकूलताएँ भी। लेकिन मनुष्य की इच्छा रहती हे कि दुःख, कष्टों और प्रतिकुलताओं से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहे। यह अधिकाधिक सुखी, सन्तुष्ट और सुविधा-समपन्न स्थिति को प्राप्त करे। यह स्थिति जीते-जी प्राप्त हो जाय अथवा मरने के बाद यह अलग विषय है। लेकिन आस्तिक और सरलविश्वासी व्यक्तियों से लेकर बुद्धिजिवी, हर वस्तु और विषय को तथ्य और तर्क की तराजू पर तोलने वाले परिष्कृत बुद्वि के यहाँ तक की नास्तिक और अश्रधालू लोग भी अधिक सुखी, अधिक प्रसन्न ओर अधिक सुविधा सम्पन्न जीवन जीने की आकाँक्षा रखते है।

इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार इस मिले हुए से आगे बढ़कर-जो अभी तक नहीं मिला है, उसे प्राप्त करने की आकाँक्षा करते है। उस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए जाने वाले प्रयत्नों से पुरुषार्थ को श्रेय मिलता है, वृत्ति को सन्तोष होता है और उपलब्धि को गौरव प्राप्त हुआ है। र्स्वग प्राप्त करने के लिए जप, तप, पूजा, पाठ करने वाले लोगों को साधना के क्षेत्र में बल-बुद्धि इसी भूमि पर प्राप्त की जा सकती है। यदि इस लोक को हटकर अन्यान्तर-लोक में कोई र्स्वग है भी सही, जो संदिग्ध है, पर यदि इस मान भी ले तो उसे प्राप्त करने में वही लो समथ्र हो पाते जो इस जीवन वह स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकी तो मरने के बाद, जब मनुष्य की अंधिकाँश शक्तियों और सामर्थ्य नष्ट हो जाती है तो किसी बलबूते पर उसे र्स्वग को प्राप्त किया जा सकता है?

यदि वास्तव में किसी दूसरे लोक में र्स्वग जैसा कोई स्थान है तो उसे प्राप्त करने के लिए इसी जीवन में पात्रता उपार्जित करनी पड़ती है। र्स्वग की कल्पना इस रुप में की जाती है कि वहाँ मनुष्य के आसपास आनन्द तथा प्रियता बनी रहती है। संसार के सारे धर्मग्रन्थों में र्स्वग का वर्णन आता है। उसके सम्बन्ध में न जाने कितनी कथाएँ प्रचलित है और अनेकानेक विशेषताएँ बताई जाती है। किसी भी धर्म अथवा मतसप्प्रदाएँ में र्स्वग के सम्बन्ध में चाहे जो मान्यताएँ अथवा धारणाएँ क्यों न प्रचलित रही हों, उनमें विभिन्न्ता भी क्यों न मिलती हो, लेकिन एक बात सभी प्रतिपादनों में समान रुप से मिलती है कि वहाँ सब कुछ प्रिय तथा आनन्ददायक है। र्स्वग में ऐसे कोई कारण नहीं है, जिनसे मनुष्य को कष्ट, क्लेश अथवा दुःख हो। ऐसा र्स्वग जिसकी विशेषता आनन्द तथा प्रियता है, मनुष्य अपने इसी जीवन में रच सकता है। यदि अपनी मनःस्थिति को परिस्थितियों के अनुसार इस योग्य ढाल लिया जाय कि उसमें कही कोई प्रतिकूलताएँ हों भी तो उनका कोई प्रभाव न पड़े तथा न ही उनके कारण दुःख या शोक-सन्ताप की अग्नि में जलना पड़े। वरन् प्रतिकूलताओं के रहते हुए भी मनुष्य प्रियता तथा आनन्द की अवस्था में बना रहे। यह स्थिति प्राप्त करना मनुष्य के अपन वश की बात है। वह इस प्रकार का वाँछित र्स्वग अपने लिए यहीं पर बना सकता है, निशिचत रुप से बना सकता है इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। आवश्यकता केवल अपने दृष्टिकोण में थोड़ा-सा परिवर्तन भर करने की हैं। दुःख और कष्ट क्यों न उत्पन्न होते है, इसका कारण यदि ढूँढा जाय तो एक स्थूल-सा कारण बाधा का विरोध समझ में आता है। मनुष्य जो कुछ चाहता है या जो चाहने की इच्छा करता है। यह क्षोभ और निराशा ही दुःख के रुप् में अनुभव होती। यह क्षोभ और निराशा ही दुःख के रुप् में अनुभव होती है। इस स्थिति में यह मानकर चलना चाहिए कि इस संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसकी सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हों। इच्छाओं की पूर्ति में सन्तोष करने के स्थान पर यदि प्रयत्नों और कर्तव्यों का पालन ही ठीक ढंग से सम्पन्न करने की रीति-निति अपना ली जाय तो जिस र्स्वग या आनन्द की परिस्थितियों पर निर्भर समझा जाता है, वह अपनी मुट्टी में आज जाता है। गीता के कर्मयोंग का यही तार्त्पय है कि हम अपनी प्रसन्नता को कर्तव्य-परायणता एवं प्रयतनशीलता पर अवलम्बित रखे जो कुछ करे, उच्च आदर्शो से प्रेरित होकर करे और इस बात में सन्तोष माने कि एक ईमानदार एवं पुरुषार्थी व्यक्ति को, जो कुछ करना चाहिए था, वह हमने पूरे मनोयोग के साथ किया । अभीष्ट वस्तु न भी मिले, किया हुआ प्रयत्न असफल भी हो जाय तो भी इसमें दुख मानने, लज्जित होने पर मन छोटा करने की कोई बात नहीं है। क्योंकि सफलता व्यक्ति के प्रयत्न पुरुषार्थ के अतिरिक्त और भी कई बातों पर निर्भर करती है। इनमें से कई कारण तो ऐसे है, जिन पर मनुष्य का अपना को वश नहीं चलता। उदाहरण के लिए-अच्छी प्राप्त करने के लिए खेत की भली-भाँति जुताई-बुआई की जाय, उत्तत बीज बोया जाये चाक-चौबन्द रखवाली ककी जाये, लेकिन वर्षा पर तो किसान का नियन्त्रण नहीं है, बादल यदि अधिक बरस पड़े अथवा बिल्कुल भी न बरसे तो इसके लिए क्या किया जा सकता है ?

किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरे मन से प्रयास किये जाये, लेकिन दूसरे व्यक्ति एक लक्ष्य-बिन्दु पर पहूँचते-पहुँचते आद्यात कर बैठे, अवरोध खड़े करदे तो क्या किया जा सकता है ? अस्तु, इच्छाओं को पूर्ति के स्थान पर कर्तव्य पालन या प्रयत्शीलता को ही अपने सूख का केन्द्र मान लिया जाये और अपने मन की बनावट भी ऐसी हो जाय कि सफलता-असफलता की चिन्ता किये बिना अपने कर्तव्य-पालन में ही वह सन्तुष्ट रहने लगे तो समझना चाहए कि दृष्टि कोण सही हो गया और अपना आन्न्द, अपनी प्रसन्नता अपने हाथों में आ गई, यदि प्रसन्नता को कर्तव्य परायणता पर आधारित कर लिया गया है तो अपनी प्रसन्नता भी अपने हाथ में है, उससे वह शक्ति स्वतः ही स्फूर्त होती रहेगी, चित्त को आनन्द, उत्साह और सन्तोष से भरे रह सकती हैं। इस प्रकार हर घड़ी प्रसन्न और प्रफूल्तित रहने का सूत्र हाथ आ जाने पर यह सोचना र्व्यथ है कि जब कभी सुलता मिलेगी या अभीष्ट वस्तु प्रापत होगी, तभी प्रसन्न होंगें इसकी प्रतीक्षा में न जाने कितना समय बीता सकता है और फिर भी निश्चित नहीं है कि सफलता मिलने पर प्रसन्न हुआ ही जा सकेगा।

गीताकार की यह प्रेरणा कि फल की प्रतीक्षा मत करो, उस पर बहुत ध्यान भी मत दो- न तो सफलता के लिए आतुर बनों और न ही इच्छापूति के लिए परेशान ही हो ओ। अपना र्स्वग आप बनाने का अचूक नुस्खा है। चित्त को शान्त और स्वस्थ रखकर अपने कर्तव्यों को एक पुरुषार्थी के समान भली-भाँति पूरा करने में ही सन्तुष्ट रहने वाले व्यक्ति उस सुख-शान्ति, आनन्द और प्रिय परिस्थितियों को प्राप्त कर सकता है, जिसकी कल्पना र्स्वग के रुप् में की जाती है। अपने आप का बनाया हुआ यह र्स्वग अधिक सत्य, अधिक सरल और अधिक महत्पूर्ण है और सत्य तथा व्यवावहारिक भी।


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