शरीर से पहले मन का उपचार करें!

January 1980

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कई बार ऐसी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती है, जिनके लक्षण तो दिखाई देते है, पर यह समझ में नहीं आता कि क्यों पदा हुई है ? चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में जैसे-जैसे दिनों दिन प्रगति होती जा रही है वैसे-वैसे यह प्रामाणिक होता जा रहा है कि रोग के लक्षण भेले ही शरीर में दिखाई दें परन्तु उनका अधिकाँश कारण मन में छिपा रहता है। पिछले दिनो जर्मन पत्रिका ‘मेडिजिनेश क्लीनिक’ में एक लेख प्रकाशित हुआ उसमें कई चिकित्सा विज्ञानियों के अनुभव साररुप में छपे थे। लेख में कहा गया था कि शरीर के विभिन्न अंगो में होने वाली पीड़ा, वेदना आदि के लिए जितने कारण शरीर में विद्यमान होते है, उससे कही अधिक मानसिक कारण इसके लिए उत्तरदायी होते है।

इस लेख में मनःस्थिति के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का विवरण भी था। ऐसे कई प्रयोगों का उल्लेख इस प्रतिपादन की पुष्टि में किया गया था जिनसे सिद्ध होता था कि शरीर मन मस्तिष्क का एकनिष्ठ आज्ञानुवर्ती सेवक है और उसे जैसे निर्देश मिलते है, “एक बार मैंने केवल डिस्टिल्ड वाटर की सुई लगा कर रोगी को यह बताया कि उसे गहरी नींद की दवा दी गई है। वह कई दिनों अस्पताल में ठीक नींद नहीं ले पा रहा था। सुई लगाने के दस प्रन्दह मिनट बाद जब मैं उधर से निकला तो मैंने देखा कि वह गहरी नींद ले रहा है। एक दूसरे रोगी को, जिसे भी यही शिकायत थी नींद लाने वाली औषधि दी गई और कहा इससे थोड़ी नींद आ जायेगी और तुम्हारा दर्द भी हलका पड़ जायगा यह संदेह पैदा करने बाद रोगी को नींद नहीं आई और वह पूर्ववत् दर्द की शिकायत करता रहा।”

इस प्रयोग के बाद उन्हीं दवाओं के विपरित के निर्देश देकर, उनके दूसरे परिणाम बता कर दिया गया तो देखने में आया कि पहले वे सर्वथा भिन्न प्रतिक्रिया हुई है। पहले दिन पानी का इच्जैक्शन साधाराण दवा बता कर लगाया तो उससे न दर्द कम हुआ और नहीं रोगी को नींद आई।

इसके साथ ही दूसरे रागी को नींद लाने का आश्वासन दिया गया तो उसने गहरी नींद आई। इन प्रयोंगों के आधार पर डाक्टर जूलियस ने यह निर्ष्कष प्रतिपादित किया कि दवाएँ जितना परिणाम उत्पन्न करती है उनसे अधिक प्रभाव कहीं उनके सम्बन्ध में मान्यताओं को होता है। इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि एक ही तरह के दर्द को भिन्न-भिन्न मनः स्थिति के लोग अलग-अलग प्रकार के दर्द के कारण बुरी तरह चीखते चिल्लाते है। मध्यम मनःस्थिति वाले मात्र हलके हलके कराहते रहते है। लेकिन साहसी लोग उसी कष्ट को बहुत हल्का मानते है। युद्ध के मोर्चे पर घायल होने वाले सिपाही अपनी बहादुरी की मान्यता के आवेश में कम कष्ट अनुभव करते है। जबकि उतने ही घाव लगने पर अन्य कई गुना अधिक कष्ट अनुभव करते है।

भावनात्मक तनाव भी कई बार दर्द में परिणत हो जाता है। सिर दर्द, पेट का दर्द, जोड़ो का दर्द, छाती का दर्द, कमर का दर्द आदि दर्द शारीरिक कारणों से अधिक मनोवैज्ञानिक कारण उत्तरदायी होते है। इनके मूल में कोई चिंता, कोई आँशका, कोई भय, भावी अशुभ की आशंका अथवा भूतकाल की कोई दुःखद स्मृति काम करती है। मन की यह अवस्था शरीर के किन्हीं भी अंगो पर आच्छादित होकर उन्हें पीड़ा का अनुभव कराती है।

कई बार ऐसी स्थिति भी देखी गई है कि डाक्टर अपने समस्त निदान परिक्षण करने के उपरान्त भी रोगी में अस्वस्थता के कोई कारण नहीं जान पाता या कोई कारण पता नहीं चलता, किंतु रोगी अपने दुबला होता जाता है और साधारण काम काज करने में समर्थ नहीं रहता। यद्यपि रोग का कोई कारण पकड़ में नहीं आता फिर भी उसका कष्ट स्पष्ट दीख पड़ता है। यह कहा जाय कि रोगी ढोंग कर रहा है तो उसका भी कोई कारण समझ में नहीं आता, क्योंकि उस रुग्णता का पूरा भार रोगी को उठाना पड़ता है। इस प्रकार के विचित्र रोगी की जड़ खोज लेने में अब मनोविज्ञान सफल होता जा रहा है।

मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुई नवीनतम खोजों के अनुसार इस प्रकार के विचित्र और न पकड़ में आने-वाले रोगों का कारण मानसिक होता है। कोई पुरानी कटुअनुभूति मस्तिष्क के किसी भाग पर आक्रमण करती है। और वहाँ के संतुलन को गड़बड़ा देती है। चूकिं मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिक आपस में एक दूसरे के साथ जुड़ी रहती है और आपस में कई प्रकार के आदान-प्रदान का क्रम चलता रहता है। इसी प्रक्रिया के अर्न्तगत लगे हुए अघात केन्द्र तक ही सीमित न रह कर शरीर के अन्य अंग अवयवों को भी प्रभावित करते है और वे अंग भी रुग्णता अनुभव करने लगते है। शारीरिक दृष्टि से वह अंग नीरोग रहता है किन्तु मस्तिष्क का विद्युत प्रवाह उस स्थान तक ठीक तहर से नहीं पहुँव पाता क्योंकि संवेदना अनुभव करने वाल कोश रुग्वावस्था में पड़े रहते है। यह गड़बड़ी संबन्धित अंग तक पूरी खुराक और सही निर्देश नहीं पहुँचने देती। इस विचित्र स्थिति के कारण ही मस्तिष्क के संवेदना केन्द्र अमुक रोग जैसा अनुभव करते है। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं इस तरह के रोग न होने पर भी रोगी वस्तुत, कष्ट का वैसा ही अनुभव करता है जैसा कि वह अनुभव करता है जैसा िकवह अनुभव करता है। लेकिन डाक्टर के सामने भी यह समस्या रहती है कि वह क्या करे और क्या न करे ? इस तरह की मानसिक गुत्थियो और उलझनों की उसे जानकारी नहीं होतीं इसलिए ऐसे रोगियों को मनश्चिकित्सक के पास जाने की सलाह देकर वह अपना पिंड छुड़ा लेता है।

मानसिक कारणों से इस तरह के रोग कैसे प्रकट होते है ? इस प्रश्न का निशिचत उत्तर डाक्टरों के पास नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग मनोभूमि होती है। उसके मनः सस्थान की अलग अलग संरचना होती है। इसलिए सबके सम्बन्ध एक जैसा विवेचन लागू नहीं होता। कई व्यक्ति आये दिन अपमान सहते है और उसके इतने अभ्यस्त हो जाते है कि उन पर अपमान को कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कई व्यक्ति ऐसे भी होते है जो साधारण सी बात को बहुत को अधिक महत्व देकर तड़प उठते है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी मनःस्थिति के अनुसार एक ही घटना का अलग अलग विवेचन करता है। कौन किस घटना पर कैसी प्रतिक्रिया अनुभव करेगा इस सम्बन्ध में निश्चित रुप से कुछ नहीं कहा जा सकता। सामाजिक और कानूनी मापदण्ड निश्चित रहते हैं कि इस तरह का आचरण असामाजिक या आध्यात्मि कहा जायेगा। लेकिन किस कौन सा व्यवहार कितना अप्रिय लगता है, इसका निश्चित मूल्याँकन करने के लिए मापदण्ड नहीं है।

कितने ही व्यक्तियों के सामने हत्या, मार-काट और उत्पीड़न के दृश्य आते रहते है। उन पर इनका कोई विशेष प्रभाव नहीं होता, किंतु अभ्यस्त और भावुक व्यक्ति पर उन्हीं घटनाओं का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह किसी भंयकर अवसाद में डुब जाता है अथवा विक्षिप्त हो उठता है। अपमान, असफलता, हानि, बिछोह, जैसी अप्रिय घटनाएँ भी मनुष्य जीवन में घटती रहती है। इन की संभावनाओं को न निर्मूल किया जा सकता है और न ही इन से इन्कार किया जा सकता है। जब सम्मान सफलता, लाभ, मिलने जैसी प्रसन्नतादायक प्रसंग जीवन में आते रहते है तो उससे भिन्न प्रकार की घटनाओं के घटित न होने का कोई कारण नहीं हो सकता। रात और दिन की तरह जीवन की रचना भी प्रिय और अप्रिय प्रसंगो से मिलकर हुई है। सदा एक जैसी स्थिति बने रहना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।

धनवान, बलवान, विद्वान व्यक्तियों को भी प्रियजनों के विछोह, इच्छापूर्ति में बाधा और असफलता, शारीरिक रुग्णता तथा छल कपट जैसा व्यवहार दुख का कारण बन सकता है। इन सबसे ज्यादा मानसिक संतुलन को गड़बड़ा देने वाला कारण है कि अपने ही रचे हुए कल्पना लोक में अवाँछनीय चिंतन का चल पड़ना। आशंकाएँ प्रायः इसी स्तर की होती है। दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार, परिस्थितियों का प्रवाह निकट भविष्य में हमारे प्रतिकुल चलेगा और उससे भंयकर विपत्ति आयेगी ऐसा चिंतन कितन ही व्यक्ति करते और उद्धिग्न रहते है। जबकि वैसा व्यवहार या घटनाक्रम कदाचित कम ही सामन आता है।

मानसिक संतुलन विपरीत परिस्थितियों के वास्तविक एवं काल्पनिक घटनाक्रमों के सहारे ही चलते है। यह व्यक्ति की भावुकता या संवेदनशीलता पर निर्भर करता है, कि वह उन्हें मजाक में टाल देता है, साहस समेट कर उनसे निपटने का फैसला करता है या भयभीत होकर अपना संतुलन खो बैठता है। यदि व्यक्ति डरपोक प्रकृति का और अतिभावुकता तो इसके लिए छोटी घटना भी बहुत बड़ी हो सकती है और नन्ही सी अशुभ कल्पना से भी तिलमिला कर उद्धिग्न हो सकता है। इस प्रकार परिस्थितियों के अघात सर्वप्रथम और संपूर्ण रुप से मानसिक संस्थान को प्रभावित करते है। ज्वर, सिरदर्द, आदि की स्थिति में शरीर असहाय बन जाता है, उसे कुछ करते नहीं बनता, बेचैनी सताती है। मानसिक संतुलन इससे भी बुरी स्थिति पैदा कर देता है। क्योंकि शरीर पूरी तरह मन के नियंत्रण में चलता है। रक्त माँस से नहीं मन के निर्देशों से शरीर की गाड़ी चलती है।

यही कारण है मन के विकृत होने पर शरीर का स्वस्थ बने रहन असंभव हो जाता है। इस प्रकार का स्वास्थ्य बने रहना असंभव हो जाता है। इस प्रकार का स्वास्थ्य संकट अमुक घटना या अमुक परिस्थिति के कारण उत्पन्न होगा, इसका सब पर लागू होने वाला कोई सिद्धाँत नहीं। कहा जा चुका है कि एक ऐसी घटना की अनेक व्यक्तियों पर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ हो सकती है। विरोधी न हों तो भी निश्चित ही है कि सब पर अलग-अलग तरह की कम ज्यादा और भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ होती है। घटनाओं को रोका नहीं जा सकता और उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों से बचा नहीं जा सकता। इसलिए स्वस्थ रहने का एक मात्र यही तरीका हे कि सोचने समझने का सही तरीका अपनाया जाय, परिस्थितियों से ताल-मेल बिठाने की कला सीखी जाय और अपनी चिन्तात्मक दुर्बलता के कारण उत्पन्न होने वाली ऐसी स्थितियों से बचा जाये जो व्यक्ति के जीवनक्रम को अस्त-व्यस्त और तहस् नहस् कर देती है।

किन्हीं अप्रिय अथवा अवाँछनीय घटनाओं की शारीरिक मानसिक स्थितियों में हलकी सी उद्धिग्नता चढ़ जाती है। यह उद्धिग्नगता, व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति के अनुसार कम ज्यादा हो सकती है। इस स्थिति को खीझ, परेशानी, तनाव कुछ भी कहा जा सकता है। कमजोर मनःस्थिति वाले व्यक्ति साधारण सी बातों को लेकर इतने परेशान हो उठते है कि उनके मन पर कई समस्याएँ एक साथ चढ़ जाती है और सभी जल्दी जल्दी अपने संबंध में विचार किये जाने की माँग करत है। इस धमाचौकड़ी में अधूरी एकाँगी उथली समझ ही काम करती है। और उससे कोई निर्ष्कष निकलना तो दूर रहा उलटे सिर चकराने लगता है। प्रतीत होता है कि मानो उलझनो के घटाटोप चढ़ आये है। इन विचारो के हुड़दंग को रोकना चाहिए और एक समय में एक ही विचार को अपनाकर बारी-बारी शाँत चित्त से प्रस्तुत समस्याओं पर विचार करना चाहिए। इस तरह आसान से चित्त का बोझ हलका किया जा सकता है।

रोगों का जड़ शरीर में मन होती है, यह मान कर अपने मानसिक संतुन को सुस्थिर रखा जाय तो कोई शारीरिक रोग होने पर भी वह जीवन-क्रम सामान्य ढंग से चलाया जा सकता है। मानसिक संतुलन साधने के लिए यह मान्यता बड़ी ही उपयोगी सिद्ध हो सकती है। दुनिया में सब कुछ अपने मन का ही हो, यह आवश्यक नहीं है। दुनिया किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बनी है, उसमें सभी व्यक्तियों प्राणियों और यहाँ तक कि वस्तुओं का भी महत्व है। उस प्रवाह में ही दुनिया अपने क्रम से चलती है, इसलिए परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाकर ही सुख शाँति के साथ रहा जा कता है। सामंजस्य स्थापित करने की यह भावना मानसिक संतुलन साधने में सहयोग देती है और व्यक्ति का चित्त नहीं शरीर भी स्वस्थ प्रफुल्लित और सशक्त बना रहता है।


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