सेवा-साधना में जीवन की सार्थकता

January 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

फल जब पक जाता है, तब उसकी अन्तारात्मा सीमित के बाधा-बन्धन तोड़कर असीम बनने के लिए मचलती हैं फलतः वह वृक्ष के साथ निरर्थक रहने का मोह त्याग कर भूमि पर गिरता है और गूदे से दूसरोकं को क्षुधा बुझाता हुआ अपने को छूँछ बना देने को उद्यात होता है। इतना ही नहीं, अपने को गलाकर अभिनव वृक्ष उगाने का उपक्रम करता है।

दधीचि और भागीरथ बड़े थे। फल उनके समतुल्य तो नहीं हो सकता, पर परम्परा वही अपनाता है। आत्मिक-विकास इससे कम में बन नहीं सकता। आत्मिक प्रगति की सार्थकता इतने सत्साहस का परिचय दिये बिना सिद्ध नहीं होती। पके हुए फल की यही स्थिति है। जो इसे स्वीकार नहीं करता है और पत्तों के झुरमुट में मुँह छिपाने और जान बचाने की कोशिश करता है, वह चाहते भले ही हों-प्श्र सुरक्षित रह नहीं पाता। प्रकृति उसका वैभव छीन लेती है और पत्तों के बीच सूखे, दुर्गन्धित और कुरुप् जरा-जीर्ण जैसी दुर्गति में उसे धकेल देती है। मानवी-प्रगति का भी यही उचित गतिचक्र है। जो उसे तोड़ते है, वे चतुर बनते भर है, अन्ततः ऐसे व्यक्ति मूर्ख सिद्ध होते है।

निर्झर अपने पिता का उत्तराधिकार-धन-वैभव पाता तो है, पर उसका न तो उपभाग करता है और न संग्रहं। नियति की इच्छा को समझता है और गतिचक्र को अग्रगामी बने रहने में व्यवधान उत्पन्न नहीं करता है। यहाँ सब कुछ आगे बढ़ रहा है। पिछले पग को उठाने पर ही उसे आगे बढ़ाना सम्भव होता है। दौड़ने के लिए जो तैयार न हो, उसे पाने की आशा त्यागनी ही पड़ती है। सृष्टि का यही सनातन नियम है। निर्झर को अस्थायी जैसा ज्ञान-विज्ञान तो नहीं मिला, पर अनुकरण वह उन्हीं की नीति का करता है। पर्वत के दिये अनुदान को वह एक हाथ से पाता और दूसरे से आगे बढ़ाता है। उपलब्ध अनुदान की जल-राशि बहना आरम्भ करती है तो उसे अन्याय जल-धाराओं का स्नेह, सहयोग मिलता चला जाता है। निर्झर नद बनता है और पूण्य तथा यश अर्जित करता हुआ समुद्र में जा मिलता है। अपूर्णता को पूर्णता तक पहूँचाने के लिए इसके अतिरिक्त दूसरा मार्ग भी तो नहीं है।

बादलों की कुल परम्परा बरसने की है। अपने को गलाने और भूतल पर हरितमा उगाने में उन्हें घाटा नहीं दिखता। यों स्वार्थ-परायणों के लिए तो यह दूस्साहस कल्पानीतीत है। वे इसे उपहासास्पद मूर्खता ही कर सकते है। किन्तु बादलों को दूरदर्शिता और उदारता को जो वरदान मिला है, उसका परित्याग करते भी उनसे नहीं बन पड़ता। फलतः न घाटा बताने वाला गणित सीखते है और न उपहास की परख करते है। नियमि उनकी पीठ थपथपाती है। आकाश में उड़ने और असंखयों को आशा का केन्द्र बनने का अवसर देती हैं मेघ गरजते है तो सभी हरसते है। कोई उन्हे इन्द्र कहता है, को वरुण। उनका कतृत्व-काल पावस कहा जाता और धन्य बनता है। मोरों को नृत्य और मेघ-मल्हारों के गीत उन्हें अपनाई गई नीति की सार्थकता बताते है प्रत्यक्षवादियों के लिए इस प्रयास में मूख्रता के अतिरिक्त और कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता। पर दूरदर्शी जानते है कि बादलों ने खोया कुछ नहीं, उन्हें मात्र परिवहन और वितरण भर करना पड़ा। श्रेय इतना अधिक मिला कि वास्तविक दानी समुद्र को उनके सौभाग्य पर गद्गद् हो जाना पड़ा।

फूल सुन्दर लगते है, सुगन्धित होते है और सम्मान पाते है। क्योंकि वे मधुर फलों की पूर्व भूमिका होते है। वृक्षों को आश्रयदाता कहा जाता है, क्योंकि वे शीतआतप सहते हुए अनेकानेंकों को सुविधा प्रदान करते है सूर्य देवता है और चन्द्रमा भी। निर्जीव पिण्डों को वह श्रेय-सौभाग्य कैसे मिलता है ? उसका उत्तर एक ही है देव-परम्परा का अनुगमन । अनवरत श्रम करते हैं। अपने लिए नहीं, उनके लिए-जिनको तमिस्त्रा से छुटकारा पाने की आवश्यकाता है। बालक माता को उदर दरी में सुविधा और सुरक्षा पाने को जब पर्याप्त नहीं मानता और विश्व-वैभव में अपने पुरुषार्थ को नियोजित करने के लिए मचलता है, तभी उसे जन्म धारण करने का अवसर मिलता है। दार्शनिकों के बहुचर्चित ‘मुक्ति ‘ या प्रत्यक्ष दर्शन शिशु-जन्म की प्रक्रिया को देखकर भली प्रकार समझा जा सकता है कि भारतीय-संस्कृति का मेरुदण्ड वर्षा धर्म है। उस विधान का शैशव भी है और यौवन भी। शैशव को पूर्वार्द्ध और यौवन को उत्तरार्द्ध कहते है । स्वकेन्द्रित शुद्र अ वेश्य। पर समर्पित ब्राह्मण और क्षत्रिय। एक सद्ज्ञान के लिए, दूसरा संरक्षण के लिए समर्पित। स्वकेन्द्रित बचपन और गृहस्थ। पर-केन्द्रित वानप्रस्थ और संन्यास। अविकसति पूर्वार्द्ध अपने लिए परिपक्व प्रौद्ध परमार्थ के लिए। यही है- वर्णाश्रम धर्म का तात्विक विवेचन। धर्म की इसके बिना गति नहीं। आम्मिक क्षेत्र में उदात्त उदारता अपनाये बिना एक पग प्रगति नहीं। महामानवों का यही राजमार्ग हैं। देवत्व पाने के लिए उसी का अवलम्बन करना होता है। पूर्णता के लक्ष्य तक इस पर अनवरत क्रम से चलने वाले पहुँच पाते है। समष्टि ही विराट् है। विराट् ही ब्रह्म है। स्व को पर में समर्पित करना ही परब्रह्म की प्राप्ति है। साधना के उपक्रम में जो भी अपनाया जाय। मध्यवर्ति ध्रुव-तत्व यही है।

भौतिक सुख ओर आत्मिक-शान्ति पाने की सुनिश्चित रीति-नीति नहीं है। सर्कींण स्वार्थपरता ही माया है। मृग मरीचिका उसी को कहते है। पाने की जिज्ञासा में खाने की विडम्बना यही है। बुद्धिमत्ता का कलेवर ओढ़कर मूर्खता अपना व्यंग नृत्य इसी तरह दिखाती और जन-जन को भ्रमाती है। उदारता, लाभ और कृपणता का घाटा यदि समझा जा सके तो मनुष्य निस्सन्देह सुखी बन सकता है और परलोक भी। (उसका लोक भी सध सकता है औरा परलोक भी) किन्तु दुर्बुद्धि को क्या कहा जाय ? हाथ और पैरो का ललक-लिप्सा जकड़े रहती है और लोभ-मोह के कोल्हू में पिलने के अतिरिक्त और कुछ सोचने तक नहीं देतीं। कुछ ऐसा करने की छूट तो मिल ही कहाँ पाती, जिसमें मानवी-जीवन की सार्थकता सम्भव हो सकें।

अखण्ड-ज्योति के परिजन उस दृष्टि से सौभाग्य शाली है कि उन्हें उत्कृष्ट चिन्तन और उपयुक्त कर्तव्य के लिए आवश्यक आलोक तो मिलता ही रहता है। द्वारा तो उनके लिए खुला है। अनजान तो उन्हें नहीं रहना पड़ रहा है। अन्धकार का घेरा तो उनके सामन नहीं है। यह दूसरी बात है कि मनःस्थिति में साहसिकता और परिस्थिता में प्रगतिशीलता का समावेश कर सकना उनसे बन पड़ता है या नहीं। होना यही चाहिए कि ज्ञान की प्रौढ़ता कर्म में विकसित हों। लिप्साओं पर अंकुश लगे। निर्वाह के साधनों को औचित्य तक ही बढ़ाया जाय। इसके बाद जो असीम बच रहता है, उसे लौटाया जाय, जिसने स्तर की जाँचने के लिए अनुदान की धरोहर को आशा और अपेक्षा के साथ सौंपा था। जो जीवन-तथ्य को समझ सकेगा, उसे इसी निर्ष्कष पर पहूँचना पड़ेंगा कि उपलब्धियों का उपभाग एवं संग्रह नही, वरन् उनका उदार उपयोग करने में ही बुद्धिमता है।

नीति-निर्धारण का सौभाग्य वरदान यदि किसी को मिल सके तो उसे उसी निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ेगा कि ललक-लिप्सा सीमित रखने से काम चल सकता है, सीमित समय, श्रम एवं साधनों में शरीर-निर्वाह एवं परिवार-पोषण का उत्तरदायित्व निभ सकता। अतृप्त तो तृष्ण ही रहता है। दरिद्रता तो लिप्सा भर की है। वैभव को कनिष्ठ और वर्चस्व को वरिष्ठ माना जा सके तो परिस्थितियाँ पूरी तरह उलट सकती है। शरीर को विलासी और परवार को अमीर बनाये, बिना काम चल सके तो स्वालम्बी तथा सुस्कारी बने रहकर निर्वाह के हजार उपाये सोचे जा सकते है। कठिनाई तो उस तृष्णा की है, जो विवके के अभाव में फलित भी नहीं होती। देव-जीवन जीना और स्वर्गीय सम्वेदनाओं का रसास्वादन करना-किसी के अनुग्रह पर नहीं, मात्र अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करने पर निर्भर है। ढर्रे का चिन्तन और अभ्यस्त क्रियाकलाप में उपयुक्त परिवर्तन करने में जो ऊर्जा प्रयुक्त होती है, उसी का नाम-’आत्म बल’ है। इसकी प्रचेर मात्रा हर किसी को जन्मजात रुप् से उपलब्ध है। कठिन तो पड़ता है, वह उसी अनुपात से कृतकृत्य बनता है। आत्म निर्माण बनता है। आत्म निर्माण और भाग्य निर्माण दोनों एक ही है, एक को क्रिया और दूसरे को परिणिति कह सकते है। सबसे बड़ा पुरुषार्थ एक ही है-जीवन-नीति का दूरदर्शी निर्धारण। देव अनुग्रह यही एक है। सौभाग्यों का सूर्योदय इसी को समझा जाना चाहिए। विपदाओं का पलायन और सम्दाओं का आगमन जिन ऋद्धि-सिद्धियों के अनुग्रह से होता है, वे आसमान से नहीं उतरती और न किसी की कृपा-अनुकम्पा से मिलती है। जीवन-क्रम में उत्कृष्टता का समावेश ही वह मन्त्र-साधन है जिसे सिद्ध कर लेने पर वह सब कुछ मिल जाता है, जो मिलने योग्य है।

उदार चेता ओर दूरदर्शी ऐसी नीति अपनाते है जिसमे सीमित स्वार्थ और और असीम परमार्थ की पूर्ति सुसंतुलित रीति से होती रहे। इसके लिए न किसी को भूखा मरने की आवश्यकता है और न परिवार को निराश्रित छोड़ने की। औचित्य की मर्यादा में दोंनों का परिपोषण करने में किसी सामान्य को भी असामान्य दौड़धुप या चिन्ता करने की आवश्यका नहीं पड़ती मानवी-काया में सन्निहित पुरुषार्थ एवं कौशल इतनी र्प्याप्ता मात्रा में विद्यमान है, जिसके सहारे औचित्य की परिधि में रहते हुए हँसते-हँसाते हर किसी का निर्वाह हो सकता है। साथ ही जीवनोद्देश्य की पूत्रि के लिए अनिवार्य रुप से आवश्यक परमार्थ-प्रयोजनों के लिए भी र्प्याप्त अवसर मिल सकता है। जो उसका सुसन्तुलित उपयोग कर सके, उनके निर्वाह और विकास की, सुख और शान्ति की, समृद्धि और प्रगति की उभयपक्षीय उपलब्धियाँ प्राप्त करता सकना तनिक भी कठिन न रहेगा। सुसंस्कृत ही समृन्नत होते है। दृष्टिकोण ऊँचा रहे तो उर्त्कष के प्रत्येक शिखर का दर्शन ही नहीं परिभ्रमण भी सहज हो सकता है। यही है-सुखद सफलता, जिस पर जीवन का उपभोक्ता और दाता-दोनों ही सन्तुष्ट और प्रसन्न हो सकते है।

आत्मिक-प्रगति का अर्थ है-अन्तः करण से उत्कृष्ता का अभिवर्धन। उत्कृष्टता का तार्त्पय है-दृष्टिकोण की शालीनता और व्यवहार में उदारता। इन दोनों का सर्म्वधन जिस उपाय से हो सकता है, वह है-सेवा, साधना का अवलम्बन। उपासना कृत्यों की तरह है इसकी भी गरिमा है। साधना और उपासना के युग्म को अन्योन्याश्रित-एक दूसरे का पूरक माना गया है।

सेवा-साधना में संलग्न की श्रेष्ठता की अभिवृद्धि भी होती है। सेवा-धर्म अपनाने से स्वार्थ और परमार्थ दोनों की पूर्ति होती है। आत्म-सन्तोष, लोक-श्रद्धा जन-सहयोग एवं देवी-अनुग्रह के चारों ही लाभ सेवा-धर्म अपनाने वाले ही हाथों-हाथ मिलने लगते है। सेवा-साधना यों हो तो एकाकी भी सकती है और कुछ न कुछ परमार्थ-व्यक्गित-सर्म्पक के सीमित क्षेत्र में भी किया जा सकता है।, पर दूरगामी और विशालकाय सत्परिणामों की दृष्टि से इस क्षेत्र में भी समविन्त प्रयास ही कारगर होते है। एक तिनके से रस्सा नहीं बनता और न एक फूल का हार गूँथा जाता है। लड़ तो एक सैनिक भी हो सकता है, पर बड़ा मोर्चा फतह करने के लिए उसे सैन्य-दल का अनुशासित-सदस्य बनकर ही काम करना होता है बूँदे मिलकर जलाशय बनती है। सीकों का समूह बुहारी है और धागों का समन्वय। ब्रह्माण्ड क्या है ? परमाणु और खगोल पिण्डों का सुगठन । विद्यालयों, कारखानों और सगंठनों की सफलता का मूल्याँकन उनकी सदस्य-संख्या देखकर ही लगाया जाता है। सरकारे बनाने या बदलने में मतदाताओं का बहुमत ही निर्णायक होता है। जागृत-आत्माओं का सुगठित समुदाय ही प्रस्तुत आस्था सकंट से निवारण एवं उज्जवल भविष्य के निर्धारण की भूमिका निभा सकने में समर्थ हो सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118