ज्ञान प्राप्ति का मार्ग

January 1980

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पतित पावनी भागीरथी के तट पर महर्षि रैम्य और महर्षि भारद्वाज के आश्रम आस पास ही स्थित थे। तपोबल, योगशक्ति और आत्मिक उर्त्कष की स्थिति में कोई किसी से कम नहीं थे, फिर महर्षि रैम्य के आश्रम में प्रतिदिन लोगों का आना जाना बना रहता था। आँगतुकों में हर वर्ग और स्थिति के व्यक्ति होते थे इसका कारण था कि महर्षि रैम्य ने तप साधना के साथ-साथ वेद वेदाँतो के पठन पाठन और अध्ययन मनन द्वारा अपनी ज्ञान संपदा भी बढ़ाई थी। लोग विभिन्न जिज्ञासुओं के समाधान तथा ज्ञान प्राप्ति की आशा से रैम्य आश्रम में आया करते थे।

भारद्वाज आश्रम में अपेक्षाकृत कम लोग ही आते। महर्षि पुत्र यवक्रीत को लगा कि शास्त्रज्ञान अर्जित न करने के कारण मेरे पिता को रैम्य के समान सम्मान नहीं देते व आश्रम की उपेक्षा भी करते है। यद्यपि ऐसी कोई बात नहीं थी, भारद्वाज भी रैम्य की तरह ही विख्यात थे पर यह जान कर लोग उनके आश्रम में कम आते थे कि इसके महर्षि की तप साधना में विध्न पड़ेगा। महर्षि भारद्वाज को भी जनसर्म्पक में कम ही रुचि थी।

यवक्रित ने आश्रम का सम्मान बढ़ाने उद्देश्य से स्वयं ज्ञानार्जन करने का निश्चय किया। इसके लिए वह पंचाग्नि तापते हुए उग्र तप द्वारा अपने शरीर को स्वाहरा करने लगे यवक्रित को कठोर तप करते देख कर इन्द्र देव ऋषिपुत्र के पास आये और उनसे तपक का उद्देश्य पूछा।

यवक्रित ने कहा मैं सम्पूर्ण शास्त्रों और वेदवेदाँतो का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही यह तप कर रहा हूँ।

परन्तु ज्ञान तो गुरुमुख होकर अध्ययन करने से प्राप्त होता है महर्षि कुमार’, इन्द्र ने कहा।

‘गुरुमुख से वेदों की शिक्षा प्राप्त करने से में अधिक समय लगता है। इतना धैर्य मुझमें नहीं है, इसी से तप का मार्ग चुना है भगवन्’-यवक्रित बोलें। ‘

ज्ञान प्राप्ति के लिए यह उत्कृष्ट अभिलाषा तो श्रेयस्कर है कुमार, पर मार्ग वही है, इन्द्र देव ने समझाया-तप द्वारा आत्मा का कल्याण तो संभव है, पर ज्ञान साधना गुरुमुख होकर ही की जाती है।

इसके बाद इन्द्र तो चले गये, किन्तु यवक्रित ने बातों ध्यान नहीं दिया। उन्होंने और कठोर तप आरम्भ कर दिया। निरन्तर कठोर तप साधना में लगे रहने पर यवक्रित का शरीर कृश हो गया। देह में केवल हडिडयों के उभार ही दिखाई देने लगे। फिर भी इष्ट सिद्धि नहीं हुई तो उन्होंने निश्चय किया कि वे और अधिक कठोर तितिक्षा पर करेंगे। इस निश्चय के लिए उन्होंने एक यज्ञ में अपने रक्त से उसमें आहुतियाँ देंगे।

इस निश्चय के बारे में जब देवराज इन्द्र को पता चला तो वे एक वृद्ध ब्राह्मण का रुप धारण कर उस स्थान पर आये जहाँ यवक्रित तप किया करते थे और गंगा के उस स्थान पर इन्द्र प्रतीक्षा करने लगे जहाँ ऋषिकुमार गंगा स्नान के लिए आया करते थे। यवक्रित जब स्नान करने आए तो उन्होंने देखा कि वृद्ध ब्राह्मण अंजलि में बार-बार रेत भर कर गंगा में डाल रहा है। यह देख कर उन्होंने पूछा-विप्रवर! आप यह क्या कर रहे है?”

वृद्ध ब्राह्मण का रुप धरे इन्द्र ने कहा, “यहाँ से लोगों को गंगा पर पुल बाँध देना चाहता हुँ।”

‘भगवन, यवक्रित ने कहा, “आप इस महा प्रवाह को रेत से किसी प्रकार नहीं बाँध सकते। इसलिए इस असंभव कार्य को छोड़कर जो कार्य सम्भव हो, उसके लिए प्रयत्न कीजिए।

अब वृद्ध ब्राह्मण ने घुमकर यवक्रीत की ओर देखा और कहा, “ऋषिकुमार जब आप शरीर को कृश करने वाले तप और देह कठोर त्याग द्वारा विद्या प्राप्ति करने के लिए यत्न कर रहे है और उसमें सफल होने की आशा रखते है तो मेरा यह कार्य असम्भव कैसे है? यवक्रित को समझते देर न लगी कि वृद्ध ब्राह्मण कोन है? उन्होने नम्रता पूर्वक अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कहा, ‘देवराज! मैं अपनी भूल समझ गया। मुझे क्षमा किजिए।” और ऋषिकुमार स्वाध्याय अनुशीलन द्वारा ज्ञान साधना करने में जुट गए।


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