प्रगति और विपत्ति में सभी सहभागी

January 1980

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व्यक्ति लगता तो अपने में स्वतन्त्र है, पर वस्तुतः वह समष्टि का एक अवयव मात्र है। व्यक्ति के स्तर और कर्म से समूचा समाज प्रभावित होता है। इसी प्रकार समाज का वातावरण हर व्यक्ति को प्रभावित होता है इसी प्रकार समाज का वातावरण हर व्यक्ति को प्रभावित करके रहता है। दानों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। दोनों का उत्थान और पतन एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर रहता है।

व्यक्ति अपनी सुविधा और प्रगति की बात सोचे-इसमें हर्ज नहीं, पर जब वह समाज गत उर्त्कष एवं सामूहिक नियम अनुशासन का उल्लंन करता हे तो अनपे और समाज के लिए दूहरी विपत्ति खड़ी करने का कारण बनता है।

प्रकृति एक नियम है। विपत्ति एक अनुशासन है। इनमें व्यतिक्रम की छूट किसी को भी नहीं है। उच्छ्रंखलता यह असह्स हैं उद्धत आचरण अपनाने वाले आँतक उत्पन्न करते और अपरहण का प्रयास तो कई करते है, पर उसमें सफल नहीं होतें। उद्दण्डी की सफलता फुलझड़ी की तरह है, जो तनिक-सा कौतुत अपना अस्तितव गवाँ बैठने के मुल्य पर ही दिखा पाती है।

व्यक्ति का परस्पर सम्बन्ध है-शरीरगत कोश घटकों की तरह एक ही उद्दण्डतर सभी को कष्ट देती है, उसके लिए सबका प्रयत्न होना चाहिए कि किसी को एक को स्वेच्छाचार न बरतने दें। समूह जब अने इस उत्तदायित्व की उपेक्षा करता है और उच्छ्रंखलों का नियन्त्रण नहीं करता है तो प्रकृति उस समूचे क्लीव समाज को प्रताड़ना करती है। वैसी जैसी कि इन दिनों विपत्तियों, समस्याओं, विग्रहों एवं विभीषिकाओं के रुप में सर्वत्र सहन करनी पड़ रही है।


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