आज मिल पाया नहीं, तो कल मिलेगा

February 1980

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समझा जाता है कि प्रतिभाएँ जन्मजात रुप से विशिष्ट गुण क्षमताएँ सम्पन्न होती हैं और उपयुक्त परिस्थितियाँ ही किसी मनुष्य को आगे बढ़ातीं व ऊँचा उठाती है । इसी क्रम में यह भी सोचा जाता है कि लाख प्रयत्न किये जाँय, किसी में जन्मजात प्रतिभा न हो तो वह आगे नहीं बढ़ सकता और उपयुक्त अवसर न मिले तो कितने ही हाथ-पैर मारने पर भी सफलता हाथ नहीं लगती । संसार में कितने ही व्यक्ति ऊँचे उद्देश्यों को सामने रख कर प्रयत्न करते हैं, लेकिन उनमें थोड़े बहुत ही सफल हो पाते हैं । हजारों लोग उन्नति के लिए, गुण और योग्यता सर्म्वधन के लिए प्रयास करते हैं, पर उनमें किन्हीं-किन्हीं का ही मंतव्य पूरा होता है ।

इसके विपरीत अनेक व्यक्तियों को अनायास ही सफलता मिलती और उन्नति के शिखर उनके चरण चूमते हैं । जन्मजात रुप से प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के ऐसे ढ़ेरों उदाहरण हैं, जिसमें महापुरुषों ने छोटी उम्र में ही बड़े काम कर दिखाये और जब वे थोड़े बड़े हुए तो महानता के शिखर पर जा पहुँचे । महान् विजेता शंकराचार्य ने सत्रह वर्ष की आयु में शेरोनिया का युद्ध जीता था । शंकराचार्य ने सोलह वर्ष की उम्र में सारे भारत के पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था । बादशाह अकबर ने तेरह वर्ष की आयु में राजगद्दी प्राप्त की और सत्रह वर्ष की उम्र में राजकाज सम्भाल लिया था । छत्रपति शिवाजी ने तेरह वर्ष की अवस्था में तोरण का किला जीत लिया था ।

सन्त ज्ञानदेव ने मात्र बाहर वर्ष की आयु में भगवद् गीता पर प्रसिद्ध टीका ‘ज्ञानेश्वरी’ लिख डाली थी । राज्य कार्य हाथ में लेते समय महारानी लक्ष्मी बाई की आयु 18 वर्ष थी । महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगौर ने चौदह वर्ष की आयु में ही शेक्सपीयर के महान नाटक ‘मैकबैथ’ का बंगला में अनुवाद कर लिया था । अँग्रेजी में कविताएँ लिखकर विदेशों तक में प्रसिद्धि पा लेने वाल बंगाली कवियत्री तोरुदत्त ने 18 वर्ष की आयु में ही यह स्थिति प्राप्त कर ली थी । भारत कोकिला कही जाने वाली श्रीमती सरोजनी नायडू ने 13 वर्ष की अवस्था में ही तेरह सौ पंक्तियों की एक अँग्रेजी कविता लिखी थी, जो अँग्रेजी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है । प्रख्यात नाटककार हरींद्र चट्टोपाध्याय ने अपना सबसे प्रसिद्ध नाटक ‘अब्ब हसन’ चौदह वर्ष की आयु में लिखा था । इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं जो जन्मजात प्रतिभाओं की महान उपलब्धियों को प्रामाणित करते हैं ।

इसके साथ ही यह प्रमाण उन निराश व्यक्तियों को अपनी हताशा का औचित्य सिद्ध करने के लिए भी एक बहाना बनते हैं जो कि क्षेत्र में थोड़ा बहुत प्रयत्न करने के बाद हार थक जाते हैं और अपने प्रयत्नों को वहीं विराम दे देते हैं । इस सर्न्दभ में यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे यह समझा जाय कि जिन व्यक्तियों में जन्मजात रुप से कोई प्रतिभा मिली हुई दिखाई देती है, उन पर ईश्वर की कोई विशेष कृपा है और उसने पक्षपात करने हेतु यह विशेषताएँ वरदान स्वरुप दे डाली हैं । वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं है । जिन व्यक्तियों में जन्मजात रुप से कोई प्रतिभा दिखाई देती है, वस्तुतः वह पिछले जन्म के किये गये प्रयासों, साधनाओं का ही परिपाक परिणाम होती है । बहुधा ऐसे व्यक्ति पिछले जन्म में इस दिशा में अविराम श्रम करते हुए हार-थक कर असफल हुए हैं और इस जन्म में उन्हें पिछले जन्मों की साधना का सत्परिणाम प्राप्त हुआ है । जिस प्रकार बुरे कर्मो का फल इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में मिलता है, उसी प्रकार अच्छे कार्यो का परिणाम कार्यो का परिणाम भी निश्चित है वह भी इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित रुप से मिलता है ।

कर्मफल की निश्चितता का विश्वास भले ही तत्काल कोई परिणाम न भी मिले तो भी निरुत्साहित नहीं करता और पुनर्जन्म तो एक ऐसा ध्रुव सत्य है जो अब केवल मानने या विश्वास करने का ही विषय नहीं रह गया है वरन् विज्ञान सिद्ध विषय बन चुका है । इस दृष्टि से असफलता के लिए भाग्य को दोष देकर हाथ पर हाथ धरे बैठ जाने का कोई कारण नहीं है । प्रख्यात साहित्यकार और विचारक श्री इलाचन्द्र जोशी ने जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न दिखाई देने वाले व्यक्तियों के सम्बन्ध में लिख है-”विराट् जीवन के जो असंख्य पहलू और अनगिनत रुप हमारी कल्पना में उतरते रहते हैं, उनका विकास एक छोटे से जीवन की सीमित परिधि में कदापि सम्भव नहीं है, उसके लिए कई जन्म चाहिए। प्रत्येक प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने भीतर इस महासत्य को अनुभव करता है ।”

भगवान बुद्ध के सम्बन्ध में तो प्रख्यात है कि उन्होंने पिछले सौ जन्मों की यात्रा पूरी करने के बाद बुद्धत्व को प्राप्त किया था । इन पिछले सौ जन्मों में वे गाय-बैल लेकर कूकर शूकर आदि कई मानवेतर योनियों में रहे और इतनी लम्बी साधना के बाद जाकर कहीं बुद्ध बन सके । ऋषि-मुनियों के सम्बन्ध में तो पूर्व जन्मों में अगणित बार असफल होने का विवरण मिलता है । सन्त ज्ञानेश्वर, तुलसीदास, शंकराचार्य, कबीर, मीरा, सूरदास, चन्द्रगुप्त चाणक्य, पाणिनी आदि के बारे में भी ऐसी कई गाथाएँ प्रचलित हैं, जिनके अनुसार उन्हें पिछले जन्मों में विफलता का मुँह देखने को मिली थी । आत्मिक उर्त्कष के क्षेत्र में तो अनेक जन्मों में सिद्धि प्राप्त होने का उल्लेख शास्त्र ग्रन्थों में कई स्थानों पर मिलता है । एक जन्म में असफल हो जाने के बाद साधक की क्या स्थिति होती है यह दर्शाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-

तत्रं तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्नदेहिकम् । यतते च ततो भूयः ससिद्धै, कुरुनन्दन ॥

पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते ह्यवशोऽविसः । जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्माति वर्तते ॥

प्रयत्नाद्यत मानस्तु योगी संशुद्ध किंत्विषः । अनेक जन्म ससिद्ध स्ततो यानि परमंगतिम् ॥ (गीता 6 । 43, 44, 35 )

अर्थात्-हे कुरुनन्दन अर्जुन वह योगियों के कुल में जन्म लेकर पूर्व जन्म के संस्कार को प्राप्त करता है औ उसके प्रभाव से वह उस दिशा में और अधिक प्रयत्न करता है । उसी पूर्व अभ्यास से अवश ही खिचा जाता है, क्योंकि योग का जिज्ञासु भी सकाम कर्मो के फल का अतिक्रमण कर जाता है । प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पाप रहित और अनेक पूर्व जन्मों के संस्कारों की सहायता से सिद्ध होकर तत्काल परमगति को प्राप्त कर लेता है ।

यही तथ्य प्रगति और उन्नति के अन्याय क्षेत्रों में भी लागू होता है । पश्चिमी देशों में तो अब यह भी माना जाने लगा है कि शेक्सपीयर, गेटे और बर्नार्डशा आदि प्रभृति विद्वानों की प्रतिभा को एक जन्म की नहीं अनेक जन्मों की साधना और संस्कारों की पूँजी से उच्च स्थिति में पहुँचा माना जाता है । कुछ ऐसे उदाहरण सामने भी आये हैं, जिनमें ख्याति प्राप्त व्यक्तियों ने अपनी पूर्व जन्म की स्मृतियाँ बताई और वे पूरी तरह सही निकलीं । इस आधार पर यह दावे के साथ कहा जाने लगा कि महान व्यक्तियों की महान् उपलब्धियाँ अथवा जन्मजात प्रतिभाएँ एक ही जीवन की देन नहीं होतीं और न ही प्रकृति या परमात्मा का पक्षपातपूर्ण अनुदान ।

इस सर्न्दभ में सन् 1923 में नोबल पुरस्कार विजेता आयरलैण्ड के विश्वविख्यात कवि विलियम बटलर यीट्स का उदाहरण पूर्णतया प्रामाणिक भी है और सन्देह से परे भी । यीट्स ने काव्य, नाटक, निबन्ध और साहित्य की अन्य विधाओं में लगभग 40 पुस्तकें लिखीं । एक आत्म कथा में यीट्स ने स्वयं स्वीकार किया है कि “मैं जब कभी अपने कमरे में अकेला होता हूँ तो कुछ होने लगता है । जिसके आधार पर मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरे अन्तः व्यक्तित्व की परिचालना मुख्यतः पूर्व जन्मों के संस्कार ही करते हैं । अवचेतना में निहित जन्म-जन्म के ये संस्कार मुझे समय-समय पर चेतावनी भी देते हैं और परामर्श भी ।”

हालीवुड के प्रख्यात अभिनेता और संगीतकार ग्लैनफोर्ड पर तो विशेष रुप से जाति स्मरण के प्रयोग किये गये । स्वयं फोर्ड भी पुनर्जन्म में आस्था रखते थे अतः वे इस प्रस्ताव पर सहर्ष तैयार हो गये । उन पर जब प्रयोग किया गया तो वे उन्नीसवीं सदी के प्रचलित विशुद्ध अँग्रेजी बोलने लगे । प्रयोगकर्त्ता ने उनसे पूछा कि आप कौन हैं तो फोर्ड ने बताया कि मैं संगीत शिक्षक हूँ । इस पर एक पियानों मँगवाया गया तो उन्होंने ऐसी धुन निकाली जो उस समय कहीं प्रचलित ही नहीं थी । स्पष्ट ही वह उन्नीसवीं सदी की धुन थी । इसके बाद उनसे पूछा गया कि अच्छा बताइये आपका सबसे बढ़िया शौक क्या है ?.पूर्व जन्म की स्मृतियों में पहुँच फोर्ड ने कहा घुड़सवारी करना मेरा सबसे प्रिय शौक है । कहने पर फोर्ड ने घोड़े की सवारी करके भी बताया जबकि वर्तमान जीवन में व्यस्त अभिनेता को घुड़सवारी करने की बात तो दूर रही उसे सीखने का भी कभी समय नहीं मिला था । फोर्ड ने अपने पूर्वजन्म के बारे में आगे बताया, मैं ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहा । क्षय रोग के कारण सन् 1892 में ही मेरी मृत्यु हो जाती है । मुझे स्काटलैंड के एक छोटे से गाँव में गिरजाघर के कब्रिस्तान में दफनाया गया है । वहाँ मेरी कब्र पर अमुक-अमुक लिखा हुआ है । लेकिन जिस स्थान पर मुझे दफनाया गया है, वह देखने में कोई बहुत सुन्दर जगह नहीं है फिर भी मुझे इस बात का कोई रंज नहीं है, क्योंकि मेरे आसपास के प्लाँटों में मेरे कई प्रिय मित्रों को दफनाया गया है ।

जब प्रयोग समाप्त हुआ तो ग्लैन फोर्ड को ये सारी बातें जो टेप कर ली गई थी, सुनाई गयी । आर्श्चय की बात है कि ग्लैनफोर्ड ने अभी तक कभी स्काटलैंड की यात्रा नहीं की थी । बाद में समय निकाल कर वे अपने कुछ मित्रों के साथ स्काटलैण्ड गये और उस को स्थान देखा जहाँ कि जाति-स्मरण प्रयोग के दौरान ग्लैनफोर्ड ने अपने दफनायें जाने की बात कही थी । वहीं गाँव वहीं गिरजा और वही कब्रिस्तान सब स्थानों पर फोर्ड तथा उनके मित्र की टेप की गई बातों के आधार पर इस तरह पहुँच गये जैसे किसी ने कागज कलम से नक्शा बनाकर दे दिया गया हो । कब्र पर गड़े हुए जिस पत्थर की बात कही गई थी, वह पत्थर तो नहीं मिला शायद कोई उखाड़ ले गया था लेकिन कब्रिस्तान वास्तव में ऊबड़-खाबड़ जगह पर था ।

यदि संसार के सफलतम और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों पर जाति-स्मरण का प्रयोग किया जाय तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि उनकी उपलब्धियाँ एक जीवन की देन नहीं है, वरन् उसके पीछे पिछले कई जन्मों की साधना शक्ति पूँजी के रुप में जुड़ी हुई है । उसी पूँजी में सफलता के वर्तमान शिखर छुए जा सके हैं । इसलिए वर्तमान जीवन में किये गये प्रयासों की असफलता के बारे में सोच-सोचकर निराश होने का कोई कारण नहीं है कि किये जा रहे प्रयत्न र्व्यथ जा रहे हैं । किसान बीज बोता है तो बोते समय तो यही लगता है कि बीज र्व्यथ मिट्टी में जा रहे हैं, पर जब वे फसल के रुप में उग आते हैं तो प्रतीत होगा कि बोये गये बीज र्व्यथ नहीं गये वरन् उनका निश्चित परिणाम प्राप्त हुआ है । इसी प्रकार प्रगति और उर्त्कष की दिशा में किये गये कोई भी प्रयास र्व्यथ नहीं जाते । उनके परिणाम निश्चित रुप से मिलते हैं । यह बात अलग है कि उनका परिणाम आज अभी या इसी जन्म में नहीं मिलता लेकिन मिलता अवश्य है । इसी तथ्य को गीताकार ने स्पष्ट करते हुए कहा है, “नेहाभिक्रम नाशोऽरुप् प्राण्यवायो ने विद्यते,’ अर्थात् -जिसका प्रारम्भ कर दिया जाता है उसका कभी नाश नहीं होता और न ही परिणाम में कोई उलट-फेर होता है । इसलिए परिणाम न होता दिखाई देने पर भी प्रयत्नों को शिथिल नहीं करना चाहिए । यह मानकर अनवरत यत्नशील रहना चाहिए कि साधना का फल निश्चित रुप से मिलेगा, आज न मिल पाये तो कल मिलेगा, पर मिलेगा वह निश्चित है ।


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