मायापति विष्णु और उनकी योगमाया

February 1980

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सर्वव्यापक सत्ता का पौराणिक नाम विष्णु है । वही परम सत्ता एवं परम सत्य है । उपनिषदों में उसी चिन्मय सत्ता को महेश्वर कहा गया है । पौराणिक काल में प्रतिपादन के शैली भेद से उसी अद्वैत सत्ता को शैवों में शिव, परमशिव, पशुपति, महादेव, महेश, महेश्वर आदि कहा तो वैष्णवों ने विष्णु, देवाधिपति, हरि, परमात्मा, मायापति आदि विशेषणों से उसकी स्तुति की । उन्हीं विष्णु के बारे में गया है-

“यस्माद्विश्वमिदं सर्व तस्य शकत्या महान्मनः । तस्मादे वोच्यते विष्णुः विशुधातोः प्रवेशनात् ॥

अर्थात् विष् या विशु धातु में ‘नुक्’ प्रत्यय लगाने पर विष्णु शब्द बनता है, यह शब्द उस सत्ता के लिए है जिसकी शक्ति से यह सम्पूर्ण विश्व है ।

वही अविनाशी शक्ति अपने संकल्प से सृष्टि का सृजन करती है । उपनिषदकार ऋषि ने इसी प्रक्रिया का वर्णन यों किया है । -

“यशोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च । यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति ॥ यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि । तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥ (मुण्डक उ॰ 1।1।7)

अर्थात् जैसे मकड़ी अपने ही शरीर से तन्तु उत्पन्न करती है और फिर उन्हें ही समेट कर गृहण कर लेती है, जैसे वनस्पतियाँ, औषधियाँ धरती से पैदा होती है और उसी में मिल जाती हैं, जैसे व्यक्ति के शरीर से बाल निकलते हैं, उसी प्रकार अविनाशी चैतन्य ऊर्जा से, अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है ।

इस प्रकार प्रकृति का आदि स्रोत वह चिन्मय सत्ता ही है किन्तु स्वयं वह चिन्मय सत्ता अचिन्त्य, अज्ञेय, अनिर्देश्य है इसलिए प्रकृति का आविर्भाव काल भी अज्ञेय है । इसी कारण उसे अनादि कहा जाता है । उसका आदि काल जानना असम्भव है । इसी बात को वैदिक ऋषि ने विलक्षण शैली में व्यक्त किया गया है ।

“इयं विसृष्टिर्यत आबभूव, यदि वादधे यदिवान । योअस्याध्यक्षःपरमेव्योमन्त्सोअड.ग्वेद यदिंवानवेद ॥” (ऋ010।126।अन्तिम ऋचा)

अर्थात् जिससे यह सृष्टि आविर्भूत हुई उसने इसे बनाया या नहीं बनाया (यानि केशलोमवत अथवा मकड़ी के जाले की तरह स्वतः उत्पन्न हो गई) यह तो परम व्योम में व्याप्त जो इस सृष्टि का अध्यक्ष है, नियन्ता है, वही जानता है या शायद वह भी न जानता हो।

परमेश्वर, परमात्मा की वीजशक्ति, जिससे यह प्रकृति उत्पन्न है और जिसमें यह सृष्टि या प्रकृति अवस्थित है, उसी का नाम ‘माया’ है ।

जो माया का स्वरुप है, वही प्रकृति का स्वरुप है । माया और प्रकृति दोनों त्रिगुणात्मिक हैं । वस्तुतः माया और प्रकृति में कोई भेद नहीं मानना चाहिए । माया उस चित्-शक्ति का नाम है, जो प्रकृति का बोध कराती है । वस्तु जगत की आदिरुपा एवं समष्टिरुपा प्रकृति है । उसी प्रकार मनोजगत या विज्ञानजगत की आदिरुपा, समष्टिरुपा ‘माया’ है । जीव- सत्ता को प्रकृति का बोध माया की ही शक्ति से होता है, इसीलिए जीवमात्र को माया के स्वरुप के ही अनुसार प्रकृति का बोध होना सम्भव है । इसी कारण व्यष्टि-चेतना की दृष्टि से माया एवं प्रकृति में कोई भी भेद नहीं । श्वेताश्वतर उपनिषद् में इसी से कहा है-

“मायाँ तु प्रकृतिं विद्यात, माथिनं तु महेश्वरम् । (श्वेता0 उ॰ 4।10)

अर्थात् माया को ही प्रकृति समझना चाहिए और मायापति को महेश्वर ।

जो लोग विष्णु की माया को कोई कौतुक चेष्टा समझते हैं, उन्हें न तो शास्त्र का ज्ञान है, न ही सत् का । माया किसी नियम-मर्यादा विहीन कलाबाजी का नाम नहीं है और न ही मायापति काअर्थ कोई शरारती जादूगर होता है । या सामान्य जादूगर भी जादू का खेल तभी दिखा पाता है, जब वह जादू के नियमों को जाने तथा उनका पालनकरें । सर्वव्यापी चेतन-सत्ता तो स्वयं ही सृष्टि संचालक नियमों की सर्जक है, अतः वह उन नियमों की अवहेलना कैसे सहन कर सकती है ? मायाशक्ति स्वयं ही नियमबद्ध है, नियमों की प्रतिष्ठापिका-शासिका है वह प्रकृति से अभिन्न है । प्रकृजि जिन नियमों से संचालित होती है, वे माया-शक्ति के ही नियम हैं । जो प्रकृति की शक्तियों को, नियमों को जितना अधिक जानता है, वह माया के लीला नियमों का उतना ही अधिक ज्ञाता है । प्राकृतिके सम्पूर्ण स्वरुप को, उसके वास्तविक आधार को जानना ही माया को जानना है ।

जो लोग मायावाद का अर्थ यह समझते हैं कि यह संसार माया है यानी असत् है, है ही नहीं, वे न तो माया का अर्थ जानते, नहीं, मायावाद का स्वरुप समझते ।

माया या प्रकृति असत् नहीं है । अपितु वह अनिर्वचनीया कही गई है, अर्थात् ऐसी जिसका शब्दों द्वारा विवेचन सम्भव नहीं । आज आधुनिक वैज्ञानिक भी तो यही कह रहे हैं । प्रख्यात वैज्ञानिक एडिंगटन ने कहा है-’वस्तु-जगत’ का सारभूत अंश पिघलकर छायावत् बन गया है ।वह एक अज्ञात परिणाम मात्र रह गया है जिस के लिए गणितीय संकेत ‘क्ष’ का प्रयोग किया जासकता है । मात्र वह संकेत, जो अनिर्वचनीय है, अमूर्त है, अव्यक्त है, वही यथार्थ है । जो रंग हम देखते हैं, जो ध्वनि हम सुनते और अंकित करते हैं, जो उष्मा हम महसूस करते हैं, जो प्रकाश हमारे देखने का माध्यम बनता है, वह सब अन्ततः हमारी दिमागी बुनावट है । यही बात डा0 बर्टन ने कही है -”मनुष्य के प्रक्षेपण के तल में यथार्थ जगत प्रतीकों का एक कंकाल ढाँचा मात्र है ।”

अब यह सर्वस्वीकृत वैज्ञानिक तथ्य है कि नाना रुपों, नाना वेशों, नाना नामों वाले पर-नारी, पशु-पक्षी, प्राणी, पौधे, पहाड़, नदी-नाले, नक्षत्र, फल-फूल, संगत-शब्द, आदि सभी कुछ वैज्ञानिक विश्लेषण में मात्र विद्युत प्रवाह या अव्यक्त-निर्वचनीय तरंग प्रवाह बनकर रह जाता है । तब क्या यह सब असत्य है ? तब तो स्वयं वैज्ञानिक भी असत्य हैं, उनके उपकरण असत्य हैं, क्योंकि वे सब तरंगें प्रवाह मात्र हैं । स्पष्ट है कि कोई भी वैज्ञानिक स्वयं को अपने प्रयोगों को असत्य नहीं मानता । न ही संसार को असत्य मानता। किन्तु साथ ही वह पदार्थो के वर्तमान रुपों को अंतिम सत्य भी नहीं मानता । व्यावहारिक दृष्टि से, वे सत्य हैं, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से चरम अर्थो में वे इस रुप में सत्य नहीं है । उस दृष्टि से उनका वास्तविक रुप भिन्न है । यही अनिर्वचनीयता की स्थिति है, जो मायावादी प्रतिपादन का भी निर्ष्कष है ।

जगत् को सत्य न मानने का कारण, मनीषी पूर्वजों की सत्य की भिन्न परिभाषा थी । सत्य की शास्त्रीय परिभाषा यह है कि -

“ त्रिकालाबाध्यं सत्यम् ।”

भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में, जागृत स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों दशाओं में जो एक ही रुप से अवस्थित रहे, जिसका रुप बाधित न हो वह सत्य है । आचार्य शंड.कर ने कहा है-

“यद्रुपेण यन्निश्चितं तद् रुपं न व्यभिचरति येत् सत्यम् ॥”

अर्थात् “जिसका जो रुप निश्चित है उसका वह रुप कभी भी अन्यथा न हो, तब वही सत्य है । सामान्य अर्थो में जिसे सत्य कहा जाता है, वह सापेक्ष सत्य है । निरपेक्ष दृष्टि से वह सत्य नहीं है, किन्तु वह असत्य भी नहीं है । इस गम्भीर दार्शनिक प्रतिपादन को न समझने वाले मूढ़मति कल्पनाजीवी ‘ ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या’ जैसे कथनों की आड़ में मनमानी व्याख्याएँ और मनमाने आचरण करते रहते हैं ।

त्रिकालावाधित निरपेक्ष सत्य एक ही है सर्वव्यापी भूमा प्राण, चैतन्य-ऊर्जा, परम सत्ता, विष्णु । वही एक है, अद्वितीय है । शेष सब सापेक्ष सत्य हैं । इस सापेक्ष सत्य का बोध कराने वाली शक्ति माया है यह माया सृजन और संहार के बीच के नाना नाम रुपों वाली नाना क्रियाओं का जो बोध कराती रहती है, उसे ही व्यक्ति सत्य मानता रहता है । जबकि इस सृष्टि का जगत नाम ही इसलिए पड़ा कि यहाँ हर वस्तु निरन्तर गतिशील है । परिणाम प्रवृत्ति या परिवर्तन जगत का स्वभाव है । एक क्षण के लिए भी जगत प्रवृत्ति शून्य नहीं रहता । परिवर्तन की प्रक्रिया यहाँ अविराम चलती रहती है । इस प्रतिक्षण परिणामी, नियत परिवर्तनशील, सतत चन्चल जगत के तात्कालिक अनुभवों को जीवधारी, माया-शक्ति के कारण स्थिर सत्य समझ बैठते हैं ।

इस प्रकार सापेक्ष सत्य को स्थिर सत्य मान बैठने की प्रवृत्ति ही माया बन्धन है । जगत की सत्ता है ही नहीं, ऐसा वेदान्तविद् कभी नहीं कहते । वे मात्र यही कहते हैं कि जगत की व्यावहारिक सत्ता है । पारमार्थिक दृष्टि से जगत सत्य नहीं है, न ही असत्य है अपितु वह ‘मिथ्या’ है । यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वेदान्त में मिथ्या का अर्थ ‘असत्’ नहीं, अपितु अनिर्वचनीय होता है ।

त्रिकालावाधित सत्य एक ही है-ब्रह्म या विष्णु । जगत मिथ्या या अनिर्वचनीय है । उसकी स्वयं की सत्ता तो वास्तविक है । किन्तु वह सत्ता सतत परिवर्तनशील है, परिणामशील है । व्यक्ति जब इस परिवर्तनशील जगत के किसी अनुभव विशेष को परम सत्य मान बैठता है, तो वह भ्रम में होता है, माया-पाश में बँधा होता है । स्पष्ट है कि यह प्रतिपादन आधुनिक विज्ञान के अन्वेषणों से भी खरा उतरता है ।

सर्वव्यापी चैतन्य ऊर्जा विष्णु है । इस विष्णु की चार भुजाएँ या चार चेतनात्मक प्रवृत्तियाँ हैं । सम्भूति और असम्भूति उनकी दाहिनी भुजाएँ हैं और विद्या एवं अविद्या वाम भुजाएँ हैं । यह फोटान कणों आदि से भी परे चित्-शक्ति प्रवृत्तियाँ हैं । सम्भूति का प्रतीक है-चक्र, एवं असम्भूति का प्रतीक है-गदा । ये दोनों ‘भूमा-प्राण’ की अभिव्यक्तियाँ हैं, जो सृजन एवं संहार की क्रियाशक्ति का आधार हैं ।

सम्भूति-शक्ति से प्राण ऊर्जा तथा असम्भूति-शक्ति से अपान-ऊर्जा प्रफुटित होती है । दोनों ही शक्तियाँ भूमा प्राण का अंश हैं, जो सर्वव्यापक हैं । द्यान्दोग्य उपनिषद् के अध्याय 24 मंडल 1 में सनत्कुमार ने नारदजी से स्पष्ट किया है-

“यत्र नान्यत्पश्यचि नान्यच्छृणोति’ नान्यद्विजानाति स भूमाथ ॥”

अर्थात्- ‘जहाँ और कुछ नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता और कुछ और नहीं जानता, वह भूमा है ।’ भूमा सर्वत्र है । वह अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित है । वही विष्णु शक्ति है ।

“विसिनोति सर्वान प्राणिनः विशति वा सर्वेषु प्राणिषु इति विष्णु- ।”

अर्थात् जो सभी प्राणियों को परस्पर अविच्छिन्न सूत्र में संग्रथित किये हैं और जो सबके भीतर भी विद्यमान है, वह विष्णु है । चराचर जगत की सभी गतिविधियाँ इसी भूमा प्राण या विष्णु के आधीन है । इनकी दो मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं (1) स्थितिक ऊर्जा (2) गतिज ऊर्जा यानि सम्भूति एवं सम्भूति । गतिज ऊर्जा या सम्भूति निर्वाध प्रसार की ओर प्रवृत्त रहती है । स्थितिक ऊर्जा सदा शून्य में समाहित होने की ओर प्रवृत्त रहती है । ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है और सतत शून्य में भी समाहित हो रहा है, यह अर्वाचीन विज्ञान की एक प्रसिद्ध अवधारणा है ।

सृजन और संहार एकाँगी प्रक्रियाएँ नहीं है । उत्पत्ति और विनाश सदा साथ रहते हैं । जन्म के साथ ही मृत्यु की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है । ब्रह्माण्ड विस्तार और ब्रह्माण्ड-विलय साथ-साथ हो रहा है । यह संसार अनादि काल से सृष्टि और प्रलय के मध्य दोलायमान है । सृजन के अधिदेव ब्रह्मा सम्भूति-शक्ति के प्रतिनिधि हैं और संहार के अधिदेव रुद्र असम्भूति शक्ति के प्रतिनिधि हैं । सृष्टि और लय का सह समन्वित क्रम सतत गतिशील है । इन्हीं दो छोरों के बीच मानों पेन्डुलम की तरह संसार निरन्तर दोलायमान है । प्रत्येक क्षण सृजन-संहान का, जन्म-मरण का वृद्धि-क्षय का उर्त्कष-अपकर्ष का यह क्रम चल रहा है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में असम्भूति को स्थितिक ऊर्जा और सम्भूति गतिज ऊर्जा कहते हैं । दोनों का अविकल द्वन्द्व जारी है । दोनों का प्रत्याहरण-बल सदा ही मध्य-बिन्दु की ओर उन्हें निर्देशित करता रहता है । चेतना मनुष्य में यही द्वन्द्व संस्कार एवं वासना के रुप में उभरता है । संस्कार का आधार स्थितिक ऊर्जा है और वासना गतिज ऊर्जा से संचालित होती है । इन दोनों के बीच निरन्तरदोलन की मायापति विष्णु की योगमाया का आकर्षण है । सम्भूति शक्ति को रजोगुण एवं असम्भूति शक्ति को तमोगुण भी कहा जाता है । इन दोनों का ही प्रकाशन या बोध सतोगुण है । उस बोध से प्राणी में आत्मिक सुख का भाव उत्पन्न होता है ।

सम्भूति-शक्ति संकल्पमूलक तथा आसक्तिमूलक आवेग बनकर व्यक्ति में प्रकट होती है यह रागात्मि का वृत्ति है जो प्राणी को कर्म में प्रवृत्त कराती है।

असम्भूति शक्ति मोह एवं मूढ़ता-भाव के रुप में अभिव्यक्त होती है । वह जड़तामूलक वृत्ति है । स्थिति एवं धृति के रुप में वह प्राणी में देखी जाती है ।दोनों का यथार्थ-बोध सतोगुण है, जो सन्तुलन की शक्ति देता है तथा सत् के चिदानन्द-स्वरुप के निकटतर ले जाता है । विष्णु की बाँयी भुजाएँ हैं विद्या और अविद्या । विद्या का प्रतीक है-शंख । अविद्या के स्रोत से शक्ति प्राप्तकर चेतना की दिशा में अभिमुख होने का प्रतीक है । पंकज जो कि पंक में होता है, किन्तु सविता की किरणों का साधक-आराधक होता है। यहाँ भी विद्या में प्रवृत्ति रजोगुणी है, सतोगुणी बोध में ही उसकी सार्थकता है । अन्यथा विद्या भी बन्धन कारक है । अविद्या वस्तुतः असत् की प्रतीति है । इस प्रतीति का सही-सही रुप जानने पर वह भी चेतना के अभिज्ञान में सार्थक एवं सहायक सिद्ध हो सकती है । कमल इसी सार्थकता का प्रतीक है। यदि अविद्य का ऐसा सार्थक उपयोग नहीं किया गया और उसके द्वारा चेतना के मूल स्वरुप की उपासना में सहायता नहीं ली गई, तब पद्य का प्रस्फुटन सम्भव नहीं, तब तो बस कीचड़ ही कीचड़ होगा, जिसमें जोंक आदि पैदा होंगीं, कमल नहीं खिलेगा । व्यक्ति चेतना में विद्य और अविद्या के बीच निरन्त द्वन्द्व चलता रहता है । इसी चिन्मूलक द्वन्द्व का नाम माया है । ईशावास्य उपनिषद् में कहा है कि सत्य का मुख्य हिरणमय पात्र के ढंका हैः-

“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्या विहितं मुखम् ।”

यही हिरण्मय पात्र या आवरण माया है । माया को एक चकाचौंध, कहा जा सकता है, जो अपने तीव्र एवं चपल प्रकाश में आँखों में ऐसा प्रभाव डालती है कि उसमें वस्तुएँ दिखती तो हैं किन्तु ठीक से नहीं देखी जा सकतीं । विद्या और अविद्या, सत् और असत्, सम्भूति और असम्भूति के इस द्वन्द्व के यथार्थ स्वरुप को समझा लेने पर ही व्यक्ति माया के स्वरुप को तथा मायापति विष्णुको समझता है । उसी स्थिति में नानात्व के मूल में सक्रिय एकत्व का साक्षात्कार होता है । ईशोपनिषद् में इसी तथ्य का निर्देश करते हुए कहा गया हैः-

“विद्याँ च अविद्याँ च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्याया मृत्युँ तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥”

“सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह । विनाशेन मृत्युँ तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥”

अर्थात्-’जो विद्या और अविद्या, को साथ-साथ जानता है, वही अविद्या द्वारा मृत्यु को पार कर विद्या की शक्ति से अमृतत्व को प्राप्त करता है ।

जो सम्भूति, असम्भूति दोनों को यथार्थ सम्यक् ज्ञान प्राप्ति कर लेता है वह असम्भूति से मृत्यु को पार कर सम्भूति से अमृतत्व को प्राप्त करता है । इस प्रकार सर्वव्यापी विष्णु की उभयात्मक शक्तियों का यथार्थ स्वरुप जानना और निरन्तर सक्रियता के बीच भी सनातन चित् तत्व का ध्यान रखना ही विष्णु पूजा है । संस्कार रुपी स्थितिक ऊर्जा या सम्भूति और वासना रुपी गतिज ऊर्जा या सम्भूति दोनों के यथार्थ स्वरुप को जानकर वासनाओं को श्रेष्ठ कामनाओं में रुपान्तरित करते हुए, संस्कारों का सतत परिष्कार करते हुए भूमा की उपासना में प्रवृत्त रहने में ही जीवन की सार्थकता है । माया-बन्धन से मुक्ति का वही मार्ग है । दोनों ही प्रकार की शक्तियों की संचालक विष्णुसत्ता सूक्ष्म रुप में प्रत्येक प्राणी के हृदयाकाश में सच्चिदानन्द रुप में विद्यमान है । उस चेतन-तत्व का प्रकाश जीवन में अधिकाधिक संव्याप्त होता चले, यही प्रयास मनुष्य का पुरुषार्थ है, कर्त्तव्य है ।


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