अध्यात्म सिद्धान्त उपयोगी भी और प्रामाणिक भी

February 1980

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आध्यात्मिक सिद्धान्तों के अतिरिक्त ऐसा कोई केन्द्र नहीं है-जो मनुष्य की आस्थाओं पर नियन्त्रण रख कर उसे उचित और सार्थक दिशा प्रदान कर सके । मनुष्य के लिए उसके जीवन की अपने लिए सार्थकता और समाज के लिए उपयोगिता तभी सिद्ध होती है जबकि जीवन को पवित्र एवं शालीन बनाया जाय । उससे जहाँ व्यक्तिगत संतोष प्राप्त होता है वहीं उन सिद्धाँतों के रुप में सामाजिक सुव्यवस्था की आधारशिला भी रखी हुई है । उन सिद्धाँतों को अपनाने से ही सर्वजनीन प्रगति एवं सुख शान्ति का पथ प्रशस्त होता है ।

शरीर की नश्वरत, आत्मा की अमरता, कर्मफल की सुनिश्चितता तथा परलोक और पुनर्जन्म की सम्भावना ये चार ऐसे सिद्धाँत हैं जो धर्म और अध्यात्म की सभी शाखाओं में किसी न किसी रुप से प्रतिपादित किये गये । यों कई धर्मो में पापों से क्षमा हो जाने और मरणोत्तर जीवन की स्थिति में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं, पर वे इतनी कठोर नहीं हैं कि उनमें उपरोक्त चार सिद्धाँत जड़ मूल से ही कट जाते हैं । सभी धर्मो की मान्यता है कि मरणोत्तर जीवन किसी न किसी रुप में बना ही रहता है । कर्मो को भले ही नैतिक रुप में न माना गया हो । भले ही उसे साम्प्रदायिक विश्वासों की परिधि में इस प्रकार लपेट लिया गया हो तो भी यह नहीं कहा गया है कि कर्मो का कोई फल नहीं मिलता । इस तरह के छोटे मोटे मतभेद प्रायः सभी धर्म संप्रदायों में पाये जाते हैं फिर भी ऊपर वर्णित चार मूल सिद्धाँतों में आम सहमति ही पाई जाती है ? और प्रत्येक धर्म इन सिद्धाँतों के माध्यम से अनेक अनुयायियों को सर्त्कम करने की प्रेरणा देता है ।

यह सच है कि वर्तमान जीवन में शुभ कर्म करने वाला भले ही तत्काल सुखद परिणाम प्राप्त न कर सके लेकिन उसे मरणोपराँत जीवन में या अगले जन्म में इन कर्मो का पुरुस्कार ब्याज सहित मिलना सुनिश्चित है । पुनर्जन्म में आस्था और मरणोत्तर जीवन में विश्वास व्यक्तियों को बुरी से बुरी और कष्ट कर से कष्ट कर परिस्थितियों में भी शुभ कर्म करने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करता है । इसी विश्वास के आधार पर लोग त्याग और बलिदान के बड़े-बड़े साहस पूर्ण कदम उठाते रहते हैं । यही विश्वास व्यक्ति को पाप कर्मो से बचाये रहता है क्योंकि पुनर्जन्म और कर्मफल में विश्वास रखने वाला व्यक्ति अनिवार्य रुप से यह मानता है कि इस समय और वर्तमान जन्म में भी सही पाप कर्मो के दंड से बच पाना भले ही सम्भव हो जाय, किसी प्रकार चतुरता से उनके बुरे परिणामों से बचाव कर लिया जाय लेकिन आगे चलकर इस जन्म में न सही, अगले जन्मों में उनका दंड भुगतना ही पड़ेगा । यह विश्वास मनुष्य को दुर्ष्कम करने से रोक लेता है और उसे कुकर्मो से अपना हाथ खींचने के लिए विवश सा कर देता है । यदि इस मान्यता को हटा दिया जाय तो सत्कर्मो का परिणाम तत्काल न मिलने पर उनके प्रति किसी में न अभिरुचि जिंदा बचेगी और न ही उत्साह जीवित रहेगा । इसी प्रकार पापकर्मो से सामाजिक बचाव करने की चतुरता और चालाकी भरी तरकीबें ढूँढ़ कर तथा उन्हें अपना कर कोई भी व्यक्ति अनीति अपनाने पर मिलने वाले लाभों को छोड़ने की इच्छा कदापि नहीं करेगा । इसके विपरीत नैतिकता और सत्कर्मो की मूर्खता समझा जायगा। कई लोग जिन्हें पुनर्जन्म तथा कर्मफल की सुनिश्चितता के प्रति विश्वास नहीं है, आज भी नैतिकता और ईमानदारी को मूर्खता ही समझते हैं ।

समझने वाले चाहे जो समझते रहें पर तथ्य तो तथ्य है । सूर्य के अस्तित्व को आँख मूँद कर कितना ही झूठ लाया जाय अथवा जन्मजात अन्धा व्यक्ति प्रकाश के अस्तित्व को भले ही स्वीकार न करे, पर न उससे सूर्य झूठा होता है और न प्रकाश मिथ्या होता है । नैतिक आदर्शो को मूर्खता बता कर उनकी चाहे जितनी उपेक्षा की जाय और चाहे जितना मजाक बनाया जाय । लेकिन वे सत्य हैं और उपयोगी तथा आवश्यक भी । यदि उनकी उपेक्षा की जायगी तो यह निश्चित है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति और समाज में अनैतिक तथा अवाँछनीय तत्वों और प्रवृत्तियों की बाढ़ आ जायगी । इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने में धार्मिक मान्यताएँ और आध्यात्मिक आदर्श ही समक्ष है । विचार किया जाना चाहिए कि धार्मिक मान्यताओं का अंकुश रहते हुए भी लोग दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने में संकोच नहीं करते तो उन्हें खुली छूट मिल जाने पर तो और भी भंयकर स्वेच्छाचार फैल आयगा तथा उस उच्छृंखलता से सारे समाज का, समस्त मनुष्य जाति का और समूचे संसार का और भी भारी अहित रहेगा ।

मरने के बाद फिर से जन्म लेना पड़ता है, यह मान्यता चिंतन के लिए कितने ही उत्कृष्ट आधार खड़े करती है । आज कोई व्यक्ति हिन्दू, भारतीय और पुरुष है तो अगले जन्म में वह ईसाई, यूरोपियन और स्त्री भी हो सकता है । ऐसी दशा में सहज ही यह प्रेरणा उठती है कि र्व्यथ ही क्यों साम्प्रदायिक कलह के बीज बोये जाँय और ऐसी परम्पराएँ बनाई जाँय जिनसे अगले जन्म में अपने लिए ही विपत्ति खड़ी हो जाय । आज जो सत्ता की कुर्सी पर बैठा है या कुलीन है, पुनर्जन्म की मान्यता उसे सोचने के लिए प्रेरित करती है कि अगले जन्म में वह साधारण प्रजाजन भी हो सकता है और उस स्थिति में उच्च स्थिति वालों को स्वेच्छाचार कितना कष्टकारक होगा । यह विचार अथवा चिंतन व्यक्ति को मर्यादाओं में रहने और दूसरों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करने के लिए भी आँतरिक रुप से विवश करता है । इस तरह के विचार दूसरों की स्थिति में अपने को रख कर उदात्त दृष्टिकोण अपनाने की प्रबल प्रेरणा देते हैं ।

भौतिक विज्ञान ने अभी तक जितने भी तत्वों का पता लगाया है उनमें किसी में भी चेतना के गुण नहीं मिले हैं, इस स्थिति में चेतना की एक स्वतंत्र सत्ता स्वीकार किये बिना कोई चारा नहीं दीखता । यह भी कहा जा सकता है कि चेतना के अस्तित्व को विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध करके नहीं दिखाया जा सकता । उसके प्रमाण भले ही मिल जाँय पर चेतना इतना सूक्ष्म है कि उसे स्थूल उपकरणों के माध्यम से नहीं पकड़ा जाता । हवा को पकड़ने के लिए मुट्ठी को कितना ही कसा जाय वह मुट्ठी से सूक्ष्म है और उसकी पकड़ में आ ही नहीं सकती । चेतना तो वायु, अग्नि, आकाश आदि सूक्ष्म तत्वों से भी सूक्ष्म है फिर उसे स्थूल उपकरणों द्वारा कैसे पकड़ा जा सकता है ? जो भी हो, चेतना का अस्तित्व असंदिग्ध है और उसका अस्तित्व स्वतंत्र है । यह बात अलग है कि वह अमुक शरीर में अमुक स्तर की हो, किन्तु है वह स्वतंत्र ही ।

चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रमाण मृतात्माओं की हलचलों के उन विवरणों में मिलते हैं जो समय समय पर अधिकृत और प्रामाणिक ढंग से सामने रखे जाते हैं । पिछले जन्मों की सही स्मृति के प्रमाण देने वाले घटनाक्रमों का प्रत्यक्ष परिचय भी इन दिनों इतनी अधिक संख्या में सुविस्तृत रुप से मिलता है कि उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता । ऐसी दशा में पिछली पीढ़ी के वैज्ञानिकों द्वारा दिया जाने वाला है फलवा अपने आप निरस्त हो जाता है, जिसमें उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को एक सिरे से इन्कार किया था ।

इन प्रमाणों के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी आत्मा के अस्तित्व को प्रभावशाली ढंग से सिद्ध करता है । कोई भी मनुष्य अपने बारे में स्वयं ही विचार करने पर किसी भी दशा में यह स्वीकार नहीं होता कि अपना अस्तित्व समाप्त हो जायगा । चाहे मुक्ति की कल्पना की जाय अथवा मृत्यु की या और किसी भी स्थिति की कल्पना की जाय भीतर यह विचार टिकता ही नहीं है कि अपना अस्तित्व समाप्त हो जायगा । चेतना इस तथ्य को कभी स्वीकार ही नहीं करती । यही कारण है कि लोग प्रतिदिन दूसरे व्यक्तियों को मरते हुए देखते हैं, उस समय श्मशान का भय भी उत्पन्न होता है पर भीतर से यह प्रेरणा स्फूर्ति होती है कि मैं तो अमर हूँ । इस प्रेरणा को लोग भले ही शारीरिक स्तर पर ग्रहण करते हैं या मृत्यु के भय से शरीर को नष्ट न होने देने की बात सोचते हैं पर मूल रुप में वह चेतना का ही स्पंदन होता है, जो अपने मस्तिष्क को शाश्वत सिद्ध करता है अथवा समझता है । मनःशास्त्र के इस स्वतः प्रमाण द्वारा यह आसानी से समझा जा सकता हे कि जीव चेतना की स्वतंत्र सत्ता है । भौतिक विज्ञान के अनुसार तत्वों को मूलभूत गुण धर्मो को नहीं बदला जा सकता । उनके सम्मिश्रण से पदार्थो की शक्ल बदली जा सकती है । रंग को गन्ध में, गन्ध को स्वाद में, स्वाद को रुप में और रुप को र्स्पश में नहीं बदला जा सकता । वे अपने मूल रुप में बने रहकर अन्य प्रकार की शक्ल या स्थिति तो बना सकते हैं किन्तु रहेंगे सजातीय ही । दो प्रकार की गन्ध मिलकर तीसरे प्रकार की गन्ध बन सकती है, इसी प्रकार दो तरह के स्वाद मिलकर तीसरे प्रकार का स्वाद बन सकता है, दो रंग मिलकर तीसरे प्रकार का रंग भी बन सकता है, पर गंध गंध ही रहेगी, स्वाद, स्वाद ही रहेगा और रंग भी रंग ही रहेगा । वे गंध से स्वाद में या स्वाद से रंग में अथवा रंग से गंध में नहीं बदल सकते । यह विभिन्न प्रकार के परमाणुओं की विभिन्न प्रकार की हलचलों के कारण होता है पर इससे चेतना के अस्तित्व का कहीं भी पता नहीं चलता ।

संवेदनाओं को अनुभव मस्तिष्क में होता है लेकिन मस्तिष्क के कण स्वयं संवेदनशील नहीं होते । यदि उन कणों में संवेदनशीलता होती तो मरने के बाद भी शरीर को अनुभूतियाँ होनी चाहिए थीं, लेकिन ऐसा नहीं होता । ध्वनि या प्रकाश के कम्पन भी जड़ हैं और मस्तिष्कीय अणु भी जड है । दोनों के मिलने पर जो विभिन्न तरह की अनुभूतियाँ मस्तिष्क में होती हैं उनका कारण पदार्थ को नहीं माना जा सका । इस प्रकार चेतना की स्वतन्त्र सत्ता अब विज्ञान सिद्ध होती जा रही है । इस प्रकार अध्यात्म सिद्धान्त न केवल उपयोगी है, बल्कि प्रामाणिक भी है और उनकी प्रामाणिकता को एक-एक कदम चलने हुए प्रतिष्ठा मिल रही है, मान्यता प्राप्त हो रही हैं ।


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