विशिष्ट प्रयोजन के लिये, विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज

February 1980

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नवयुग सृजन का बड़ा काम है।उसके लिए सहयोगी तो गीद, गिलहरी भी हो सकते हैं, पर महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए अंगद, हनुमान जैसे वानरों और नल, नील जैसी रीछों की आवश्यकता पड़ती है। गौ चराने, गेंद खेलने और गोवर्धन उठाने में लाठी का सहयोग देने के लिए तो ग्वाल-वाल भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके, किन्तु महाभारत जीतने में भीम, अर्जुन से ही काम चला । स्वतन्त्रता संग्राम के जीतने में भी सत्साहसियों की जेल यात्रा को ही सराहा जायगा पर नेहरु पटैल जैसी हस्तियाँ आगे न आतीं तो महान प्रयोजन कदाचित ही पूर्ण हो पाता, महान परिवर्तनों में योगदान तो असंख्यों का रहा है किन्तु उसका सूत्र संचालन महामानव ही करते रहे हैं । छप्पर तो बाँस बल्लियों पर भी खड़े रहते हैं, पर नदी या नाले का पुल बनाने में ऐसे मजबूत पाये लगाने पड़ते हैं जो उस परिवहन का भार सह सकें ।

युग सृजन में सहयोगी कोई भी हो सकता है यह उसका उत्तरदायित्व कंधों पर ओढ़ने वाले सृजन शिल्पियों को नल-नील जैसा प्रबुद्धि एवं परिपक्व होना चाहिए। ऐसी भूमिका निभा सकना हर किसी के बस की बात नहीं है । सिखाने पढ़ाने से थोड़ा सा काम तो चलता है पर प्रखरता मौलिक एवं संस्कारगत होनी चाहिए । लोहे की मजबूती उसकी संरचना में ही सन्निहित है। कारखानों में ढालने, खरादने का काम होता है, कृत्रिम लोहा नहीं बन सकता और न उसका स्थानापन्न किसी अन्य धातु को बनाया जा सकता है ।

प्रशिक्षण, वातावरण, एवं सर्म्पक का प्रभाव तो पड़ता है पर महामानव इतने से ही नहीं बन जाते । उनके लिए संस्कार गत मौलिकता एवं संचित प्रखरता की भी आवश्यकता होती है । विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को आग्रहपूर्वक माँगा था और उन्हें वला अतिवला विद्याएँ सिखा कर महान परिवर्तन के लिए उपयुक्त क्षमता सम्पन्न बनाया था । चाणक्य ने चन्द्रगुप्त-समर्थ रामदास ने शिवाजी, बुद्ध ने आनन्द, महीन्द्रनाथ ने गौरख रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को बड़ी कठिनाई से ढूँढ़ा था । आगन्तुकों की भारी भीड़ में से इन सभी शक्ति सम्पन्नों को कोई काम का न लगा । बड़ी कठिनाई से ही वे अपने थोड़े से अनुयायी उत्तराधिकारी ढूँढ़ने में सफल हुए । विवेकानन्द ने निवेदिता से कहा था मुझे मात्र तुम्हाने लिए योरोप की यात्रा करनी पड़ी ।

अवतार के समय देवता उसकी सहायता करने आते और देह धारण करते है। सामान्य मनुष्यों की मनःस्थिति नर पशुओं जैसी होती है वे पेट और प्रजनन के लिए मरते खपते हैं तथा लोभ, मोह अहंकार की लिप्साओं से बने कोल्हू में पिलते रहते हैं । यही उनकी प्रवृत्ति और नियति होती है।उनमें थोडा सा उत्साह तो भरा जा सकता है और एक सीमा तक प्रगतिशील भी बनाया जा सकता है किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे देव भूमिका निभा सकने में सफल नहीं हो पाते । इसके लिए संचित संस्कारों की आवश्यकता है । खिलौने बालू के नहीं चिकनी मिट्टी के बनते हैं हथौड़े की चोट जंग लगे लोहे नहीं, फौलादी इस्पात ही सह पाते हैं ।

युग सृजन के आरम्भिक चरण बाल-कक्ष जैसे हैं । उनमें हर स्तर के व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ कर सकने योग्य-शत सूत्री कार्यक्रम बनाये गये हैं । जन आन्दोलन इसी प्रकार का होता है । गाँधी जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन को सर्व सुलभ बनाने की दृष्टि से नमन सत्याग्रह विदेशी वस्त्र एवं शराब की दुकानों पर धरना, प्रतिबन्ध उल्लंघन जैसे कार्यक्रम बनाये थे । वे व्यापक भी हुए थे इतने पर भी उस आन्दोलन का सूत्र संचालन कर सकने की क्षमता नेहरु, पटेल, जैसे मुट्ठी भर लोगों में ही थी, स्पष्ट है कि यदि उच्चस्तरीय हस्तियाँ बागडोर न सँभालतीं तो जेल आन्दोलन को उतनी जल्दी और उतनी आर्श्चयजनक सफलता न मिल पाती जैसी कि उसमें मिल सकी । महामानव ही किसी देश, समाज, या युग की वास्तविक सम्पदा होती है । प्रखर व्यक्तित्वों का कुशल नेतृत्व ही उफनती नदी में नाव खेतो और तूफानों से टकराते हुए जहाज को किनारे लगाता है।

युग सृजन के अनेक महत्वपूर्ण कामों में सबसे प्रमुख है-उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ क्षमताओं को ढूँढ़ निकालना और उन्हें प्रशिक्षित परिपक्व करना ।यह कार्य धीमी गति से तो अभियान के प्रथम दिन से ही चल रहा है, पर अब उसमें अधिक तीव्रता लाने की आवश्यकता पड़ रही है । क्योंकि उत्तरदायित्व क्रमशः अधिक भारी होते चले जा रहे हैं । सामान्य भार वहन सामान्य क्षमता के सहारे भी होता रहता है । जब-जब अधिक उठाना अधिक ढोना एव अधिक दौड़ना हो तो वाहन तथा साधन उसी स्तर के जुटाने होंगे । आरंभिक चरण में जागृत आत्माओं से भी काम चलता रहा है, पर अब अधिक क्षमता सम्पन्नों की आवश्यकता पड़ रही है । अस्तु ढूँढ़ने का प्रयास अधिक सुविस्तृत किया जा रहा है । उपयुक्त प्रतिभाओं से सर्म्पक साधना उन्हें तत्पर तथा सक्षम बनाना एवं कार्य क्षेत्र में उतर सकने की सामर्थ्य से सुसम्पन्न करना ही इन दिनों मिशन की परोक्ष गतिविधियों को मूर्धन्य प्रयास है। प्रत्यक्ष कार्यक्रम तो पूर्ववत् हैं । व्यक्ति, परिवार और समाज के नव निर्माण की जो रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चल रही हैं । उनमें हेर-फेर कुछ नहीं करना है। मात्र उनका स्तर एवं विस्तार ही बढ़ना है । प्रत्यक्ष क्रिया-कलापों में इतना अभिवर्धन होगा किन्तु परोक्ष ढूँढ़ खोज के लिए उन प्रयासों पर विशेष ध्यान दिया जायगा जो समर्थ प्रतिभाओं को ढूँढ़ने, और उछालने की सामयिक माँग पूरी कर सकें ।

एक जैसी शकल सूरत और समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के मध्य भी कई बार स्तर की दृष्टि से जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है यह उनकी उस आन्तरिक संरचना का होता है जो जन्म-जन्मान्तरों से संचित संस्कारों से बनती है । यह सम्पदा किस के पास है यह जाँचना, जन-जन की तलाशी लेने के समान है। तलाशी ऐसी भी नहीं जो चारों जमाखोरों के यहाँ पुलिस द्वारा छापा मार कर पकड़ने की तरह सरल हो । वस्तुएँ तो पकड़ी जा सकती हैं, पर अन्तस् की प्रवृत्तियों की जाँच पड़ताल और खोजबीन करना कठिन है । लोग भीतर कुछ होते हैं और बाहर कुछ बनते रहते हैं। दंभ बहुत और तथ्य कम वाले बहरुपियों, अभिनेताओं और बाजीगरों से जनसमाज भरा पड़ा है । इनकी गहराई में कैसे उतरा जाय? खारी जल राशि से भरे समुद्र में गहरी डुबकी मार कर मोतियों को किस तली तलहटी में ढूँढ़ा जाय । उन क्षेत्रों में पाये जाने वाले मगरमच्छों से बचने और जूझने की कुशलता के बिना कोई गोताखोर सफल नहीं हो सकता । इस प्रयास में भी ऐसी ही तैयारी करनी पड़ रही है ।

युग परिवर्तन सृष्टि के इतिहास में अभूत पूर्व अवसर है। पिछले दिनों दुनिया बिखरी थी । स्थानीय समस्याओं के सामयिक समाधान करना ही तत्कालीन महामानवों का छोटा सा उत्तरदायित्व रहता था। रावण, कंस, दुर्योधन आदि के अनाचार सीमित क्षेत्र में थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा होते हैं । अधिक होने से उसके समाधान भी लंका युद्ध, महाभारत जैसे उपचारों से निकले और मुट्ठी भर प्रतिभाओं ने वे कार्य सम्पन्न कर दिये । वैसी स्थिति अब नहीं है दुनिया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई है । हवा का प्रभाव एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचता है । 400 करोड़ मनुष्य अब एक दूसरों को प्रकारान्तर से प्रभावित करते हैं ।

इन विषम परिस्थितियों में बहुमुखी समस्याओं की जड़े लोक मानस में अत्यन्त गहराई में घुसी हुई होने के कारण, युग परिवर्तन अतीव कठिन है । गुण, कर्म, स्वभाव लोक धारा को उलटना-समुद्र के खारी जल को हिमालय की सम्पदा बना देना कितना कठिन है उसे हर कोई नहीं समझ सकता । उसे भुक्तभोगी बादल ही जानते हैं कि उसमें कितना साहस करने कितना भार ढोने कितना उड़ना, और कितना त्याग करना पड़ता है । युग परिवर्तन के भावी प्रयासों को लगभग इसी स्तर का माना जाना चाहिए।

युग सन्धि की अत्यन्त महत्वपूर्ण मध्य वेला सन् 1980 से 2000 तक की है। इन बीस वर्षो में महान परिवर्तन होंगे और विकट समस्याओं को समाधान करना होगा । बुझते दीपक की लौ, प्रभाव से पूर्व की सघन तमिस्रा मरणासन्न की साँस, चींटी के उगते पंख, हारे जुआरी के दाव को देख कर, मरता सो क्या न करता की उक्ति को चरितार्थ होते प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । असुरता अपनी अन्तिम घड़ियों में जीवन-मरण की लड़ाई लड़ेगी और संकट, विक्रह अपेक्षाकृत अधिक बढ़ेंगे । इसी प्रकार देवत्व की प्रतिष्ठापना के लिए भी बीजारोपण के साथ प्रचंड उत्साह के साथ काम करने वाले किसान जैसी भूमिका की दर्शनीय होगी। दोनों पक्ष एक दूसरे से सर्वथा विपरीत होते हुए भी परम साहसकिता का परिचय देंगे । एक दूसरे के साथ टकराने से भी पीछे न हटेंगे । साँड़ लड़ते हैं तो खेत खलिहानों को तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। युग परिवर्तन प्रसव पीड़ा जैसे कष्ट कारक होते हैं उसमें डाक्टरों, नर्सो की पूर्णतया जागरुक रहना पड़ता है। प्रसूता की तो जान पर ही बीतती है । उसकी सुरक्षा सान्त्वना में अतिरिक्त इन लोगों को नव जात शिशुओं के लिए आवश्यक सुविधाएँ भी पहले से ही जुटानी होती है।

युग संधि में दुहरे उत्तरदायित्व जागृत आत्माओं को सँभालने पड़ते हैं । विनाशकारी परिस्थितियों से जूझना और विकास के सृजन प्रयोजनों को सोचना । किसान और माली को भी यही करना पड़ता है । खर पतवार उखाड़ना-बेतुकी डालियों को काटना- पशु पक्षियों से फसल को रखाना जैसी प्रतिरोध सुरक्षा की जागरुकता दिखाने पर ही उनके पल्ले कुछ पड़ेगा अन्यथा परिश्रम निरर्थक चले जाने की आशंका बनी रहेगी। उन्हें एक मोर्चा सृजन का भी सँभालना पड़ता है । बीज-बोना, खाद देना, सिंचाई का प्रबन्ध करना, रचनात्मक काम है । इसकी उपेक्षा की जाय तो उत्पादन की आशा समाप्त होकर ही रहेगी। इसे दो मोर्चो पर दुधारी तलवार से लड़ने के समतुल्य माना जा सकता है । युग संधि में जागृत आत्माओं को यही करना पड़ता है। समस्या 400 करोड़ मनुष्यों की है। वे एक स्थान पर नहीं समस्त भूमंडल पर बिखरे हुए बसे हैं । अनेक भाषा बोलते हैं । अनेक धर्म सम्प्रदायों का अनुसरण करते हैं । शासन पद्धतियों और सामाजिक परम्पराओं में भिन्नता है। मनःस्थिति और परिस्थिति में भी भारी अन्तर है । इतना होते हुए भी उन सबसे सर्म्पक साधना है। युग चेतना से परिचित और प्रभावित करना है। इतना ही नहीं सर्म्पकै प्रशिक्षण और अनुरोध को इतना प्रभावी बनाना है जिसके दबाव में लोग अपनी आदतों, इच्छाओं और गतिविधियों में अभीष्ट परिवर्तन कर सकने के लिए हिम्मत ही नहीं तत्पर भर हो सकें । यह कार्य कहने सुनने में सरल प्रतीत हो सकता है । पर वस्तुतः उतना कठिन और जटिल है । ऐसा उत्तरदायित्व उठाने वालों को कैसा होना चाहिए उसका अनुमान लगाने पर यही कहना पड़ता है कि उनकी मजबूती-घहराती नदियों पर मीलों लम्बे पुल का-उस पर दौड़ने वाले वाहनों का बोझा उठा सकने वाले पायों जैसी होनी चाहिए ।

आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को समाज की संरचना के लिए आन्दोलन परक कार्य ही करना पड़े । वह क्षेत्र छोटा होता है और उसमें थोड़े से व्यक्ति ही खप सकते हैं ।सृजन प्रोजन बहुत बड़ा है । उसके असंख्यों पक्ष है । उनमें से जो जिसे कर सके वह उसे सँभाले । कला, साहित्य, विज्ञान, उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य जैने अनेकों क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें बिना अधिक जन-सर्म्पक साधे भी अभीष्ट प्रयोजनों में निरत रहा जा सकता है और आन्दोलनकारियों से भी अधिक महत्व का ऐसा कार्य किया जा सकता है जो नवयुग की आवश्यकता में अपने ढंग से पूरा करने में असाधारण योगदान कर सके । युद्ध जीतने में सभी को तलवार नहीं चलानी पड़ती । वे लोग भी द्वितीय पंक्ति के सैनिक ही हैं जो युद्ध सामग्री बनाते अथवा सैनिकों पर पड़ने वाले खर्च को अपने परिश्रम से जुटाते हैं। आन्दोलकारियों-प्रचारकों की तरह ही वे लोग भी उपयोगी हैं जो उनके लिए साधन सामग्री जुटाने अथवा कार्य क्षेत्र बनाने में तत्पर रहते हैं । ऐसे लोगों का घर रह कर काम करना भी परिव्राजको की ही तरह महत्वपूर्ण कार्य है । हर व्यक्ति की मानसिक संरचना एवं परिस्थिति परिव्राजकों की भूमिका निभाने की नहीं होती । होती भी हो तो उस कार्य के लिए सीमित संख्या में ही सुयोग्य व्यक्ति चाहिए। अधिक सृजन शिल्पी तो अपने-अपने ढंगों के उत्तरदायित्व सँभालते हुए अपने निर्वाह की व्यवस्था चलाते हुए समन्वित प्रक्रिया अपनायेंगे और लक्ष्य की प्राप्ति में अपने ढंग का ऐसा योगदान करेंगे जिसकी महत्ता को किसी प्रकार कम सराहनीय नहीं कहा जा सकता । जन्म समय के आधार पर यह निर्धारण भी किया जाता हैं कि कौन प्रतिभा किस प्रयोजन में लगे, जिससे उसका साँसारिक निर्वाह भी चलता रहे । और युग सृजन में भागीदार बनने का सौभाग्य भी मिलता रहे।

ऐसे जागरुकों को युग प्रयोजनों के सही रुप में कर सकने की क्षमता एवं कुशलता विकसित करने की आवश्यकता अनुभव की गई । इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यकता थी। बिना ट्रेनिंग पाये कोई महत्वपूर्ण कार्य किसी से भी नहीं बन पड़ता । रेल, मोटर आदि वाहन कल कारखाने के संयंत्र यहाँ तक कि टाइप राइटर जैसे छोटे उपकरणों को चलाने के लिए ट्रेनिंग लेनी पड़ती है। अध्यापक, सैनिक, शिल्पी, कलाकार बिना प्रशिक्षण पाये शक्ति सामर्थ्य होते हुए भी अपना कार्य सफलता पूर्वक नहीं कर सकते । फिर युग सृजन जैसा काम ही हर कोई कैसे कर लेता ? युग शिक्षण के लिए आवश्यकता तंत्र खड़ा किया गया है। गायत्री तपोभूमि से युग साहित्य का सृजन हो रहा है और शान्ति कुँज में युगान्तरीय चेतना को क्रियात्मिक करने का समग्र शिक्षण विधिवत् चल रहा है। रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम सन्तोषजनक ढंग से चल रहे हैं और उनका गति चक्र निरन्तर दु्रतगामी बन रहा है।

इतने पर भी एक आवश्यकता यथावत् बनी हुई है देव आत्माओं में पायी जाने वाली विशिष्टता का अवतरण विशिष्ट समय पर ऐसी ही विशिष्ट आत्माओं का अवतरण होता है। वे जन्म जात रुप से ऐसी धातु से बने होते हैं कि उनका उपयोग विशेष प्रयोजनों के लिए संभव हो सके । अणु शक्ति उत्पन्न करने के लिए यूरेनियम जैसे रासायनिक पदाथों की जरुरत पड़ती है। सोने की अपनी मौलिक विशेषता है । र्स्वणकार उसे आभूषणों में गढ़ तो सकता है पर कृत्रिम सोना अभी तक बनाया नहीं जा सका । यों नकली नग ही जेवरों में प्रयुक्त होते हैं, पर उनका निर्माण भी बहुत होता है फिर भी असली मणि-मणिक अभी भी विशेषता के कारण अपना मूल्य और महत्व यथा स्थान बनाये हुए हैं । महामानवों की ढलाई, गढ़ाई के लिए शान्ति कुँज की फैक्टरी अनवरत तत्परता के साथ लगी हुई है । उसके उत्पादन का स्तर भी बढ़ रहा है और परिमाण भी । इस प्रगति को सन्तोषजनक रहते हुए भी उत्साहवर्धक नहीं कहा जा सकता । उस विशिष्टता की मात्रा अभी भी कम ही दृष्टिगोचर हो रही है जिसे देव स्तर की प्रतिभा कहा जाय । जो महामानवों की भूमिका निभा सकने के लिए अभीष्ट सुसंस्कारिता की पूँजी अपने साथ लेकर जन्मी हो ।

कृषि कार्य में किसान का पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है, उपयुक्त भूमि और सही बीज का भी उसकी सफलता में कम योगदान नहीं होता । शिल्पियों की कुशलता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हों उन्हें भी उपयुक्त उपकरण चाहिए । कच्चा माल सही न हो तो कारखाने में बढ़िया चीज कैसे बनायें ? बालू से कोई कुम्हार टिकाउ बर्तन नहीं बना सकता । चिकित्सकों के उपचार रोगी की जीवनी शक्ति के आधार पर सफल होते हैं । कच्चे लोहे की तलवार से मोर्चा जीतना बलिष्ठ योद्धा के लिए सम्भव नहीं होता । मौलिक विशिष्टता की अपनी आवश्यकता है। खरादा तो उसी को जा सकता है जिसमें अपनी कड़क हो । तेल तिली में से निकलता है, आग ईंधन के सहारे जलती है । तिली का प्रबन्ध न हो तो बालू से तेल निकालने में कोल्हू कैसे सफल हो ? पानी मथने के लिए कितना ही श्रम क्यों न किया जाय मक्खन निकालने में सफलता न मिलेगी । ईंधन के बिना आग की लपटों का दर्शन होने और अभीष्ट गर्मी उत्पन्न करने का प्रयोजन नहीं ही सध सकता ।

युग परिवर्तन की इस ऐतिहासिक बेला, में ऐसी देवआत्माओं की विशिष्ट आवश्यकता अनुभव की जा रही है जिनमें मौलिक प्रतिभा विद्यमान है । सामान्य स्तर की श्रेष्ठता हर मनुष्य में मौजूद है। उसे सीमित समय में सीमित मात्रा में उभार सकना ही सम्भव हो सकता है । कम समय में, कम परिश्रम से जिन्हें महान उत्तरदायित्वों का वहन कर सकने के लिए उपयुक्त बनाया जा सके ऐसी प्रतिभाएँ सर्वत्र उपलब्धि नहीं हो सकती और न उनसे उतने बड़े पुरुषार्थ की आशा की जा सकती है जैसी कि इस विषम वेला में आवश्यकता पड़ रही है । इसके लिए विशेष रुप से खोज’बीन करने की आवश्यकता पड़ेगी ।

मोती पाये तो समुद्र में ही जाते हैं पर उन्हें निकालने के लिए पनडुब्बी को गहरी डुबकी लगाने की और सुविस्तृत क्षेत्र की खोज बीन करनी होती है। मोती न तो इकट्ठे मिलते और न तो किसी किनारे पर जमा रहते हैं । बहुमूल्य वस्तुएँ सदा से इसी प्रकार खोजी जाती रही हैं । प्रकृति के अन्तराल में बिजली, ईथर आदि तत्व अनादि काल से भरे पड़े थे, पर उनसे लाभान्वित हो सकना तभी सम्भव हुआ जब उन्हें खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने असाधारण श्रम किया । जंगलों में बहुमूल्य जड़ी बूटियाँ पुरातन काल में भी उगती थीं और अब भी उनकी संजीवनी क्षमता यथावत् मौजूद है। पर उन्हें हर कोई, हर जगह नहीं पा सकता चरक ने दुर्गम स्थानों की यात्रा की और उस परिभ्रमण में वनस्पतियों के गुण धर्म खोजे । इस शोध का परिणाम ही चिकित्सा विज्ञान के रुप में सामने आया और उसका लाभ समूची मानव जाति से उठाया । चरक यदि वह प्रयास न करते तो बूटियाँ अपने स्थानों पर बनी रहतीं, और रोगी अपनी जगह । उनका आपस में संबंध ही न बनता तो दोनों ही घाटे में रहते । न जड़ी बूटियाँ यश पातीं और मनुष्यों को रोग निवृत्त का अवसर मिलता ।

भूगर्भ में खनिज सम्पदा के अजस्र भंडार अनादि काल से भरे पड़े हैं ।पर उनका उत्खलन और दोहन जिस लगन के आधार पर सम्भव हो सका उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती रहेगी। धातुएँ गैंसे, तेल, जैसी अनेकों बहुमूल्य वस्तुएँ भूगर्म की गहरी खोज बीन करने से ही सम्भव हुई । पौराणिक गाथा के अनुसार समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकाले गये और उन से देवताओं तथा मनुष्यों ने सौभाग्यशाली बनने का अवसर पाया । यदि मंथन प्रयास न किया जाता तो समुद्र की सम्पदा उसके गहन अन्तराल में ही धँसी रहती। लाभ उठाना तो दूर उनका किसी को पता तक नहीं चलता ।

ज्ञान और विज्ञान की सुविस्तृत सम्पदा ही मनुष्य को समर्थ, सम्पन्न कुशल बना सकी है। यह उपलब्धियाँ बादलों से नहीं बरसतीं, वरन् अनवरत अध्यावसाय के द्वारा ही एक-एक मंजिल पार करते हुए इन्हें खोज निकालना सम्भव हुआ है।यदि शोध प्रयासों को मानवी प्रवृत्ति में स्थान न मिला हो तो आग जैसी क्रान्तिकारी उपलब्धियाँ करतल गत न होतीं और आदिम मनुष्य की पीढ़ियाँ अभी भी अपने वानर वर्ग के अन्य साथियों के साथ गुजर कर रही होतीं । कोलम्बस ने अमेरिका खोज निकाला और संसार के विकास, विस्तार में एक नये अध्याय का समावेश हुआ । खोजियों ने अन्तरिक्ष खोजा है और उसमें से उतना पाया है जितना कि रत्नाकर कहे जाने वाले समुद्र से भी न मिल सका । कहते हैं कि खोजने वालों ने ही भगवान को ढूँढ़ निकाला अन्यथा वह क्षीर सागर में शेष नाग के ऊपर चादर ताने गहरी नींद में सो रहा था । मनुष्योत्तर प्राणियों के लिए वह अभी भी उसी तरह अविज्ञात स्थिति में पड़ा हुआ है । आत्मा का अस्तित्व मनुष्य ने ही खोजा है। अन्यथा अन्य जीवधारी अपनी सत्ता शरीर तक ही सीमाबद्ध किये रहते । धर्म और अध्यात्म मनुष्य की अपनी खोज है।

अपने समय में एक बहुत बड़ा काम युग मानवों को खोज निकालना है । बड़े काम के किए बड़ी हस्तियाँ ही चाहिए। उन्हें एक सीमा तक ही शिक्षा और परिस्थितियाँ विकसित कर सकती है । नैपोलियन और सिकन्दर किसी सैनिक संस्था द्वारा विनिर्मित नहीं किये जा सके। वशिष्ठ औरन विश्वामित्र किस आश्रम में किस साधन के सहारे विनिर्मित किये जा सके । इसका पता लग नहीं पा रहा है । अंगद और हनुमान, भीम और अर्जुन, चाणक्य और कुमार जीव, बुद्ध और महावीर, गाँधी और पटैल, शिवाजी और प्रताप किस प्रकार तैयार किये जाय उसका कोई उपाय अभी भी सूझा नहीं पड़ रहा है।ईसा जटाथुस्त-अरस्तू और सुकरात, लिंकन और वाशिंगटन-विवेकानन्द और गोविन्दसिंह, नानक और कबीर किस प्रकार तैयार किये जाँय, इसका कोई मार्ग मिल नहीं रहा है, शतरुपा, कौशल्या, सीता, सावित्री, मदालसा, शकुन्तला उपलब्ध करने के लिए क्या किया जा सकता है इसके लिए भारी माथा पच्ची के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता। अरविन्द और रमण, रामकृष्ण परमहंस और विरजानन्द जैसी हस्तियाँ ही युग निर्माण जैसे महा-प्रयोजन को पूरा करने में अग्रिम भूमिका निभा सकती है ।काम बड़ा है तो उसके अनुरुप व्यक्तित्व भी चाहिए । यह आवश्यकता जब भी जितनी मात्रा में भी पूरी हुई तब उसी अनुपात से व्यापक समस्याओं के समाधान सम्भव हुए हैं। जन साधारण के लिए तो कर्तव्य पालन ही सम्भव होता है।वे अपनी निज समस्याओं को सुलझाने में ही अधिकाँश क्षमता खो बैठते हैं जो बचती है उससे लोक मंगल का प्रयोजन एक सीमा तक ही पूरा करपाते हैं । यों बूँद-बूँद से भी घड़ा भरता है पर उन बूँदों का संचय करने और उस संचय का सदुपयोग करने की प्रतिभा भी तो किसी में चाहिए ।

नव निर्माण में असंख्य दिशा धाराएँ हैं-विकृतियों से जूझने के लिए असंख्य मोर्चे हैं, पाटने के लिए अनेक खाई, खन्दक और बनने के लिए अनेकों पुत्रल बाँध सामने है । इनके लिए जितनी साधन सामग्री चाहिए उससे अनेक गुनी आवश्यकता उन हस्तियों की है जो मौलिक विशेषताओं से संचित सपदाओं की दृष्टि से सम्पन्न एवं समर्थ कही जा सकें ।उथले लोग गुब्बारे की तरह फूलते और बबूले की तरह फूटते रहते हैं ।

युग सृजन के लिए सम्पदा, प्रतिभा, शिक्षा, श्रमशीलता जैसी विभूतियाँ प्रचुर परिमाण में चाहिए ही । पर उससे भी अधिक आवश्यकता उन देवात्माओं की है जिनमें आन्तरिक वर्चस् विपुल परिमाणों से भरा पड़ा हैं वर्चस् ही आत्मबल हैं । ओजस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, व्यक्ति वही होते हैं जिनमें इस आन्तरिक वैभव की दैवी अनुदान की-समुचित मात्रा विद्यमान हो ।

इस खोज को इन दिनों सबसे अधिक महत्व दिया जाना है । कठिन उत्तरदायित्व सामने हैं उन्हें निभाने योग्य प्रतिभाओं के आगे आने और लाने की आवश्यकता ऐसी है जिसे एक क्षण के लिए भी आगे नहीं टाला जा सकता ।


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