कर्म ही सर्वोपरि

February 1980

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नमस्याओ देवान्नतु हतविधेस्तेऽपि वशगाः, विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मैकफलदः । फलं कर्मायतं किममरणैं किं च विधिना नमस्तत्कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवित ॥ (भतृहरिकृत नीति शतक 75 वाँ श्लोक)

हम सब जिन देव शक्तियों को अर्चना-आराधना के उपायों और विधानों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे देव-सत्ताएँ भी विधि-व्यवस्था से ही बँधी दीखती है । दैवी विधानों की अवहेलना वे भी नहीं करतीं । तो क्या उस सृष्टि-संचालक विधान की और उसके विधाता की ही वन्दना की जाय ? पर हमारे भाग्य का निर्धारण तो वह विधि-व्यवस्था हमारे ही कर्मो के अनुसार करती है । यही उसका सुनिश्चित नियम है । हमारे अपने ही कर्मो का फल प्रदान करने की प्रक्रिया वह चलाता रहता है ।

इस प्रकार हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं । तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है । वही वन्दनीय है-अभिनन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है । दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता । कर्म ही सर्वोपरि है । परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निर्माता है । उसी की साधना से अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव है ।


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