तर्क ही नहीं, श्रद्धा विश्वास भी

February 1980

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आत्मोर्त्कष के लिए दो आधार प्रमुख्य माने गये हैं । श्रद्धा और विश्वास । साधना रुपी गाड़ी के यही दो पहिये हैं जिनके सहारे वह गतिशील होती तथा अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचती है । इनके बिना साधना पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता । आध्यात्मिक सफलताओं में साधना उपचारों को महत्व दिया जा सकता है किन्तु गहराई में जाने पर पता चलता है कि साधना रुपी बीज को सिंचित, पुष्पित, पल्लवित करने में परोक्ष किन्तु प्रमुख योगदान इन दोनों का ही है । खाद और पानी के बिना तो अच्छे किस्म के बीज भी अंकुरित नहीं हो पाते । किसी प्रकार अंकुरित हो भी जाये तो भी उनके बढ़ने, फूलने-फलने की सम्भावना बनी रहती । इसी प्रकार श्रद्धा- विश्वास का अवलम्बन न हो तो प्रभावशाली उपासना प्रणाली भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती । समस्त आध्यात्मिक उपचार इन्हीं दो का अवलम्बन पाकर सफल होते हैं । यही कारण है कि सभी धर्मशास्त्र इनकी महत्ता का प्रतिपादन करते हैं ।

विकास की दृष्टि से तर्क की जितनी उपयोगिता है उससे कम श्रद्धा की भी नहीं है। इन दोनों के समन्वय सन्तुलन से ही विवेकशीलता का प्रादुर्भाव होता है । सर्वागीण प्रगति का क्रम चलता है । क्षेत्र चाहें भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक दोनों में से किसी को छोड़ा नहीं जा सकता । गाड़ी के दो पहिये, शरीर के दो हाथ, दो पैर की तरह परस्पर दोनों ही जुड़े हुए हैं । तर्क अथवा श्रद्धा किसी का भी एकाँगी अवलम्बन प्रगति क्रम को अवरुद्ध कर देता-आगे नहीं बढ़ने देता । आगे बढ़ने-ऊँचे उठने-भौतिक अथवा आत्मिक प्रगति के लिए इन दोनों का होना आवश्यक है ।

तर्क विचारणा को जन्म देता- श्रद्धा विश्वास को । विचारणा भी विचार के लिए आधार ढूँढ़ती है । आधार तभी बन सकता है जब विश्वास हो । अन्यथा तर्क बुद्धि तो किसी भी केन्द्र पर चिन्तन को केन्द्रीभूत नहीं कर सकती । यह तो तभी बन पाता है जब विश्वास के सहारे किसी भी विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाता है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि श्रद्धा के अभाव में विचारणा-तर्क का प्रार्दुभाव सम्भव नहीं है । किसी विषय पर आस्था ही तर्को का सृजन करती उस पर सोचने, सत्यता को ढूँढ़ निकालने को प्रेरित करती है । श्रद्धा मानवी व्यक्तित्व के मूल में घुली-मिली है जिसके बिना एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता । आगे बढ़ने, प्रगति करने की बात तो दूर रही । यह बात अलग है कि हम उसका अनुभव न कर सकें ।

मानव मन की यह विशेषता होती है कि वह उन चीजों का अनुभव नहीं कर पाता जो उसे जन्मजात मिली हैं । इससे परिचित न होने कारण ही मनुष्य अपने में विद्यमान क्षमता का अवलोकन नहीं कर पाता । जीवन क्षेत्र में असफलताओं का कारण यही है-अपनी क्षमता से अपरिचित रहना,उनका उपयोग न कर पाना । जो यह पहचान लेते, उनका अवलम्बन लेकर आगे बढ़ने का प्रयत्न करते, वे ही जीवन क्षेत्र में सफल होते हैं । आत्म-विश्वास इसी बोध प्रक्रिया की परिणिति है जो सामान्य व्यक्ति को असामान्य-प्रतिपादन-महामानव के स्तर तक घसीट ले जाती है ।

यही बात श्रद्धा के सर्न्दभ में भी है । मनुष्य की प्रवृत्ति में घुली-मिली होने के कारण वह अनुभव नहीं कर पाता । अज्ञानवश कह उठता है कि श्रद्धा मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं । अधिकाँश भौतिकवादी यह कहते सुने जाते हैं ।

समीक्षा की जाय तो पता चलता है कि विश्वास के बिना तो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता । जो इसकी उपयोगिता से इन्कार करते हैं वे स्वयं भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से इसका ही आश्रय लेकर आगे बढ़ते है । व्यवसायी अपने व्यवसाय में जन- श्रद्धा का लोगों का विश्वास ही जीतने का प्रयास करता है । दुकानदारी में वही व्यक्ति सफल होता है जो अपनी वस्तुओं की प्रामाणिकता एवं उनके मूल्य के प्रति लोगों को आश्वस्त कर दे । यह क्रम बन जाने पर तो प्रगति के शिखर पर पहुँचने में देरी नहीं लगती । बेईमान भी जन श्रद्धा के आश्रय में ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है । विश्वास टूट जाने पर तो सफल होना दूर रहा उलटे जन तिरस्कार एवं सामाजिक दण्ड का भागी बनता है ।

सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो स्पष्ट होगा कि सम्पूर्ण जीवन प्रवाह एवं उसकी उपलब्धियाँ वस्तुतः श्रद्धा की ही परिणिति हैं माँ अपने अभिन्न अंग मानकर नौ माह तक अपने गर्भ में बच्चे का सेचन करती है । अपने रक्त माँस को काटकर शिशु को पोषण प्रदान करती है । श्रद्धा का यह उत्कृष्ट स्वरुप है जिसका बीजारोपण माँ बच्चे में संस्कार के रुप में करती है । निस्वार्थ भाव से उसको संरक्षण देती है । अनावश्यक भार कष्टों का जंजाल समझने का तर्क उठे तो नवशिशु प्रादुर्भाव ही सम्भव न हो सकेगा ।

यह श्रद्धा ही है जिसके कारण बच्चा माँ के सीने से चिपकने, स्नेह-दुलार पाने के लिए लालयित रहता, रोता कलपता रहता है । मूक-भाषा, वाणी से रहित नवशिशु की श्रद्धा एक मात्र माँ के ऊपर ही होती है । माता-पिता भी निश्च्छल हृदय से बच्चे के विकास के लिए हर सम्भव प्रयास करते हैं । खाने’पीने, स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर शिक्षा-दीक्षा के झंझट भरे संरंजाम जुटाते हैं । समग्र विकास ही उनका एक मात्र लक्ष्य होता है । तर्क तो हर बात को उपयोगिता की कसौटी पर कसता है । इस आधार पर कसने पर माता-पिता को हर दृष्टि से घाटा ही घाटा दिखायी पड़ेगा । बात तर्क की मान ली जाय । तो बच्चे का अस्तित्व ही संका में पड़ जायेगा । दृष्टिमात्र उपयोगितावादी हो जाय तथा यह परम्परा प्रत्येक क्षेत्र में चल पड़े, तो परिवार एवं समाज विशांखलित हो जायेगा। सभ्यता को अधिक दिनों तक जीवित नहीं रखा जा सकेगा ।

श्रद्धा ही पारिवारिक जीवन को स्नेह-सूत्र में बाँधें रहती है । सहयोग करने, अन्य सदस्यों के लिए अपने स्वार्थो का उर्त्सग करने की प्रेरणा देती है । पारिवारिक विघटनों में इसका अभाव ही कारण बनता है । पति-पत्नी के बीच मन-मुटाव, सदस्यों के बीच टकराहट का कारण अश्रद्धा है । तर्क एवं उपयोगिता की कसौटी पर कसने पर तो वृद्ध माता-पिता का महत्व भी समझ में नहीं आता । वे भार के रुप में ही दिखायी पड़ते हैं । किन्तु श्रद्धा दृष्टि जानती है कि उनका कितना ऋण चढ़ा है । उनके आशीवार्द, स्नेह को पाने की कामना आजीवन बनी रहती है । यह भाव दृष्टि तो श्रद्धा की ही उपलब्धि है । जो सदा एक युवक को माता-पिता के समक्ष नत-मस्तक किये रहती है ।

समाजिक सुव्यवस्था भी इसमें रहने वाले सदस्यों के आपसी विश्वास पर टिकी है । सहयोग करने दुःखों में हाथ बँटाने की उमंग तो अन्तरंग की महानता के कारण ही उत्पन्न होती है । यह न हो, पीड़ा-पतन को देखकर हृदय द्रवित न हो तो मानव समाज एवं पशुओं में कोई भेद नहीं रह जायेगा ।

तर्को, ईश्वर के प्रति बौद्धिक प्रश्नों का प्रार्दुभाव तभी होता है जब कि आस्था का प्रकाश पहले से ही विद्यमान हो । आस्था न हो तो अकेले तर्क एवं प्रमाण कभी भी मनुष्य के हृदय में ईश्वरीय भावना को प्रतिष्ठापित नहीं कर सकते । तार्त्पय यह है कि ईश्वर के प्रति आत्म-सत्ता के प्रति आस्था हृदय में पहले से ही अव्यक्त रुप में रहती है । तर्को का उपयोग तो मात्र भावनाओं, आस्थाओं को परिपुष्ट करने के लिए होता है । वस्तुतः विश्वास से ही तर्क की उत्पत्ति होती है । ऐसी स्थिति में तर्क का अवलम्बन तो लिया जाय, पर उसका उपयोग अन्तःश्रेष्ठता श्रद्धा तत्व को विकसित करने में किया जाय।


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