प्रभावशाली व्यक्तित्व ही समग्र विकास का मूल कारण होता है । इसी आधार पर ही मनुष्य अपने जीवन की सर्वोपरि उपलब्धियाँ हस्तगत कर सकने में सफल हो पाता है । परिष्कृत और प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व के अभाव में कुछ कहने लायक सफलता पाना असंभव होता है । इतिहास के परदे पर जितने भी महामानव हुए हैं उनने इसी आधारशिला पर अपनी सफलता के भवन निर्मित किये हैं । व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने में जहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रतिभा, शिष्टता इत्यादि घटक सहयोगी बनते हैं, वहीं ‘मधुर-भाषण’ प्रिय बोलना भी एक प्रधान घटक है ।
सुसंयत, शिष्ट और मधुरवाणी व्यक्ति को प्रभावित किये बिना नहीं रहती । प्रत्येक व्यक्ति मधुरवक्ता से सन्तुष्ट रहता है । तथ्यपूर्ण भी कटुवाणी लोगों द्वारा स्वीकार्य एवं सह्य नहीं होती है । कटु बोलने वाले को अपमान और तिरस्कार प्राप्त होता है, जबकि प्रिय बोलने वाले को सर्वत्र सम्मान होता है, उसका प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जाता है । प्रिय बोलने के लोभ में न तो असत्य का आश्रय लेना चाहिए और न सत्य के साथ अप्रियता का कलंक मिलाना चाहिए ।
सत्यं ब्रूयात्प्रिय ब्रूयात न बू्रयात्सत्यमंप्रियम् ।प्रियं च नानृतं व्रूयादेवधर्मः सनातनः ॥
सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए किन्तु सत्य होते हुए भी ‘अप्रिय’ नहीं बोलना चाहिए । साथ ही प्रिय होते हुए पूर्णतया असत्य भी नहीं बोलना चाहिए । यही सनातन धर्म है ।
मधुर और प्रिय बोलने का सिद्धाँत सर्वविदित होते हुए भी व्यक्ति प्रायः अहंकार एवं कुसंस्कार वश कटुभाषी बन जाता है । वस्तुतः मधुर बोलने में किसी प्रकार की क्षति नहीं होती उलटे मैत्री क्षेत्र बढ़ने का लाभ ही होता है ।सुधीजनों का कथन है-
प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।तस्माद् तदेव वक्तत्यं वचने का दरिद्रता ॥
सभी प्राणी प्रिय बोलने से सन्तुष्ट रहते हैं, इसलिए सर्वदा प्रिय ही बोलना चाहिए, प्रिय बोलने में कृपणता क्यों की जाय ?
शास्त्रों का सदा से यही प्रतिपादन रहा है । वे हमें सर्वदा सत्य प्रिय और मधुर बोलते रहने का उपदेश देते हैं । वैदिक स्वर में साधक भगवान् से प्रार्थना करता है-
जिह्वाया अग्रे मधु में जिह्वामूले मधूलकम् ।ममेदह क्रतावसो मम चित्त मुपायसि ॥ अथर्व 1। 34।2
हे प्रभो । मेरी जिह्वा के अग्रभाग पर मधु (मधुरता) हो, जिह्वा के मूल हृदय में भी माधुर्य हो । हे मधुरता । तुम मेरे व्यवहार और चित्त में प्रविष्ट हो जाओं ।
मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम् ।वाचा ददाभि मधुमद् भूयासं मधुसंदृशः ॥ अथर्व0 1 । 34। 5
मेरा चलना फिरना माधुर्य युक्त हो । मैं वाणी से मीठा बोलूँ तथा मैं मधुर के समान (मधुर) दीखने वाला हो जाऊँ ।
ईश्वर की यही आकाँक्षा है कि उसकी सन्तानें सभी परस्पर मिल जुल कर स्नेह पूर्वक रहें, मधुर वाणी व मधुर व्यवहार वाले बनें ।
होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः ।सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि ॥
हे विद्वान् । तू कल्याणकारी उपदेश के लिए भेजा गया है । तू मननशील मनुष्य बन कर भद्र पुरुषों के लिए उत्तम उपदेश कर ।
वाणी का माधुर्य संसार को प्रभावित करने वाले साधनों में प्रमुख है ।
इस वशीकरण मन्त्र के प्रयोग को व्यवहार का विषय बनाया जा सके, वाणी में कटुता का समावेश न होने दिया जा सके तो निश्चित ही अपना प्रभाव और वर्चस्व दूसरों पर स्थापित करने रह सकने में सफलता प्राप्त की जा सकती है ।