आहार के त्रिविधि स्तर, त्रिविधि प्रयोजन

February 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पिछले दिनों ब्रिटेन मेन्चेस्टर मेडिकल, रिसर्च इन्स्टीटयूट ने इस विषय पर शोध कार्य हाथ में लिया कि आधार का मनुष्य और प्राणियों के स्वभाव, गुण तथा प्रकृति पर क्या प्रभाव पड़ता है । इसके लिए कई परीक्षण किये गये । उनमें से एक इस प्रकार था । चूहा स्वभावतः शाँत प्रकृति का होता है किसी से लड़ता झगड़ता या आक्रमण नहीं करता । प्रयोगशाला में पाले गये चूहों में से एक को निकाला गया और उसे सामान्य आहार न देकर मिर्च मसाले तथा माँस और नशीली चीजों से बना आहार दिया गया । यह आहार लेने से पूर्व तक चूहा बेहद शान्त था, पर इसके कुछ ही घन्टे बाद वह उद्दण्ड और आक्रामक बन गया । उसे वापिस पिंजरे में छोड़ा गया तो पिंजरे के दूसरे चूहों को उस अकेले ने इस बुरी तरह सताया कि कुछ चूहे लहू-लुहान हो गये ।

इसके बाद उसी चूहे को दूसरी बार सरल, शुद्ध, और सात्विक भोजन दिया गया । इस पर भी पिछला प्रभाव तो बाकी था किन्तु चूहा अपेक्षाकृत शान्त था । कई बार साधारण खाना लेने के बाद चूहा अपनी वास्तविक स्थिति में आ पाया। इस तरह के सैकड़ों प्रयोगों द्वारा इस निर्ष्कष पर पहुँचा जा सका कि जो कुछ खाया जाता है उससे शरीर का पोषण ही नहीं होता बल्कि लिया गया भोजन मनुष्य का व्यक्तित्व बनाने में भी असाधारण भूमिका निबाहता है । आत्म-विज्ञान की दृष्टि से स्थूल शरीर और कारण शरीर के समान आहार के भी तीन प्रकार और तीन स्तर होते हैं जिन्हें सत् रज और तम कहा जाता है। आहार में तम अंश से रक्त माँस बनता है, रज अंश से मस्तिष्कीय क्षमता प्रभावित होती है और सत् अंश भावनाओं को निर्माण करता है।

चिकित्सा शास्त्र की खोजबीनें और प्रयोग विश्लेषण आहार के स्थूल स्वरुप तक ही सीमित हैं क्या खाने से शरीर के कौन से रासायनिक पदाथों के बढ़ाया जा सकता है और क्या खाने से शरीर में कौन से रासायनिक तत्व घटते हैं चिकित्सा शास्त्र इतनी ही खोजबीन कर पाया है । विश्लेषण का क्षेत्र इस सीमा तक भी बढ़ा है कि मस्तिष्क पर आहार के कौन से अंश क्या और किस प्रकार का प्रभाव डालते हैं सम्भवतः आगे चल कर आहार की कारण शक्ति के बारे में भी कुछ प्रयोग किये जायँ । परन्तु भारतीय ऋषि मुनियों ने इस विषय पर पहले से ही विशद प्रकाश डाल रखा है कि क्या खाने से बौद्धिक प्रखरता बढ़ती है और कौन-सा आहार स्वभाव तथा व्यक्तित्व की मूल परतों को र्स्पश करता है ।

स्मरणीय है योगशास्त्रों और साधनों ग्रन्थों ने अन्तःकरण को पवित्र एवं परिष्कृत करने के लिए सात्विक आहार ही अपनाने को कहा है। गीता में भगवान कृष्ण ने सात्विक, राजसी और तामसी आहार की सुस्पष्ट व्याख्या की है तथा शरीर, मन और बुद्धि पर उसके पड़ने वाले प्रभावों का भी स्पष्ट विवेचन किया है । आत्मिक प्रगति के आकाँक्षी और साधना मार्ग के पथिकों के लिए इस बात को निर्देश दिया गया है कि सात्विक आहार ही अपनाया जाय और उसकी सात्विकता को भी भावनाओं का सम्पुट देकर आत्मिक चेतना में अधिक सहायता दे सकने योग्य बनाया जाय । भगवान का भोगप्रसाद, यज्ञाग्नि में पकाया गया चरुद्रव्य इसी प्रकार के पदार्थ हैं जिनकी स्थूल विशेषता न दिखाई देने पर भी उनकी सूक्ष्म सामर्थ्य बहुत अधिक होती है ।

प्रत्यक्ष रुप में यदि आहार का मस्तिष्क और स्वभाव पर क्या प्रभाव पड़ता है यह देखना हो तो नशों के रुप में देखा जा सकता है। हल्का या तेज नशा मस्तिष्क पर अपना कसा प्रभाव छोड़ता है यह सुस्पष्ट है । सामान्य स्वस्थ मनोदशा में लोग बहुत कम अपराध कर्म करते हैं जबकि शराब पीकर या अन्य तेज मादक द्रव्यों का सेवन कर ज्यादातर अपराध होते हैं । प्रायः सभी अपराधी शराब, चरस, गाँजा जैसे तेज मादक द्रव्यों के आदी होते हैं । शरीर विज्ञानियों के अनुसार हल्के से हल्के मादक द्रव्यों का सेवन भी शरीर पर विषाक्त प्रभाव छोड़ता है । मस्तिष्क को कुँठित कर देने वाले नशे जिस प्रकार हानिकारक प्रभाव दिखाते हैं उसी प्रकार ऐसे रसायन भी ढूँढ़ निकाले जा रहे हैं जो मस्तिष्क के अविकसित अंगों में पुनर्जीवन भर सकते हैं । नशेबाजी के ठीक विपरीत प्रकार की यह रचनात्मक दिशा हुई ।

पश्चिमी देशों में इस विषय को लेकर काफी खोजबीन हो रही है । अमेरिका के वाल्टीमोर शहर के एक स्कूल में 52 विद्यार्थियाँ को स्मार्टपिल्स नामक दवा एक महीने तक खिला कर देखा गया । एक महीने बाद उनके मस्तिष्क की परीक्षा की गई तो पाया गया कि इस थोड़ी-सी अवधि में उन छात्रों की मस्तिष्कीय क्षमता पहलें से अधिक बढ़ गई थी । मिशीगन विश्वविद्यालय के जीवनशास्त्री ने मस्तिष्क पर आहार का प्रभाव जाँचने के लिए मनुष्येतर प्राणियों पर भी प्रयोग किये हैं । उक्त जीवशास्त्री डा0 वर्नार्ड एग्रानोफ ने अपने प्रयोग के दौरान मछलियों की खुराक में फेर-बदलकर उन्हें चतुर और भुलक्कड़ बनाने के सफल प्रयोग किये । डा0 बर्नार्ड के अनुसार हार में प्यरोमाइरिन नामक प्रोटीन मात्रा से घटने-बढ़ने से मस्तिष्क की क्षमता भी घटती-बढ़ती है । दस वर्षो तक लगातार प्रयोग और परीक्षण करने के बाद कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञानी रिचार्ड थापंसन इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि बुद्धि दैवी वरदान नहीं है उसी मानवी प्रयत्नों से घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है । इस प्रयोग श्रृंखला में उन्हों कत्तों, बिल्लियों, चूहों और बन्दरों को भी शामिल किया और प्रतिपादित किया कि अन्य शारीरिक परिवर्तनों के समान ही आहार द्वारा मस्तिष्कीय क्षमता में भी हर स्तर का परिवर्तन कर सकना सम्भव है।

मिशीगन विश्वविद्यालय के ही प्रो0 जेम्स मेकानेल ने तो अपने प्रयोगों द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि आहार में हेर-फेर करके स्मरण शक्ति और सम्वेदनशीलता को भी कम-ज्यादा घटाया बढ़ाया जा सकता है । इतना ही नहीं दो व्यक्तियों में स्मृति और अनुभवों का प्रत्यावर्तन भी किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक व्यक्ति का रक्त दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कराया जा सकता है और टूटे-फूटे अवयवों को बदल कर उनके स्थान पर नये अंग का प्रत्यारोपण किया जा सकता है । कहा जा चुका है कि चिकित्सा विज्ञान का ढाँचा शरीर पर पड़ने वाले खाद्य-पदार्थो के प्रभाव की जानकारी के आधार पर, भले ही वह औषधि के रुप में ही क्यों नहीं, खड़ा किया गया है । वर्तमान में जारी प्रयोगों के आधार पर यह निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि अगले दिनों बुद्धि की मन्दता, अकुशलता और मानसिक विकृतियों का उपशंमन भी खाद्य-पदार्थो की सूक्ष्म शक्ति के आधार पर सफलतापूर्वक किया जाने लगेगा । सम्भव है अगले दिनों इस प्रकार की औषधियाँ बाजार में आने लगें जिनका सेवन कर मनुष्य अपनी स्मरण शक्ति, बुद्धि कौशल, सूझबूझ को बढ़ा सके ।

मस्तिष्कीय क्षेत्र में यह सफलता आहार की सूक्ष्म शक्ति के आधार पर ही सम्भव हो सकेगी । इस प्रयोजन के लिए पदार्थो की सूक्ष्म शक्ति के विषय में अनेक प्रयोग और अन्वेषण कार्य चल रहे हैं । यह सूक्ष्म शक्ति शरीर का पोषण करने वाली स्थूल शक्ति से भिन्न स्तर की है । इस आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो खाद्य शरीर के लिए उपयोगी हों वे मस्तिष्क के लिए भी उपयोगी हों, यह न तो आवश्यक है और न अनिवार्य ही ।

आहार की स्थूल और सूक्ष्म शक्ति जो शरीर और मस्तिष्क को प्रभावित करती है, कारण शक्ति उससे भिन्न स्तर की है । कहना न होगा कि भावना क्षेत्र शरीर और मस्तिष्क से भिन्न और बढ़कर है । इसी के आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव को दिशा मिलती है और उससे समूचे व्यक्तित्व का निर्माण होता है । जो व्यक्ति शरीर से बलवान है कोई आवश्यक नहीं कि वह मस्तिष्क से भी बुद्धिमान हो । उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति भावना स्तर पर उच्चस्थिति सम्पन्न हो यह आवश्यक नहीं है । शरीर से बलवान और मस्तिष्क से बुद्धिमान होने पर भी कोई व्यक्ति भावना स्तर पर गया गुजरा हो सकता है और निकृष्ट कोटि का दुष्ट जीवन जी रहा हो सकता है । ऐसे व्यक्ति अपने दोष-दुर्गुणों के कारण पग-पग पर ठोकरें खाते हैं और प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी असफल जीवन जीकर रोते-कलमते रहते हैं । इसके विपरीत अपेक्षाकृत सामान्य स्वास्थ्य और साधारण बुद्धि के लोग परिष्कृत भावना स्तर के कारण महामानवों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और वन्दनीय स्थान प्राप्त कर लेते हैं ।

यह विज्ञान आज भी अपने स्थान पर सही और निश्चित परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ है । यह बात अलग है कि वह विज्ञान लुप्त हो गया है, पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह तो पता चलता ही है कि इस शक्ति के विकास में खाद्य-पदाथों की कारण शक्ति का भी सफलतापूर्वक उपयोग किया जाता था । पिप्पलाद ़ऋषि ने इसके लिए पीपल के फल खाकर निर्वाह किया था और इसी कारण विप्पलाद ऋषि कहलाये औदम्बर ऋषि का नाम भी इसी आधार पर पड़ा कि वे औदुम्ब फल (गूलर के फल) खाकर अपनी जीवन यात्रा चलाते थे । केवल मूँग ही खाकर निर्वाह करने के कारण मौद्गल ऋषि का नाम मौद्गल पड़ा । यह खाद्य पदार्थ भी विशिष्ट उपचारों से अभिमन्त्रित किये जाते थे ताकि उनकी कारण शक्ति विशिष्ट रुप से उभर कर आ सके । यज्ञ विज्ञान के अनुसार विशिष्ट अग्निहोत्रों से विभिन्न प्रयोंगो द्वारा हवन सामग्री को परिष्कृत और उन्न को संस्कारित इसीलिए किया जाता है कि उनकी कारण शक्ति का उपयोग किया जा सके ।

आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली सभी साधनाओं में आहार की कारण शक्ति को विकसित करके उसके उपयोग का विधान है । इस सम्बन्ध में उपेक्षा बरती जाने पर आत्मबल सर्म्वधन के लिए किये जा रहे साधनात्मक प्रयोगों में यत्िकचित ही सफलता मिलती है, जबकि आत्मबल का अभिवर्धन ही मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता है और वही सबसे मूल्यवान सम्पदा भी । यदि यह पूँजी अभीष्ट मात्रा में विद्यमान हो तो मनुष्य लौकिक दृष्टि से और आत्मिक दृष्टि से, सर्वप्रकारेण सफल हो सकता है । उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि वह स्वयं अपना आत्मिक उर्त्कष करने के साथ-साथ सिद्ध पुरुषों की तरह अपनी नाव में बिठाकर असंख्यों को पारकर सकता है। इस सर्न्दभ में आहार-शुद्धि की, उसकी सतोगुणी कारण शक्ति की उपयोगिता असंदिग्ध ही नहीं उपयोग अनिवार्य भी है। मनुस्मृति में साधकों के लिए भक्ष्य-अभक्ष्य आहार की लम्बी सूची बताई गई है और कहा गया है कि आत्मिक प्रगति के इच्छुकों को अभक्ष्य आहार अनजाने में भी नहीं करना चाहिए । अनजाने में हुए अभक्ष्य-भक्षण का प्रायश्चित विधान करते हुए कहा गया है”अमत्यैतानि वद् जग्ध्वा कृच्छं सान्तपनं चरेत् (5120) अर्थात््-अनजाने में उपरोक्त अभक्ष्य भोजन कर लेने पर कृच्छसान्तपन अथवा यदि चाँद्रायण व्रत करना चाहिए ।

आहार विहार के ये कड़े नियम इसलिए बनाये गये थे कि साधक आत्मिक प्रगति के पथ पर निर्बाध गति से बढ़ता हुआ रह सके । खेद है कि प्राचीनकाल के तत्वदर्शियों द्वारा जो प्रयोग किये थे, वे अब प्रायः लुप्त ही हो गये हैं मात्र उनकी छाया छुटपुट कर्मकाण्डों के रुप में खण्डहरों की तरह जहाँ-तहाँ अपनी कुरुप और विद्रूप स्थिति में पड़ी दिखाई देती हैं । भवन का प्रयोजन खण्डहरों से पूरा नहीं हो सकता और न ही योग साधना का उद्देश्य प्रचलित एकाँगी कर्म-काण्डों से पूरा हो सकता है । यही कारण है कि मात्र शरीर श्रम और वस्तु समुच्चय के आधार पर योग के नाम की जो लकीर भर पीटी जाती रही है उसके उत्साहवर्धक सत्परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं । उसके लिए तो पदार्थ की आहार की कारण शक्ति को भी समझना और उपयोग में लाना पड़ेगा ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118