सच्चरित्रता मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा

February 1980

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सच्चरित्रता अपने में एक महान् गुण है । इसका तार्त्पय विशिष्टताओं से होता है, जिससे मनुष्य में शालीनता, विनम्रता, आज्ञाकारिता, सरलता, सहनशीलता, जैसे सद्गुण विकासित होते हैं । यह गुण जिस किसी के पास होते हैं, वे सदाचारी कहे जाते हैं । व्यक्तित्व का समग्र विकास इन्हीं गुणों के आधार पर हो पाता है । दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि सच्चरित्रता की आधारशिला पर ही व्यक्तित्व का समग्र विकास निर्भर है ।

सदाचरण से व्यक्ति में आत्म-विश्वास उत्पन्न होता है, जिससे वह श्रेष्ठ कार्यो में निष्ठापूर्वक अग्रसर हो सके । भले ही परिस्थितियाँ विकराल रुप धारण करके सामने कयों न खड़ी हों ? महात्मा लूथर की यह घटना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-

‘मुझे खेद है कि मेरे पास एक ही सिर है यदि हजार सिर होते और वे सब इस धर्म सुधार की पुण्य वेदी पर बलिदान हो जाते, तो मैं अपने को अधिक धन्य समझता’ यह कथन मार्टिन लूथर ने उस समय कहा था, जब तत्कालीन पोप द्वारा सुधारवादी आन्दोलन चलाते रहने पर भयंकर त्रास मिलने की धमकी दी थी । किन्तु लूथर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने सत्प्रयत्न में अविचल भाव से आजीवन लगे रहे ।

सच्चरित्रता अपने में एक महान् सम्पदा है । महापुरुषों के पास सबसे बड़ी पूँजी उनके चरित्र की ही होती है, जिसके सहारे वे निरन्तर अपने प्रगति पथ पर बढ़ते जाते हैं चरित्र की महत्ता धन सम्पदा से कहीं अधिक बढ़कर है । महाभारतकार ने भी लिखा है-

‘वृत्तं’ यत्नेन संरक्षेत् वित्तमेत च याति च । अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ॥

‘चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए धन तो आता और जाता रहता है, धन से हीन व्यक्ति हीन नहीं होता, किन्तु चरित्र नष्ट हो जाने पर पूर्णतया नष्ट हो जाता है ।’

जिसने धन के लोभ में चरित्र खोया अथवा चरित्र खोकर धन कमाया उसने मानों अनर्थ कमाया है । चरित्र हीन व्यक्ति का संसार में कहीं भी आदर नहीं होता, भले ही वह कितना ही धनी मानी बन गया हो, इसके विपरीत चरित्रवान् व्यक्ति अभाव ग्रस्त स्थिति में भी सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।

धनी का आदर तो लोग स्वार्थ वश करते हैं । स्वार्थ निकल जाने पर अथवा आशा न रहने पर स्वार्थी व्यक्ति तक उस धनवान् का आदर करना छोड़ देते हैं, जिसके पीछे चरित्र का बल नहीं ।

धन के अभाव में व्यक्ति ऊँचा उठ सकता है, विद्या के बिना निर्वाह कर सकता है, किन्तु सदाचार के अभाव में वह सदैव हेय एवं घृणित ही बना रहेगा । ढे़रों धन कमा लेने और पर्याप्त ज्ञानार्जन कर लेने पर भी यदि मनुष्य अपने चरित्र को उज्ज्वल न रख सका तो लोग उसके धन से घृणा करेंगे और ज्ञान में अविश्वास । वह जहाँ भी जायेगा एक आदर पूर्ण भाव बिन्दु के लिए तरसेगा । उसके सर्त्कम तक लोगों के लिए शंका एवं सन्देह के विषय होते हैं ।

संसार में वन्दनीय अभिनन्दनीय कार्य करने वालों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं रहा, जो चरित्रवान् न रहा हो । जन-नेतृत्व करने अथवा समाज की गति बदलने की शक्ति केवल चरित्र से ही प्राप्त होती है । मानव समाज का जो भी विकास आज तक हुआ है या आगे होगा उसके पीछे चरित्र से धनी सदाचारी लोगों का ही हाथ रहा है और आगे भी रहेगा ।

वस्तुतः सदाचार ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जिसके आधार पर मनुष्य ऊँचे उठते और आगे बढ़ते हैं । साथियों का सहयोग-सद्भाव लिये बिना कोई व्यक्ति एकाकी प्रयत्नों से कुछ कहने लायक प्रगति कर सकता है, इसमें सन्देह है । दूसरों की सहायता बिना हँसी खुशी भी स्थिर नहीं रह सकती । कठिनाइयों में दूसरों का सहारा चाहिए ही । यह सब जुटा सकना, उसी के लिए सम्भव है जो अपने मधुर स्वभाव से दूसरों को प्रभावित एवं आकर्षित कर सकता है । ऐसा चुम्बकत्व सच्चरित्रता में ही सन्निहित रहता है ।

चरित्र मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति-सम्पदा है। संसार की अनन्त सम्पदाओं के स्वामी होने पर भी यदि कोई चरित्रहीन है, तो वह हर अर्थ में विपन्न ही माना जायेगा निर्धन एवं साधनहीन होने पर भी चरित्रवान् का मस्तक समाज में सदैव ऊँचा रहता है । इसके विपरीत चरित्रहीन का व्यक्तित्व अपनी आन्तरिक कुरुपता को मँहगी साज-सज्जा ओढ़े फिरने पर भी छिपा नहीं सकता ।

चरित्रवान् व्यक्ति को यह विश्वास रहता है कि उस के सदाचरण से प्रभावित होकर जनमत उसके पक्ष में ही रहेगा ।वह सदा सच्ची निष्ठा के साथ वही काम करता है जिसमें लोकहित और आदर्शो का प्रतिपालन समाहित है । इसी विशेषता के कारण उस पर्याप्त जन सहयोग भी प्राप्त होता है, फलतः वह आर्श्चयजनक समझे जाने वाले कार्यो को भी पूरा कर लेता है ।

जितने भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व रखने वाले कार्य हुए हैं, वह चरित्रवान् व्यक्तियों द्वारा जन सहयोग के बल पर ही पूरे हुए हैं । जन-समर्थन प्राप्त न होने पर अच्छे उद्देश्य को लेकर किये जाने वाले कार्य भी असफल होते देखे जाते हैं ।

सच्चरित्रता की पूँजी द्वारा सहयोग और सम्मान उसी प्रकार से खरीदा जा सकता है, जिस प्रकार रुपये पैसे द्वारा विभिन्न वस्तुएँ । सदाचार को वह हुण्डी कहा जा सकता है, जिसे भुना कर जन-सहयोग व जन-सम्मान सहज ही प्राप्त किया जा सकता है ।

आत्म-सन्तोष मानव-जीवन की महानतम उपलब्धि है । इसे प्राप्त करने के लिए उच्चस्तरीय चरित्र की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है । कुटिलतापूर्वक अनीति अपना कर कोई व्यक्ति तात्कालिक सफलता भले ही प्राप्त कर ले पर आत्मगलानि और आत्म प्रताड़ना की आग में सदा ही झुलसते रहना पड़ेगा । आत्मग्लानि-तिरस्कार जैसे प्रेत पिशाच उनके पीछे लगे ही होते हैं, जो चरित्र की दृष्टि से दुर्बल होते हैं, अविश्वास और असहयोग का दण्ड ऐसे लोगों को हर घड़ी भुगतना पड़ता है । इस प्रताड़ना को सहन करने वाले कभी सिर ऊँचा उठाकर नहीं चल सकते और सदा अपने को एकाकी अनुभव करते हैं । इतनी हानि उठाकर किसी ने कुछ वैभव अर्जित भी कर लिया तो समझना चाहिए उसने गँवाया बहुत और कमाया कम । उच्च-चरित्र को अपनाए रहने की महत्ता को जो समझते हैं, वे आत्म-सन्तोष, लोक सम्मान के साथ-साथ दैवी अनुग्रह भी प्राप्त करते हैं और महामानवों को मिलने वाले सम्मान से लाभान्वित होते हैं ।


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