आज मनुष्य विकास की जिस स्थिति तक पहुँचा है, वह अनादि काल से किये गये लोगों के सहयोग का सत्परिणाम कहा जा सकता है। यदि उसे परस्पर एक दूसरे का सहयोग न मिले-कोई उसे सहारा न दें, तो उसे व्यक्त्वि का समुचित विकास कर पाना तो दूर, जीवन धारण करना भी दुर्लभ होगा । सेवा-सहकारिता की इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु व्यक्ति सामाजिक-जीवन स्वीकार करता है और समाज के सहयोग से व्यक्तित्व का समग्र विकास करता हुआ सुख-शान्तिपूर्वक जीवनयापन करता है। इस सहयोग देने की वृत्ति ने ही मनुष्य को आज इतना गौरवशाली पद प्रदान किया है । वास्तव में देखा जाय तो यह ज्ञात होता है कि मानव ही क्या समस्त प्राणियों, वृक्ष-वनस्पतियों आदि में भी कोई न कोई ऐसी भावना कार्य करती है, जो बिना किसी प्रतिदान की आशा के भी निरन्तर दूसरों को सहयोग देने की प्रेरणा देती रहती है । इसे परहित की या परोपकार की भावना कहा जा सकता है। सृष्टि का सम्पूर्ण क्रम, समाज की समग्र व्यवस्था इसी भावना से ओत-प्रोत होकर क्रियाशील है। इसके प्रमाण हमें यत्र-तत्र-सर्वत्र मिलते रहते है-
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भःस्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः ।नादन्ति शस्यं खलु वारिवाहाःपरोपकाराय सताँ विभूतयः ॥
नदियाँ स्वयं ही अपना जल नहीं पीतीं, वृक्ष स्वयं ही अपना फल नहीं खाते, बादल स्वयं ही अपने फसलें या अनाज नहीं खाते, सज्जनों की सम्पदायें परोपकार के लिए ही हुआ करती हैं । इसीलिए शास्त्रों में व्यक्ति के लिए सवश्रेष्ठ पुण्य के रुप में परोपकार को बताया गया है, और उसे सदा-सर्वदा इस पुण्य के संचय करने का निर्देश दिया गया है -
परोपकारः कर्त्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि ।परोपकारणं पुण्यं न स्यात् क्रतु शतैरपि ॥
प्राण और धन की बाजी लगाकर भी परोपकार करना चाहिए, क्योंकि जो पुण्य परोपकार से प्राप्त होता है, वह सैकड़ों यज्ञ करने से भी नहीं प्राप्त होता है
परोपकरणं येषाँ जागर्ति हृदये सताम् ।नश्यन्ति विपदस्तेषाँ सम्पदः स्यु पदे पदे ॥
जिसके हृदय में सदा परोपकार की भावना रहती है, उसकी विपदायें नष्ट हो जाती हैं और पग-पग पर उसे सम्पत्तियाँ (सहयोग) प्राप्त होती हैं ।
धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत् ।
बुद्धिमान व्यक्ति को परोपकार के लिए धन और जीवन भी समर्पित कर देना चाहिए ।
परोपकार न करने वाले व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा होती है, उन्हें पशुओं से भी तुच्छा माना जाता है, क्योंकि कम से कम पशुओं का चर्म भी मनुष्यों का उपकार कर देता है -
परोपकार शून्यस्य धिड.् मनुष्यजीवितम् ।यावन्तः पशवः तेषाँ चर्माप्युपकरिष्यति ॥
परोपकार से रहित मनुष्यों का जीवन धिक्कारने योग्य है, क्योंकि पशु कहलाने वाले प्राणियों का भी चर्म मनुष्य का उपकार कर देता है।
प्रकृति का प्रत्येक क्रिया-कलाप परोपकारी जीवन की प्रेरणा देता है, क्योंकि वह स्वयं उसी में संलग्न है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया के सभी कार्य जिस सहयोग वृत्ति द्वारा सम्पन्न हो रहे हैं, उनमें परहित की भावना ही कार्य कर रही है । इसीलिए परहित करने को ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है और दूसरों को अहित करना उन्हें कष्ट पहुँचाना सबसे बड़ा पाप ।
परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
हमें इस पुण्य का संचय और पाप का निरसन (समाप्त) करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।