महामानवों के अवतरण की नई पृष्ठभूमि

February 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कुछेक घुने बीजों को छोड़कर प्रायः सबमें उगने की सामर्थ्य होती है । उसर जमीनें भी होती तो हैं, पर आमतौर से हर जमीन में ऐसी क्षमता होती है कि उसे थोड़ा प्रयत्न करके उपजाऊ बनाया जा सके । बादलों का पानी टीलों पर रुकता नहीं और वे भारी वर्षा होने के उपरान्त भी सजल रहित ही बने रहते हैं । इतने पर भी यदि उन्हें थोड़ा खोदा-कुरेदा जा सके तो पर्वत शिखरों पर भी तालाब बन सकते हैं ।नदी, सरोवरों के तट पर रहने वालों की तरह उन दुर्गम स्थानों पर भी उद्यान लग सकते हैं । यह प्रयत्न परायणता की महिमा का है। किसान अपने घर से फसल नहीं लाता और न माली की जेब से फल सम्पदा भरी रहती है । प्राकृतिक साधनों का उपयोग भर वे लोग करते हैं और उसी बुद्धिमत्ता पूर्ण नियोजन का लाभ उठाते हैं । बुद्धि हर किसी में मौजूद है । मूढ़ और विक्षिप्त थोड़े से ही होते हैं । हर मस्तिष्क में प्रतिभा रहती है और उसे शिक्षण एवं वातावरण के सहारे विज्ञ एवं प्रबुद्ध बनाया जा सकता है।अध्यापक और विद्यालय इसी प्रयोजन की पूर्ति करते रहते हैं ।

सचित संस्कारों वाली प्रतिभाएँ उन बहुमूल्य हीरों की तरह हैं जिनमें मौलिक विशिष्टता विद्यमान है, उन पर किया गया थोड़ा-सा तराशने, खरादने का प्रयत्न

अधिक लाभ और श्रेय दे सकता है । फिर भी उन शिल्पियों का महत्व बना ही रहेगा जो घटिया पत्थरों को भी इस प्रकार काटते घिसते हैं कि उन्हें हीरों का स्थानापन्न बनने का सौभागय मिल सके । सोने का अपना महत्व है उसे लड़ी के रुप में भी उचित मूल्य पर बेचा जा सकता है। इतने पर भी र्स्वणकारों का कला को सराहा ही जाता रहेगा । वे आभूषण बनाकर सोने का आकर्षण का केन्द्र बना देते हैं । यहाँ तक कि घटिया धातु या मिलावट के सहारे ऐसा बना देते हैं कि उससे भी साज सज्जा का काम चल सके । प्राचीन काल में उपाध्याक्षों के हाथ में यही कला भी वे मनुष्यों को गढ़ते थे, उन्हें सामान्य से असामान्य बनाते थे । संयोगवश कोई सुसंस्कारी आत्मा हाथ लग सके तब तो उन शिल्पियों को, उनके कौशल को, ढलाई के कारखने गुरुकुलों को अनौखा ही श्रेय मिल जाता था । संदीपन ऋषि के आश्रम में कृष्ण और विश्वामित्र आरण्यक में राम की ढलाई हुई थी । यही सब प्रयोक्ता धन्य माने जाते हैं ।

युग परिवर्तन की महती आवश्यकता पूरी करने के लिए इन दिनों देवत्व में सम्पन्न आत्माओं को ढूँढ़ निकालना एक बड़ काम है । साथ ही उन्हें-उभारना प्रशिक्षित परिपक्व करना भी उतने ही महत्व की प्रक्रिया है । तेल के कुँए ढूँढ़ निकालना एक बड़ी सफलता है, पर उस कीचड़ जैसे खनिज की सफाई करने वाला तन्त्र खड़ा न हो सका तो उस ढूढ़ने भर से भी अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध न होगा । कच्ची धातुओं की खदान-खोजने वालों की प्रशंसा होती है किन्तु उन्हें पकाने, ढालने का कारखाना न लग सके तो उस भारी मिट्टी से कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा ।

जन-समूह में भीड़-भाड़ का ही बाहुल्य रहता है। उनमें नर-पशुओं की संख्या ही प्रधान होती है । आम आदमी पेट और प्रजनन के लिए ही मरता खपता है । लोभ लिप्सा उसे उत्तेजित करके अधिक संग्रही विलासी बनने की ललक पैदा करती है, फलतः उस आतुरता में अपराधी, अहकारियों जैसी उच्छृंख्लता ही गले बँधती है । इस विपन्नता के फलस्वरुप, उद्वेग, तिरस्कार, विग्रह और संकट ही सामने आते हैं लोग इसी कीचड़ में सड़ते और इसी भाड़ में भुनते रहते हैं । नरक में से जन्मते-नरक में पलते और अन्ततः नरक में ही चले जाते हैं मनुष्य शरीर उन्हें मिलता है, उसका आनन्द, गौरव और प्रतिफल तो उनके सामने स्वप्न में भी नहीं आता है । जन-समूह की यही सुदर्गति है। वे अपनी समस्याओं के समाधान में हर किसी के सामने पल्ला पसारते फिरते हैं इन अभागों से देश धर्म की समाज संस्कृति-युग परिवर्तन में सहकार देने की चर्चा करना और आशा रखना र्व्यथ है । वे चैन से जी लें और साथ वालों को शान्ति से दिन काट लेने दें, इतना भी उनसे बन पड़े तो बहुत है ।

प्रसंग असामान्यों के ढूँढ़ने, उभारने का चल रहा था । उनका अस्तित्व रहता तो हर युग और हर क्षेत्र में है, पर खोजने और पकाने की प्रक्रिया शिथिल हो जाने से प्रतिभाएँ जहाँ-तहाँ छिपी और उपेक्षित पड़ी रहती हैं । अभी भी भूमि में इतना वैभव दबा पड़ा है जिसे उपयोग में आने वाली सम्पदा की तुलना में असंख्य गुना कहा जा सके । सराहना खोज की ही । उसी के बलबूते प्रस्तुत उपलब्धियाँ करतल गत हो सकी हैं और भविष्य में जो कुछ मिलेगा उसमें खोजी और पकाने वाले ही श्रेयाधिकारी बनेंगे । युग परिवर्तन की परिस्थितियाँ मौजूद हैं । लोक चेतना के अन्तराल में असाधारण विक्षोभ है वह प्रस्तुत परिस्थितियों को बदलने के लिए घुटन से छुटकारा पाने के लिए आतुर है । सृष्टा को भी परिवर्तन ही अभीष्ट है । विनाश को निरस्त और विकास को प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया को अध्यात्म भाषा में अवतार और लौकिक भाषा में प्रचंड परिवर्तन कहते हैं । अदृश्य में इसी की परिपूर्ण तैयारी है । भूमिका दृश्य को निभानी है । नसों में समर्थता और मस्तिष्क में प्रेरणा रहते हुए भी काम तो हाथ ही करते हैं । उठना इन्हीं को पड़ता है । चलते तो पैर ही हैं । आकाँक्षा भले ही अन्तःकरण की हो ।

इन हाथों को ही इस सन्धि बेला में समर्थ और गतिशील बनाया जाता हे । आलस्य उन्हीं का छुडाना हैं । जागृत आत्माएँ ही युग सृजन का महान प्रयोजन पूरा कर सकेंगी । युग सृजन की भूमिका निभा सकने वाले शिल्पियों और साहसियों के कन्धों पर ही यह बोझ जाने वाला है । अपने को अपने अश को-समय को, इतिहास को धन्य बनाने का श्रेय इसी स्तर के जागरुकों को मिलता है। महाकाल के शंखनाद ने इन्हीं योद्धाओं को आमन्त्रित किया है। डमरु बजते ही शम्भुगुण साथ चल पड़ते थे । कृष्ण की बंशी को सुनकर गोपियों के पग थिरकने से रुकते ही नहीं थे । युग निमन्त्रण ने जिनके अन्तराल को आन्दोलित क्या है वे तथाकथित समस्याओं, कठिनाइयों, आकर्षणों और दबावों में से एक की भी परवा किये बिना तरकस से निकलकर लक्ष्य पर टूट पड़ने वाले तीर की तरह गतिशील हो रहे हैं नियति को सुव्यवस्थित करना ही इन दिनों का महत्वपूर्ण काम है । राशन, आयुध, सैनिक, मोर्चा सब कुछ सही होने पर भी युद्ध संचालन का सुव्यवस्थित तन्त्र तो होना ही चाहिए ।

असामान्यों की खोज और उनकी परिष्कृति के लिए आधार तैयार है, अब उसे गतिशील ही करना शेष है । प्रशिक्षण के लिए शान्ति कुन्ज ब्रह्मवर्चस् गायत्री नगर का तन्त्र आवश्यक साधन जुटाने और व्यवस्था बनाने के आरम्भिक चरण पूरे कर चुका है । विश्व विद्यालय स्तर की कितनी ही सत्र योजनाएँ चल पड़ी हैं । इन्हें संदीपन आश्रम, विश्वामित्र आरण्यक की उपमा दी जा सकती है । बौद्ध और जैन काल के चैत्य, विहार और संघारामों की कार्य पद्धति उसमें अपनाई गई है । समय कम और कार्य अधिक होने से प्रक्रिया को सरल एवं संक्षिप्त किया गया है फिर भी प्रयोजन प्रायः वही पूरा होना है जिसमें समर्थ महामानवों की नई पीढ़ी ढाली और कार्यक्षेत्र में उतारी जा सके । इस शिक्षण में भीड़ भरने से काम नहीं चलेगा । उच्चस्तरीय विद्यालयों में चुने हुए छात्र ही प्रवेश पाते हैं प्रवेश के अवसर पर कड़ी जाँच-पड़ताल होती है । छात्र-वृत्ति देने समय तो अधिकारी वर्ग को छात्रों में से अधिक प्रतिभा सम्पन्नों को चुनाव करना पड़ता है। ब्रह्मवर्चस प्रशिक्षण के लिए पूर्व संचित संस्कारों की सम्पदा वाले ढूँढ़े जाते हैं । साथ ही छात्र-वृत्ति जैसी शक्तिपात प्रक्रिया के अनुदान देने के लिए उपयुक्त पात्रता की जाँच पड़ताल का और भी कड़ा उपक्रम चलता है।

इस सर्न्दभ में कई योजनाएँ तैयार की गई हैं और कई कदम उठाये गये हैं । प्रचार की दृष्टि से जन-जन को यह समझाया जाता है कि संकीर्ण स्वार्थपरता का समर्थन करने वाली प्रचलित लोक मान्यता सर्वथा अदूरदर्शिता पूर्ण है । लोभ और मोह तक चिन्तन और प्रयास को सीमित रखने वाले नफे में रहते हैं यह सोचना अवास्तविक है। उस नीति को अपनाने वाले असन्तोष, असम्मान और दैवी, आक्रोश सहते और दुर्बुद्धिजन्य अनेकानेक दुर्व्यसनों, अनाचरणों से ग्रसित होक पग-पग पर संकट असहते हैं । इसके विपरीत उदार चेता परमर्थ का आनन्द तो लेते ही हैं, आत्मबल उच्च चरित्र एवं जन सहयोग के सहारे सुख साधनों से भी वंचित नहीं रहते । महामानवों के जीवन इतिहास का प्रत्येक पृष्ठ बताता है कि उन्हें स्व उपार्जित समाज प्रदत्त और दैवी अनुग्रह के रुप में इतनी अधिक उपलब्धियाँ प्राप्त हुई जितनी किसी संकीर्ण स्वार्थपरायण को कभी भी मिल नहीं सकीं । यह उनकी इच्छा का विषय था कि उनने उन्हें खाया नहीं दूसरे को खिला दिया । जो खाने और खिलाने के बदले मिलने वाले आनन्दों के स्तर को समझते हैं उनके लिए इस वितरण में भी बुद्धिमता ही बुद्धिमता प्रतीत होती है ।

आज हर व्यक्ति के सोचने का तरीका विचित्र है । संकीण स्वार्थ परायणता ही लोगों को रुचि कर लगती है और उसी को अपनाये रहने के लिए सृजन सम्बन्धी भी दबाव डालते हैं । क्षणिक लाभों के लिए महान उपलब्धियों को तिरस्कृत करना यही है आज की अदूरदर्शी लोक नीति । इसका विश्लेषण किया जा सके तो यह कहना होगा कि बीज को बेचकर सिनेमा देख लेने की तरह यह अबुद्धिमत्ता पूर्ण हो, इस आचरण से तत्काल तो लाभ मिला, पर खेत बिना बोया रह गया । परीक्षा में न बैठ सकने पर जो एक वर्ष मारा गया वह उस दिन के खेल मनोरंजन की तुलना में अधिक घाटे का रहा । अदूरदर्शिता आज की सबसे बड़ी बीमारी है । इससे लोक मानस को छुटकारा दिलाने के लिए महानता अपनाने के लिए मिलने वाली भौतिक और आत्मिक उपलब्धियों का सुविस्तृत इतिहास प्रस्तुत करना होगा । आदर्शवादी उदाहरणों के अभाव में आज उत्कृष्टता अपनाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती । अनुकरण के लिए महामानवों की बिरादरी का आज तो दर्शन नहीं होता, किन्तु भूतकाल में उसी का बाहुल्य रहा है । साक्षी के लिए यह भी कम महत्वपूर्ण, कम प्रामाणिक एवं कम उत्साहवर्धक नहीं है । जन-जन को उस अतीत की झाँकी कराई जा सकती है । जिसमें मनुष्य ने देवत्व की नीति अपनाकर अपने को गौरवान्वित बनाया और दूसरों के लिऐ स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न किया । सतयुग, देवत्व ओर दूरदर्शी उदारता एक ही तथ्य की त्रिविधि प्रक्रिया है ।

आज की लोक नीति में लिप्सा ही सब कुछ है तो उसकी परिणिति भी सामने है । मछली, कबूतर और हिरन आये दिन जाल में फँसते और प्राण गँवाते हैं । अदूरदर्शी आतुरता ने ही मनुष्य के सामने भी उसी प्रकार के संकट खड़े किये हैं उससे छुटकारा पाये बिना ललक लिप्सा को शालीनता में बदले बिना न किसी को भौतिक प्रगति का लाभ मिलेगा और न आत्मिक शान्ति का दर्शन होगा । इस पतथ्य से जन-जन को अवगत कराने के लिए प्रचण्ड प्रचार अभियान चलाया जाय । लेखनी वाणी और प्रचार की समूची प्रक्रिया को उसी केन्द्र पर नियोजित किया जाना चाहिए कि मनुष्य अपना प्रत्यक्ष लाभ आदर्शवादी दूरदर्शिता अपनाने में समझने लगे । इस प्रतिपादन के समर्थन में आज भी अगणित उदाहरण ढूँढ़े और सर्वसाधारण के सामने प्रस्तुत किये जा सकते हैं ।

यह प्रचार अभियान जितना ही तेज होगा उतना ही सर्वसाधारण को यह समझने का अवसर मिलेगा कि सच्चे, चिरस्थायी और सर्वागीण स्वार्थ की पूर्ति वस्तुतः आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने से ही है । लाभ में हानि-हानि में लाभ समझने की तमिस्रा दूर करने के लिए ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल का आलोक क्रमशः तीव्रतर किया जा रहा है । आशा की जा सकती है कि निकट भविष्य में विचारशील व्यक्ति जीवन नीति-निर्धारण करने में वातावरण के दबाव को स्वीकार करके साहसपूर्वक स्वयं निर्णय कर सकने में समर्थ हों । इसी प्रकार सच्चे शुभ-चिन्तन भी अपने प्रियजनों को क्षुद्रता से उबरने के प्रयासों में इस प्रकार अड़चन उत्पन्न न करेंगे जैसे कि पिछले दिनों करते रहे हैं और इन दिनों करते हैं । गुरुकुलों के ऋषि आश्रमों में अपने बालकों को भेजते समय अभिभावकों को संकोच नहीं होता था । आज तो विलासिता और अहंता उभारना ही बच्चों के प्रति अभिभावकों का अनुग्रह माना जाता है । यह परिवर्तन जैसे-जैसे आवेगा । कीचड़ में से कमल उगेंगे और महामानवों की-युग पुरुषों की आवश्यकता इसी समाज में से पूरी होती चलेगी । सदाशयता को प्रोत्साहन देने वाली प्रचार प्रक्रिया को इन दिनों असाधारण रुप से तीव्र करने की आवश्यकता है । युग सृजेताओं की आवश्कता पूरी करने के लिए यह प्राथमिक एवं आवश्यक उपाय उपचार है ।

महामानवों की भूमिका निभाने की क्षमता जिनमें है उनकी रुचि अपने अन्तःकरण के अनुरुप साधन सामने आते ही मचलने लगती है । इस कसौटी पर किन्हीं का भी अन्तराल जाँचा जा सकता है । शराबी, जुआरी, व्यभिचारी अपने अनुरुप परिस्थितियाँ देखते ही मचलने लगते और रोकथाम होते हुए भी सर्म्पक साधने और सहयोग साधने का ताना-बाना बुनने लगते हैं । बाजीगर का खेल होते ही मनचले बच्चे पढ़ाई छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और तमाशें का मना लेते हैं । सन्त, सज्जनों की सुसस्कारिता भी अपने अनुरुप अवसर सामने आने पर न केवल वहाँ किसी प्रकार जा ही पहुँचते हैं वरन् रुचि लेने और सहयोग देने का भी प्रयास बिना माँगे ही करने लगते हैं । अन्तः प्रेरणा उन्हें उसके लिए विवश जो करती है। पकड़ का यही सबसे सरल तरीका है । सीता की खोज में राम सघन वन में विचरते हैं और लक्ष्मण से कहते हैं-इस क्षेत्र में सीता होंगी तो नदी तट पर संध्या करने अवश्य आयेंगी । चलकर उसे वहीं खोजना चाहिए । इस प्रसंग से प्रकट होता है क मूल प्रकृति मनुष्य को किस प्रकार विवश करती है और कठिन परिस्थितियों से भी वह उसकी पूर्ति का प्रयास करता है। युग साहित्य के प्रति अभिरुचि, श्रेष्ठ वातावरण में प्रसन्नता-सत्प्रवृतियों में सहयोग यह तीन प्रयोजनों के इर्द-गिर्द उच्च आत्माएँ इन दिनाँ जमा हुई पाई जा सकती हैं । वन्य जीवों को सघन वन में देखना हो तो चुपचाप वहाँ किसी जलाशय के निकट बैठ जाना चाहिए । प्यास बुझाने के लिए आने पर उन्हें आँखें भर कर देखा जा सकता है । युग निर्माण योजना के विविध प्रयास ऐसे हैं जिनसे सामान्य स्तर के लोगों को न रुचि हो सकती है न उत्साह । सहयोग की बात तो उनके बस से बाहर ही होती है किन्तु जिनमें देवत्व के अंश अधिक परिमाण में विद्यमान है वे अपनी मर्जी से नये शुभारम्भ न कर पाने पर भी जहाँ भी अपने अनुरुप वातावरण देखते हैं, उसमें सम्मिलित हुए बिना, योगदान दिये बिना रह ही नहीं सकते । युग निर्माण मिशन में इसी प्रक्रिया से अधिक जागृत आत्माओं की एकत्रीकरण हुआ है अब उनकी समर्थता और संख्या अधिक चाहिए तो उन खोज प्रयासों को अधिक उच्चस्तरीय, आकर्षण एवं परिमाण में सुविस्तृत किया जायगा ।

इन दिनों धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण-गायत्री महापुरुश्चरण, धर्मानुष्ठान, शक्तिपीठ संस्थापन, विचार क्रान्ति अभियान, महिला जागरण जैसे अनेकों सृजनात्मक कार्यक्रम क्रियान्वित किये गये हैं । उनकी जानकारी तो सभी को मिल जाती है, पर उनमें सम्मिलित होने, सहयोग देने की प्रवृत्ति किन्हीं विरलों के ही मन में उठती है । वातावरण से प्रभावित लोग उस दिशा में कुछ करना तो दूर गम्भीरतापूर्वक सोचने तक के लिए तत्पर नहीं हो पाते । इन परिस्थितियों में भी जिनमें आकर्षण उत्पन्न हो और सहयोग के लिए अन्तःकरण मचलें तो समझना चाहिए कि देवत्व की चेतना यहाँ जीवन्त है ।

चिनकारी विद्यमान है थोड़े ईंधन की व्यवस्था बन सके तो लपट उठने और ज्वाला जलने में देर न लगेगी । इन आयोजनों के संयोजक यह ध्यान रखें कि यह धर्म रुचि किन में कितनी मात्रा में प्रकट हो रही है । कौन इतनी श्रद्धा एवं तत्परता से इन प्रयोजनों में योगदान दे रहा है । इस प्रकार का उत्साह एवं साहस इस बात का प्रमाण है कि वहाँ दिव्य तत्वों की उपस्थिति विद्यमान है । ऐसे लोगों को युग साहित्य नियमित रुप से पढ़ने के लिए मिलता रहे, उन्हें सत्संग, परामर्श एवं प्रोत्साहन का खाद पानी मिलता रहे तो अंकुरों को पादप्, पादपों को विशाल वृक्ष बन सकने की सम्भावना सहज ही साकार हो सकती है ।

परिवार निर्माण अभियान को अग्रगामी बनाना है । पिछले दिनों यह प्रक्रिया महिला जागृति के नाम से चलती थी, अब उसका क्षेत्र अधिक व्यापक बनाया गया है और उसे परिवार निर्माण की सुविस्तृत योजना के अर्न्तगत विकसित किया गया है । पंचशीलों का परिपालन-धार्मिक वातावरण का प्रचलन, पर्व संस्कारों के माध्यम से नव जागरण जैसी कार्य पद्धति इसमें सम्मिलित की गई है । इस प्रयास से घर परिवारों का सूक्ष्म वातावरण ऐसा बनेगा जिसमें देवत्व के अंशों को उभारने का अवसर मिल सके । वर्षा ऋतु में सूखी घास हरी हो जाती है और उगाई गई वनस्पति तेजी से बढ़ती है । पतझड़ और ग्रीष्म में भले, चंगे पौधें भी मरते झुलसते देखे गये हैं । घरों में यदि धार्मिक वातावरण रहे तो सुसंस्कारिता के बीजाकुँर जहाँ भी विद्यमान होंगे वे स्वयंमेव प्रकट एवं परिपुष्ट होते चलेंगे ।

युग सन्धि में देवात्माएँ बड़ी संख्या में अवतार का साथ देने के लिए जन्म लेती हैं पाण्डव देव पुत्र थे । हनुमान अंगद भी देवता थे । इन आत्माओं को अवतरित होने के लिए उपयुक्त माध्यम चाहिए । सदाश्यता सम्पन्न माता ’िपता के रज बीज का आश्रय वे लेते हैं । दुष्ट-दुरात्माओं की उन्हें गंध ही नहीं भाती तो उनसे सम्बन्ध कैसे साधें ? उनके शरीर से प्रवेश कैसे करें ? स्वायम्भु, मनु और शतस्या रानी ने तप करके अपनी काया ऐसी बनाई थी कि उसमें देवात्माओं को गर्भ निवास करते हुए कष्ट न हो । मदालसा, सीता, शकुन्तला जैसी महान महिलाएँ ही अपनी कोख से दिव्यात्माओं को जन्म दे सकने में समर्थ हुई । इन दिनों यह प्रयास नये ढंग से किये जा रहे हैं कि दाम्पत्ति जीवन में उत्कृष्टता उत्पन्न की जाय । उच्चस्तरीय आत्माओं के जोड़े मिलें । आदर्श विवाह के रुप में उनका शुभारम्भ हो । आजकल दैत्य विवाहों का चलन है । आत्माओं की गरिमा कोई नापता नहीं, रुप के ऊपर सब पागल है । शादियों में दहेज एवं अपव्यय की धूम रहने से गरीबी और बेईमानी पनपती है । जमा पूँजी की होली जलाकर परिवार का भविष्य अन्धकारमय बनाने की प्रक्रिया परोक्ष रुप से अभिशाप ही बरसाती रहती है । पीड़ितों के घाव चिरकाल तक नहीं भरते । फलतः विवाह का स्वरुप और प्रतिफल दानवी बन कर रह जाता है । पति-पत्नी के बीच भी इस निष्ठुरता से उत्पन्न हुई खाई किसी न किसी रुप में आजीवन बनी रहती है । इन दैत्य विवाहों को एक प्रकार से कन्या का-उस परिवार के धन का अपहरण ही कहना चाहिए । जहाँ भी यह प्रचलन होगा वहाँ सुसंतति की आशा नहीं ही की जानी चाहिए । देव विवाहों से ही देवात्माओं के सुसन्तति रुप में जन्म लेने की आशा बँधती है । इसलिए इन दिनों उस प्रचलन पर भी जोर दिया जा रहा है। प्रगतिशील जातिय सम्मेलनों के पीछे दिव्य आत्माओं के अवतरण की भूमिका बनाना ही रहस्यमय प्रयोजन है । धन की बचत और कुरीति उन्मूलन तो उसका सामाजिक पथ है ।

दिव्य आत्माएँ यदि किसी प्रकार किसी अनुपयुक्त वातावरण में जन्म ले भी लें तो वहाँ घुटन अनुभव करती हैं और वापिस लौट जाती हैं । कितने ही होनहार बालक ऐसी परिस्थितियों में बड़े होने से पहले ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं । बहुमूल्य पौधे और प्राणी जब-तब अपने लिए उपयुक्त जलवायु की माँग करते हैं तो दिव्य आत्माओं को सुसंस्कृत परिवार में रहने और पलने की बात में भी कोई औचित्य है। परिवार निर्माण अभियान की प्रक्रिया से व्यक्ति और समाज में नव-निर्माण का प्रत्यक्ष उद्देश्य तो सन्नहित है ही उसके पीछे रहस्यमय प्रयोजन ऐसा वातावरण बनाना भी है जिसमें दिव्य आत्माओं को जन्म लेने और ठहरने के लिए अनुकूलता मिल सके ।

शान्ति कुन्ज गायत्री नगर में पाँच-पाँच दिन के परिवार सत्र लगने की योजना बनी है उनमें पर्यटन तीर्थाटन की भाव तुष्टि भी जोड़ दी गई है । इन सत्रों में बालों नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराने की व्यवस्था इसलिए रखी गई है कि यदि देवत्व की कहीं कुछ विद्यमानता हो तो उसे अभीष्ट परिपोषण मिल सके । साधकों को शक्ति पात बड़ों को अनुदान, आशीर्वाद के माध्यम से कई बार महापुरुषों को अनुग्रह मिलता है। बालकों को वह लाभ समर्थ हाथों से उपरोक्त संस्कार कराने से भी उपलब्ध हो सकते हैं और उनके उज्ज्वल भविष्य का आधार बन सकता है।

शक्तिपीठों के उद्घाटन में इस वर्ष गुरुदेव का जाना व्यावहारिक दृष्टि से अति कठिन है। 240 शक्ति पीठों और 1000 प्रज्ञा पीठों उद्घाटन की प्रक्रिया में कुछ महीने ही लगाने हैं तो तूफानी दौरे करने से ही बात बनेगी । ब्रह्मवर्चस शान्ति कुन्ज में चल रही युगान्तरकारी प्रवृत्तियों में से दौरे के लिए समय निकालना अति कठिन है। फिर भी प्रवास में निकलने की जो प्रेरणा हिमालय से आई है उसके पीछे रहस्यमय उद्देश्य यह है कि उच्च आत्माओं को बेधक दृष्टि से देखा जाय और उनके अनुरुप काम उन्हें सौंपने का उपक्रम किया जाय। उद्घाटन के समय होने वाले समारोह और सर्म्पक से यह कार्य सरलतापूर्वक हो सकेगा। इस विशेष उद्देश्य से हिमालय की मार्गदर्शक सत्ता ने उन्हें प्रवास में निकलने का निर्देश दिया है । यों धीमी गति से यह कार्य ब्रह्मवर्चस् में चलते रहने वाले सत्र शिविरों से भी किसी कदर पूरा होता रहता है।

यह भी आधार ऐसे ही हैं जिनसे युग सृजन के लिए उपयुक्त आत्माओं को खोजा और विकसित किया जा सकता है । युग सृजन का काम बड़ा है उसके लिए समर्थ व्यक्तित्व चाहिए । उनकी खोज हो रही है। साथ ही उपयुक्त प्रशिक्षण की-समर्थ अनुदान देने की-पृष्ठभूमि भी बन रही है । युग निर्माण योजना के विविध क्रिया कलापों का प्रत्यक्ष प्रभाव और परिणाम की जानकारी तो सभी को है, इस परोक्ष प्रक्रिया से भी विज्ञ परिजनों को अवगत होना चाहिए । साथ ही उसे सफल बनाने में तत्पर भी ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118