जीवन अनुसंधान

February 1980

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बुद्धि की प्रखरता में एक दुर्बलता भी सम्मिलित है कि वह पूर्व मान्यताओं के मोह में फँस जाती है जबकि दर्शन जीवन और सत्ता के सत्यानुसंधान के लिए प्रत्यत्नशील रहता है । वह मान्यताओं का नहीं विवेक का अनुयायी होता है । दर्शन जीवन का गम्भीर प्रवृत्ति है तथा इसका लक्ष्य है-आत्म तृप्ति । यह मानसिक तथा बौद्धिक कसरत नहीं बल्कि सत्य की खोज का विवेक सम्मत प्रयास है । बुद्धि जीवन संचालन की महत्वपूर्ण चेतना है । विचारों एवं कल्पनाओं से व्यावहारिक प्रश्नों का समाधान मिलता है । किन्तु बुद्धि सामान्य स्तर से उठकर आत्मा का स्वरुप जानने तथा चरम लक्ष्य पाने के सर्न्दभ में जिज्ञासा उठती है तो वह दर्शन का साधन बन जाती है । यह कहा जाय कि दर्शन का विकास परिष्कृत बुद्धि से होता है तो अत्युक्ति नहीं होगी ।

उत्कृष्ट चिन्तन एवं श्रेष्ठ विचार मानव विकास के लिए अति उपयोगी हैं किन्तु दार्शनिक प्रवृत्ति की सन्तुष्टि इतने मात्र से नहीं हो जाती । मनुष्य की इस जिज्ञासा की तृप्ति तो सत्य-सत्ता के दर्शन से ही होती है । इसके बिना जीवन अपूर्ण तथा अशान्त बना रहता है । दर्शन के साथ जुड़ी भावना का लक्ष्य है-परमात्म सत्ता का साक्षात्कार ।

हम प्रगति के युग में रह रहे हैं । भौतिकवाद का असाधारण विकास हुआ है । फलस्वरुप सुख साधनों की वृद्धि हुई है । ज्ञान के ़क्षेत्र में भी हमारी उपलब्धियाँ पहले की अपेक्षा कहीं अधिक हैं । साधनों की बहुलता एवं ज्ञान की उपलब्धियों से व्यावहारिक जीवन में निश्चिन्तता एवं सन्तोष का दर्शन होना चाहिए था, किन्तु दिखायी इसके विपरीत ही पड़ रहा है । सम्पूर्ण समाज ही भयाक्रान्त दिखायी दे रहा है । ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों से विशालतर जीवन, समृद्धतर जीवन, आशापूर्ण तथा सन्तोषप्रद जीवन की प्राप्ति होनी चाहिए थी, किन्तु असन्तोष एवं निराशाजनक परिस्थितियाँ कुछ और ही सोचने पर बाध्य करती हैं ।

कारणों का पता लगने पर स्पष्ट होता है कि इस विकट स्थिति का एक मात्र कारण है-जीवन दर्शन का अभाव । वस्तुतः वैज्ञानिक चिन्तन एवं ज्ञान में निरपेक्ष ज्ञान की तुलना में भौतिक ज्ञान को ही अधिक महत्व दिया गया । सारा मानवी पुरुषार्थ प्रकृति एवं जड़ पदार्थो की खोजबीन करने में सिमट कर रह गया । पदार्थो की उधेड़-बुन से स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों तरह के परिणाम दृष्टिगोचर हुए । अच्छे परिणामों से अनेकों सुख-साधन मिलें किन्तु दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य आन्तरिक जीवन से दूर हटता गया । पदार्थो के आकर्षण ने उसे अपनी चेतना से दूर धकेल दिया । परिणाम अनेकानेक समस्याओं के रुप में सामने हैं । मनुष्य जाति का असन्तोष-निराशाओं से भरा जीवन ।

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जीवन दर्शन के अभाव में भौतिक साधनों की बहुलता मनुष्य को स्थायी शान्ति एवं सन्तोष नहीं प्रदान कर सकती । भौतिक ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ जीवन सत्ता तथा परम सत्ता के ज्ञान के बिना मनुष्य को सन्तुष्ट नहीं कर सकती । वैज्ञानिक जिज्ञासा का होना अच्छी बात है । अनुसन्धान से नये-नये तथ्यों के उद्घाटन होते तथा उपलब्धियों के द्वार खुलते हैं । किन्तु यह खोज जड़-पदार्थो, प्रकृति के अणु-परमाणुओं तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि उससे आगे बढ़कर चेतन परतों तक पहुँचना चाहिए । जिनके रहस्योद्घाटन पर ही स्थायी शान्ति एवं सन्तोष अवलम्बित है ।

चिन्तन की परिष्कृत धाराएँ जब आन्तरिक क्षेत्र में प्रविष्ट करती हैं तो वे ही जीवन-दर्शन बन जाती है जो सत्य एवं सत्ता की खोज का सशक्त आधार बनती हैं । दार्शनिक भावना का परम लक्ष्य यही है।


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