“आरोप्यते शिला शैली यत्नेन महता यथा।’ निप्पात्यंतं क्षणोनाध स्तथात्मा गुणदोषयोः॥”
किसी ऊँचे स्थान पर शिला बड़ी कठिनाई से चढ़ाई जाती है कन्तु वही शिला क्षण भर में नीचे आसानी से गिराई जा सकती है । अपने गुण-कर्म और स्वभाव की भी यही स्थिति है । इन्हें उच्च स्तर का बनाने में बड़ी कठिनाई होती है परन्तु मनुष्य इनको पतोन्मुख सरलता से कर लेता है । आत्मा के उत्थान व पतन की भी यही स्थिति है ।