कर दो प्रयाण अब प्राणवान (kavita)

February 1980

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यदि ग्रीष्म न हो तो सागर से क्या श्याम मेघ बन पायेंगे ? बोंया न जाय यदि बीज कहीं, क्या वृक्ष स्वयं उग आयेंगे ?

परहित में सृजन प्रकृति का है, जगती क्रम, श्रम का ही विधान । पुरुषार्थ-समपण की महिमा, से प्राणी होते प्राणवान् ॥

रवि भी करके पुरुषार्थ प्रबल, जगती को देता है प्रकाश । परहित-उर्त्सग, सृजन गौरव-त्यागों से बनते श्री निवास ॥

यह अखिल सृष्टि के मूल नियम-जो लागू होते हैं समान । युग परिवर्तन के लिए करों, अब ते प्रयाण हे प्राणवान ॥

पर श्रद्धा, निष्ठा औ तप से, जो बन जाते मानव समर्थ । वे अनायास कर देते हैं, ये नियम और उपनियम र्व्यथ ॥

तब गुण मनस्विता देती है, जो रचती रहती संस्कार । उसके पीछे-पीछे चलती, यह प्रकृति उसी का पग निहार ॥

वे मनुज नहीं, हैं काल पुरुष, युग शक्ति, विधा कहलाते हैं । उनके पावों के रज कण भी जगती में पूजे जाते है ॥

हम भाग्य सृजन कर सकते हैं, यदि हो जायें हम ज्योतिमान । उर्त्सग करो मानवता पर, कर दो, प्रयाण है प्राणवान् ॥

तप से तेजस् उपन्न करो, तप जाय, हमारी यह काया । हो स्वयं भस्म कलि की छाया, भागें खुद दनुजों की माया ॥

वर्चस का गौरव हो असीम, रुक जाय कालगति का विधान । तुम ब्रह्म पुत्र, माँ ब्रह्म शक्ति, हो जा विवके से ज्योतिमान ॥

तुम समर्थ-असमर्थ नहीं, तुम स्वयं सृष्टि की शक्ति । अव्यक्त रही जो महाशक्ति, पर हित में दे भावाभिव्यक्ति ॥

तेरे नामों के पाहन भी, कहलायेंगे आगे महान स्वागत करने इस नव युग का, आगे आओ हे प्राणवान्

*समाप्त*


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