मौत क्यों डरावनी लगती है, इसका एक ही उत्तर है- उसके सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी का अभाव । यदि जीवन और मरण का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध समझा जा सके तो विदित होगा कि फल से बीज और बीज से फल की तरह दोनों एक दूसरे से सधन सहयोगी हैं । ग्रहण और विसर्जन का क्रम ही इस सृष्टि का आधारभूत कारण है । शरीर आहार ग्रहण करता है और मल विसर्जन । जीवन को भी नवीन का ग्रहण आवश्यक है । उसके लिए पुरातन का विसर्जन किये बिना कोई गति नहीं ।
स्थिरता और जड़ता एक ही बात है । मनुष्य चेतन है इसलिए उसका एक स्थिति में बने रहना सम्भव नहीं । यहाँ सब कुछ बदलता चलता है तो जीवन यात्रा में गतिशीलता क्यों नहीं रहेगा ? यात्रा क्रम में इन पड़ावों को ही जन्म और मरण कहते हैं इसमें न तो कुछ अप्रत्याशित है और न आर्श्चयजनक । फिर मरण से भय किस बात का ।
प्रियजनों का विछोह एवं सम्पत्ति का व्यामोह भी मरण भय का एक कारण है । यदि साथियों और साधनों का आरम्भ से ही ईश्वर की सम्पदा समझा जाय और उनके साथ सेवा साधना एवं कर्त्तव्य परायणता के अभ्यास का क्रम जारी रखा जाय तो व्यामोह की उतनी जटिलता उत्पन्न नहीं होने पावेगी । जिसमें मरण की घड़ी असह्य वेदना उत्पन्न करें । स्वागत और विदाई के अपने-अपने खट्टे मिट्ठे स्वाद हैं, जो आये दिन इच्छा या अनिच्छा से चखने पड़ते हैं । सम्पत्ति साधनों के प्रति बैंक के खजान्ची जैसी और प्रियजनों के प्रति हर्षोत्सव में एकत्रित होने वाले मित्रों जैसी दृष्टि रखी जा सके तो विदाई में व्यथा नहीं, नवीनता भार की अनुभूति होगी ।
मृत्यु के सम्बन्ध में आमतौर से लोग विचार नहीं करते । उसकी जिम्मेदारी एवं तैयारी के संदर्भ में उपेक्षा बरतते रहते हैं । फलतः समय आने पर मरण अविज्ञात रहस्य के रुप में सामने आता है और भयानक एवं त्रासदायक लगता है ।
अज्ञात डरावना होता है और कौतूहलपूर्ण भी । मनुष्य की मानसिक बनावट भी कुछ ऐसी है कि वह अनजान की ओर बढ़ने एवं रहस्यों को समझने में झिझकता है । पर इतने पर भी यह तथ्य अपने स्थान पर यथावत् बना है कि अज्ञात की ओ बढ़ने का साहस जुटा पाने वाले ही महत्वपूर्ण सफलताएँ अर्जित करते हैं । इतिहास उन व्यक्तियों, महापुरुषों से बना है जिन्होंने जन प्रवाह से विपरीत अज्ञात दिशा में बढ़ने कुछ करने का साहस भरा पुरुषार्थ किया । उपलब्धियाँ चाहे भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक दोनों में ही यह साहस भरा पुरुषार्थ ही झाँकता दिखायी देता है । जिन्होंने प्रयत्न किया उन्हें अनुभव हुए, अनजान क्षेत्रों को जितना डरावना, कठिनाइयों से भरा समझा गया था वस्तुतः वे उतने नहीं है वरन् अनुभव तो कुछ विपरीत ही तथ्यों का प्रतिपादन करते हैं ।
ऋषियों ने जीवन को सतत अविराम गति से चलने वाला प्रवाह बताया है । यह मात्र विचारणा नहीं वरन् उनके अनुभव के तथ्यों पर आधारित है शरीर क्षेत्र से पार जाकर उन्होंने जीवन-मृत्यु की गुत्थियों को सुलझाया और बताया कि मृत्यु जीवन का एक पड़ाव मात्र है । जहाँ जीवात्मा रुककर नयी शक्ति, नयी स्फुरणा प्राप्त करती है । तत्पश्चात् अगले जीवन की ओर प्रवेश करती है । साधना पुरुषार्थ द्वारा किये गये अनुभवों के आधार पर ऋषियों ने मृत्यु को भी एक सामान्य घटना के रुप में प्रतिपादित किया है । डरने, अनजान काल्पनिक पीड़ा से घबड़ाने जैसी बातें मृत्यु की अवधि अथवा उसके बाद नहीं होती । मृत्योपरान्त जीवन के अस्तित्व को अपनी योग साधनाओं के माध्यम से देखकर आत्मा के अजर-अमर होने की घोषणा की । इस तथ्य की पुष्टि अब परामनोविज्ञान की नवीन शोधों द्वारा हो रही है ।
मरण काल में अनुभूतियों के सम्बन्ध में जो संकलन किये गये हैं उनसे पता चलता है कि वह घड़ी न कौतुक कौतूहल जैसी होती है, न कोई ऐसा कष्ट मिलता है जिसे असह्य कहा जा सके । सब कुछ उतनी ही सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है जितना कि रात्रि को सोते समय वस्त्रों को उतारना । बढ़े हुए नाखून या बाल काट कर शरीर से अलग किये जाते रहते हैं । न्यूनाधिक मात्रा में मरण का परिवर्तन भी प्रायः वैसा ही होता है ।
परामनोविज्ञान में किये गये कार्यो के लिए डा0 ‘किंग ह्वेलर’ प्रसिद्ध है । अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी इम्मार्टल सोल’ में इस प्रकार की अनेकों घटनाओं का संकलन किया है जिसमें मृत्यु से वापस लौटे व्यक्तियों की अनुभूतियों का वर्णन है । इस पुस्तक में एक हृदय रोगी का वर्णन है ।
ओंटेरियो (कनाडा) कोस्टल क्षेत्र में मानव सम्पदा निर्देशक हर्वग्रिफिन हृदय के मरीज थे । सन् 1974 में उन्हें मात्र तीन दौरे पड़े । हर बार उन्हें डाक्टरों द्वारा मरा घोषित किया गया। पर आर्श्चय कि दौरे कुछ मिनटों बाद वे जीवित हो उठते थे । डाक्टरों ने उसे एक अनहोनी एवं चमत्कारी घटना के रुप में स्वीकार किया । मृत्यु के पश्चात् उन्हें जो अनुभूतियाँ होती थीं वे लगभग एक सी थीं । ग्रिफिन का कहना है कि “प्रत्येक मृत्यु के उपरान्त के अनुभव में मैंने अपने को उज्जवल तेज प्रकाश से घिरा पाया, जिसमें गर्मी की भी अनुभूति होती थी । मुझे याद है वह बिजली के कड़कने से निकलने वाले प्रकाश जैसा था । ध्यान से देखने पर पाया वह मेरी ओर बढ़ रहा है । मेरे और प्रकाश के बीच में एक काली छाया थी, जो उस तेज प्रकाश से मेरी रक्षा कर रही थी । उस समय हमने स्वयं को मुड़े हुए शरीर के रुप में अनुभव किया । ऐसा लग रहा था कि मैं समुद्र तट पर पड़ा एक भू्रण हूँ और मुझ पर सूर्य का तीव्र प्रकाश पड़ रहा है । इसके साथ ही गहरी काली छाया के किनारों पर तैरने की भी अनुभूति हो रही थी । इतने में पुनः उज्जवल प्रकाश मेरी ओर बढ़ा । डर तो नहीं लगा पर रहस्यात्मक अनुभूति से रोमाँचित हो उठा । सोच रहा था कि कहीं यह प्रकाश पूरी तरह से घेर न ले । ठीक उसी समय हमारा एक पुराना परिचित प्रकट हुआ जो सलेटी रग का सूट पहने था । अति निकट होने के कारण मैं उसको छू सकता था । उसने निडर भाव से कहा ‘आ जाओं, सब ठीक है । अचानक मुझे सीने पर तेज आघात महसूस हुआ । आवाज भी सुनाई दी ‘क्या मैं बिजली के झटके दूँ” दूसरी ओर से आवाज आयी ‘नहीं अभी नहीं । उसकी पलकें झपक रही हैं । ‘इसकी आयु अभी पूरी नहीं हुई है । इसे जिन्दा रहना चाहिए । इसके बाद मैं अस्पताल में पड़े अपने शरीर में वापस पहुँच गया ।”
हर्व ग्रिफिन की अनुभूतियाँ अस्पष्ट होते हुए मरणोत्तर जीवन का ही नहीं, एक ऐसे लोक के अस्तित्व का भी प्रतिपादन करती हैं जहाँ स्थूल शरीर की मर्यादाएँ समाप्त हो जाती हैं । इसी से मिलती-जुलती घटना ‘वैली कैमरान की, भी है जो मृत्यु के बाद भी जीवात्मा के बने रहने तथा अपने पूर्व संस्कारों के अनुरुप अनुभूतियाँ करने के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती हैं । नित्य की भाँति जुलाई 1977 को वैली कैमरान टोरंटो (कनाडा) से रिहर्सल से वापस घर लौटे । वे घर की चाभी स्टूडियों में ही भूल आये थे । ऊपरी मंजिल की खिड़की तक पहुँचने के लिए उन्होंने पाइप का सहारा लिया। पर चढ़ते ही पैर फिसल जाने के कारण गिर पड़े । खोपड़ी में चार फ्रैंक्चर हो गये । गिरते ही अचेत हो गये । पड़ौसियों ने टोरंटो के एक अस्पताल की इंटेसिव केंयर यूनिट में भर्ती कराया । भर्ती होने के बाद डाक्टरों ने बीस मिनट तक हृदय को रुका पाया । डाक्टरों ने तो मरा घोषित कर दिया था पर पुनः हृदय की धड़कन आरम्भ हो जाने से उन्हें अपनी मान्यता बदलनी पड़ी । शरीर से अलग होने पर उन्हें विचित्र अनुभव हुए । वैली कैमरान ने अपनी अनुभूतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि, “दुर्घटना के कुछ क्षणों बाद हमने अपने को शरीर से अलग पाया । मेरे लिए संसार की सर्वाधिक आर्श्चयजनक घटना थी । मेरा शरीर निर्जीव मेरे सामने पड़ा था तथा स्वयं को मैं बहुत हल्का अनुभव कर रहा था । मुझे लगा कि प्रयत्न करने पर उड़ भी सकता हूँ । देखते ही देखते छत की दीवार पर जा पहुँचा । इतने में एक प्रकाश पुन्ज दिखायी पड़ा । न जाने उसमें क्या आकर्षण था कि मैं उसके साथ खिंचता चला गया। लम्बे समय तक प्रकाश पुन्ज के पीछे चलता रहा । एक स्थान पर जाकर प्रकाश पुन्ज रुक गया । दौड़ कर आगे बढ़ा । प्रकाश की आभा में एक सुनहला विशाल महल दिखायी पड़ा । जिसमें बड़ा सा फाटक लगा था । मैंने उसे धकेल कर खोलने की कोशिश की । जो आसानी से खुल गया । भीतर एक बड़े आलीशान सजे कमरे में मेरे पिताजी खड़े थे जो दो वर्ष पूर्व मर चुके थे । पर आर्श्चय, कि वे युवक जैसे दिखायी पड़ रहे थे, जब कि वृद्धावस्था में मरे थे । उस स्थान पर अनेकों व्यक्तियों के बातचीत की आवाज सुनाई दे रही थी, पर कोई अन्य व्यक्ति दिखायी नहीं पड़ रहा था । मुझे साथ लेकर दूसरे कमरे में पिताजी बैठ गये । सामने एक दर्पण सा स्वच्छ परदा लगा था। उसमें मेरे जीवन की सभी घटनाएँ क्रमबद्ध रुप से उभरने लगीं । की गई गल्तियों के लिए मैं चित्रों को देखकर मन ही मन ग्लानि करने लगा। साथ ही सोचता भी जाता था कि ये सब घटनाएँ तो मात्र मुझे मालूम थी । यहाँ कैसे मालूम हुई ? पर कोई उत्तर न मिल सका । घटनाओं के अन्त के साथ पुनः वही प्रकाश पुन्ज प्रकट हुआ । उसका आदेश मिला तुम्हारी आयु अभी बाकी है । कुछ ही क्षणों में अपने शरीर में वापस पहुँच गया । “
मृत्यु को जीवन का अन्तिम अतिथि मान कर उसके स्वागत की पूर्व तैयारी की जाती रहे । उसके साथ सुखद प्रयासों के लिए आवश्यक साधन जुटानें में तत्परता आनन्ददायक हो सकता है जैसा कि सुरम्य पर्यवेक्षण के लिए नियोजित किया गया पर्यटन ।