आचार में व्यक्तित्व के स्तर का परिचय मिलता है । दूसरों के साथ सज्जनोचित व्यवहार करने वाला अपनी सज्जनता की जानकारी कराता है । व्यक्तिगत रहन सहन भी दूसरों के साथ व्यवहार का सम्मिश्रित स्वस्थ आचार है । यदि उसमें शिष्टता सौम्यता का समावेश है, तो उसे शिष्टाचार कहा जायेगा । शिष्ट आचार का अभ्यस्त व्यक्ति अपने गुण, कर्म स्वभाव से परिष्कृत व्यक्तित्व का प्रमाण देता है । इसके फलस्वरुप उसे लोक सम्मान और जन सहायता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है । कहना न होगा कि इन्हीं आचरणों के सहारे सामान्य स्थिति के व्यक्ति भी उच्चस्तरीय प्रगति कर सकने में समर्थ हुए हैं । महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करने वालों ने अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत किया है और दूसरों को उस सुसंस्कारिता का परिचय शिष्टाचार द्वारा कराया है । प्रत्येक प्रगतिशील और स्वाभिमानी व्यक्ति को शिष्ट होना चाहिए । शिष्टता के लक्षण शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताये है
अभिवादयीत वृद्धाश्च दद्याच्चै वायनंस्वयम् ।कृताञ्चकजरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात् ॥
जब कोई वृद्ध (अपने से बड़ा) पुरुष अपने पास आवे, तब उसे प्रणाम करके बैठने को आसन दे और स्वयं हाथ जोड़कर उसकी सेवा में उपस्थित रहे, फिर वह जब जाने लगे तब उसके पीछे-पीछे कुछ दूर तक जाय ।
कुचैलिनंदन्तमलोपधारिणं वह्वासिनंनिष्ठुरवाक्य भाषिणम् । सूर्योदये ह्यस्तमयेऽपि शायिनं विमुञ्चति श्रीरति चक्रपाणिम् ॥
जिसके वस्त्र व दाँत गन्दे रहते हैं, जो बहुत खाता है, निष्ठुर होकर बोलता है, सूर्योदय तथा सूर्यास्त में भी सोया रहता है, वह चाहे चक्रपाणि-विष्णु ही क्यों न हो उसे-लक्ष्मी त्याग देती है ।
नारुतुन्दःस्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददाति ।ययास्य वाचा पर उद्विजेत न ताँ वदेदरुशतीं पालोक्यान् ॥
दूसरों के मर्म पर आघात न करें । क्रूरतापूर्ण बात न बोले, दूसरों को नीचा न दिखावे, जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रुखाई से भरी हुई बात पापियों के लोक में ले जाने वाली होती है । अतः वैसी बात कभी न बोले ।
एताबानेव पुरुषःकृतं यस्मिन्न नश्यति ।यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यांद् बहुगुणं ततः ॥
मनुष्य की मनुष्यता यह है कि किसी के उपकार को न भूले, अन्य मनुष्य जितना इसका उपकार करे, उससे बहुत अधिक उसका उपकार करनें का प्रयास करें ।
सुखं दुःखान्तमालस्यं दाक्ष्यंदुःख सुखोदयम् ।भूतिः श्रीहृीघृतिः किर्तिदक्षे वसति नालसे ॥
आलस्य सुख रुप प्रतीत होता है, परन्तु उसका अन्त (फल) दुःख रुप होता है तथा कार्य दक्षता दुःख रुप प्रतीत होती है, परन्तु उससे सुख का उदय होता है । इसके सिवा ऐर्श्वय, लक्ष्मी, लज्जा, धृति और कीर्ति ये कार्य-दक्ष पुरुष में निवास करती हैं, आलस्ययुक्त पुरुष में नहीं ।
इस प्रकार सद्गुण-सदाचार की महत्ता सर्वत्र प्रतिपादित हुई है । इसका एक मात्र कारण यही है कि इसके माध्यम से व्यक्त्तिव में उन विशिष्टताओं को संचय-सर्म्बधन किया जाना सम्भव हो सकता है, जिसके मूल्य पर लोक सम्मान और आत्मतुष्टि की प्राप्ति हुआ करती है । सम्पूर्ण मानव जाति के लिए श्रेष्ठता के पथ पर अग्रसरित होने की प्रेरणा प्राप्त होती है । सदाचरण का सौरभ अपनाने धारण करने वाले पुरुष को ही सुरभित नहीं करता अपितु सम्पूर्ण वातावरण को सुगन्धि से परिपूर्ण बना देता है- सारा समाज उससे लाभान्वित होता है । हमें इस सौभाग्य से वंचित नहीं रहना चाहिए ।