कामोल्लास की सृजनात्मक शक्ति

February 1980

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कामबीज से ही शरीर की उत्पत्ति हुई है । जन्म लेने के बाद उसका बहिरंग रुप दुग्धपान से लेकर किशोरावस्था के जोश, शरीरगत परिवर्तनों एवं नूतन उपंगों के रुप में प्रकट होता है । किशोर मन की कल्पनाएँ विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण से युक्त होती हैं जिनकी परिणति आगे चलकर प्रणय में होती है । दाम्पत्य बन्धन में बँधा यह युवक आदान-प्रदान का क्रम आरम्भ करता है एवं संतानोत्पत्ति की ओर अग्रसर होता है । नया परिवार बनना है बढ़ता है । नई व्यवस्थाएँ जुटाने एवं बच्चों के लालन पालन में ही पति-पत्नी की अधिकाँश क्षमताएँ लग जाती हैं । यह विशाल वट वृक्ष उसी कामबीज का है जिसका विस्तरण विभिन्न रुपों में होता देखा जाता है । इसका परिष्कार संवर्धन कर व्यक्ति महामानव बनते चले जाते हैं तो इसका एक अन्य पक्ष है-स्वछन्द यौनाचार द्वारा व्यक्ति का अधोगामी प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाना।

आर्यकालीन महामानवों के अनुसार जीवन क्रम की सफलता के चार महत्वपूर्ण आधार माने गये हैं । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । ‘काम’ शब्द का सही अर्थ न समझने एवं उसका जीवन में सही उपयोग करने की विधा का ज्ञान न होने से ही असमंजस उत्पन्न होता है । ‘काम’ वस्तुतः प्रत्येक प्राणी के अन्तराल में समाहित एक दिव्य उल्लास है, जो आगे बढ़ने, ऊँचा उठने एवं साहसिक प्रयत्न करने के लिए निरन्तर उभरता रहता है ।

जड़ पदार्थो में यही ऋण और धन विद्युत के रुप में कार्य करता है । सृष्टि की गतिविधियों का उद्गम यही है । प्राणियों में इसका उभार उत्साह, उल्लास एवं उमंगों के रुप में होता है । ‘आत्मा’ इस स्तर के प्रयत्नों के स्वाभाविकतः रस लेती है और सहज विनोद के लिए इन्हीं प्रयत्नों में प्रवृत्त भी होती है । यही है ‘काम’ की व्याख्या जिसकी उपयोगिता का समर्थन शास्त्रकाल चिरकाल से करते आये हैं ।

‘यौनाचार’ इस प्रवृत्ति का एक छोटा सा अंग मात्र है । काम तत्व का यह अतिसामान्य प्रकृति प्रयोजन यदा कदा ही क्रियान्वित हो सकता है । मनुष्य ने इस उपलब्धि का सही उपयोग न कर मर्यादा उल्लंघन एवं स्वेच्छाचार का दुस्साहस किया है जो आधुनिक युग में व्याप्त नैतिक एवं सामाजिक समस्याओं के रुप में परिलक्षित होता है ।

मनुष्य जीवन का अर्थ केवल मात्र शरीर और श्वाँस का समागन नहीं है। यदि जीवन का अर्थ मात्र यही होता तो बिना हाथ, सिर, पैर के जमीन पर रेंगने वाले कीड़ों मकोड़ों और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं रहता । मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । उसे शक्ति, विवेक और सदाचार का अधिकार मिला है । कीटोपम जीवन मनुष्य के लिये न तो योग्य है और न श्रेयस्कर । नीति मर्यादाओं का पालन समाज की सुव्यवस्था हेतु किस तरह जरुरी है इसका महत्व समझना हो तो यूरोप के कुछ देशों के उदाहरण हमें देखना चाहिए । डैनमार्क, स्वीडन जैसे राष्ट्रों में स्वच्छन्द यौनाचार पर कोई बन्धन नहीं है । फ्रायडवादी विचारणा वाले समाज शास्त्रियों ने मनोग्रन्थियों के निवारण के लिए यही उपयुक्त उपाय पाया है । वहाँ प्रति वर्ष नग्न मेले आयोजित किये जाते हैं । परिणामतः वहाँ यौन रोगों की बाढ़ आ गई है । साथ ही विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण की सहजता समाप्त होते ही इसका विकृत स्वरुप सामने आया है । सामाजिक नीति मर्यादाओं के पालन की बात तो दूर ही है ।

इस प्रेरक तत्व को इतना तुच्छ नहीं माना जाना चाहिए । इसकी सामर्थ्य असीम है । इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण ही एक शरीर से दूसरे शरीर की उत्पत्ति है जो सृष्टि के अद्भुत आश्चर्यो का परिचायक है । सृष्टा की घोषणा “एकोऽहं बहुस्यामि” मनुष्य की इसी सामर्थ्य में प्रतिभासित होती है । परन्तु यदि मनुष्य अपना सारा जीवन कृमि कीटकों की तरह सन्तानोत्पादन में ही बिता दे तो यह सामर्थ्य का दुरुप्योग ही हुआ ।

काम को हेय तब से समझा जाने लगा जब से उसे यौनाचार के रुप में प्रतिपादित किया जाने लगा । वस्तुतः काम शब्द की परिभाषा क्रीडा, उल्लास ही हो सकती है । उसे उभार या उमंग ही कहा जा सकता है। यह प्रयोजन जिन भी उपाय उपचारों से सम्भव होता है उन्हें ‘काम’ की परिधि में सम्मिलित किया जा सकता है । धर्म एवं मोक्ष आत्मिक प्रगति के तथा अर्थ एवं काम भौतिक प्रगति के माध्यम माने गये हैं । मनुष्य जीवन की चतुर्दिक उपलब्धियों में गरिमानुकूल ही ‘काम’ को इतना महत्वपूर्ण स्थान मिला है ।

प्रजनन प्रक्रिया पशुपक्षियों कृमि कीटकों के जीवन की एक अनिवार्य स्थिति है । इस समुदाय में कई ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जो संयम न बरतने के दुष्परिणामों एवं स्वच्छन्द यौनाचार से सम्भावित हानियों पर प्रकाश डालते हैं । ‘सील’ नामक स्तनपोषी प्राणी उत्तरी ध्रुव के बर्फीलें इलाके में रहता है । मादा सील के कारण पशुओं में जो लड़ाइयाँ होती हैं उनका सबसे भयावह स्वरुप इस प्राणी में दृष्टिगोचर होता है । प्रजनन ऋतु आरम्भ होते ही इनमें पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हो जाता है । चालीस पचास मादा सीलों का मालिक नयी मादा लाने के लिए पड़ोसी सील पर हमला करता है। जब तक वह इस संघर्ष में विजय पाता, वह देखता है कि उस की स्वयं की मादाओं में से कुछ को काई ओर नर अपने साथ ले जा रहा है । नर सील की अधिकाँश शक्ति इसी तरह के काम युद्ध में नष्ट हो जाती है। चींटी, दीमक मकोड़ों आदि में नर केवल एक बार सहवास कर पाता है क्योंकि तुरन्त पश्चात उसकी मृत्यु हो जाती है । बिच्छू और मकड़ी में यह हिंसात्मक प्रेम बड़ा विचित्र स्वरुप ले लेता है । मादा मिलने के बाद अपना सन्तुलन खो देती है एवं नर को ही मारकर खा जाती है ।

यही स्थिति ईल मछली एवं रेशम के कीड़ों की है । रेशम के कीड़े का ‘कोये’ से निकलने के बाद एक ही लक्ष्य होता है मादा से मिलन । इसके तुरन्त बाद नर अपने प्राण छोड़ देता है । ईल मछली केवल नर से सहवास हेतु समुद्र के मध्य जाती है । उसके बाद दोनों मृत्यु की गोद में चले जाते हैं । दोनों के अण्डे इसके बाद प्रकृति द्वारा ऐस जाते हैं । फीजी द्वीप में समुद्र के किनारे पलोलो नामक एक कीड़ा पाया जाता है प्रजनन ऋतु आते ही बड़ी संख्या में ये समुद्र की सतह पर तैरने लगते हैं । सहवास में सफल एक ही हो पाता है , शेष का पिछला हिस्सा प्रयत्न में फट जाता है और इनका जीवन समाप्त हो जाता है ।

जीव जगत के इन्हीं प्राणियों जैसा जीवन जीने वालों को नर पशु कहा जाता है । अधोगामी प्रवृत्तियों में ही जिसका सारा जीवन नियोजित हो, उससे सामान्य मानवी कर्त्तव्य, मानवोचित्त गुण, सदाचार आदि के पालन की अपेक्षा क्या रखी जाय ? ऐसे मनुष्य असंयम के दुष्परिणाम स्वयं तो भोगते ही हैं इसका परोक्ष प्रभाव सारे समाज पर भी पड़ता है । समाज का सारा सन्तुलन ही इस मानवी व्यवस्था पर टिका है जिसमें एक दूसरे के सम्मान की रक्षा की जाती है एवं कुकर्मो में निरत व्यक्ति को प्रताड़ित किया जाता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो व्यक्ति एवं समाज का वही भविष्य होगा जैसा आज पाश्चात्य देशों में हमें दृष्टिगोचर हो रहा है । प्राणि जगत में जिसके उदाहरण निरन्तर हमें सीख देते रहते हैं ।

वस्तुतः यह तथ्य समझने योग्य है कि पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाली और जीवनरुपी सम्पदा को सुमार्गगामी बनाने वाली कामुकता को परिष्कृत किया जा सकता है । स्थूल यौनाचार के आकर्षण से उसे विरत किया जाना सम्भव है । यह तभी हो सकता है जब भावनात्मक श्रेष्ठ संवेदनाओं के साथ उसे जोड़ दिया जाय । यह परिष्कृत स्वरुप ही प्रसुप्ति का जागरण है । ‘काम’ के साथ जुड़ी उमंग और उत्साह जब विधेयात्मक स्वरुप ले लेते हैं तो फिर ऊर्ध्वगमन ही एकमेव मार्ग शेष रह जाता है।

प्राचीन काल में योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इस तथ्य का अच्छी तरह जाना था और प्रतिपादित किया था कि वह प्राणशक्ति जो काम सेवन में क्षरित होती है, मानव जीवन का मूलाधार है । इसीलिए उन्होंने काम शक्ति के परिष्कार हेतु योग साधना के विभिन्न उच्च स्तरीय पक्ष सामने रखे । संवेदन क्षमता को ऊर्ध्वमुखी बनाना ही इसका उद्देश्य था। अभी तक संयम का जो स्वरुप माना जाता रहा है, वह एकाँगी है । अर्थात् शक्तियों के प्रवाह को रोकना । नदियों को पानी बाँध बनाकर रोक तो लिया जाय पर सिंचाई एव विद्युत उत्पादन का काम लिया न जाय तो उसकी परिणिति विनाश में ही होगी ।

संयम का अर्थ है शक्ति प्रवाह को निरर्थक हानिकारक दिशा में रोककर सार्थक कल्याणकारी दिशा में लगाना । ऐसे प्रयास व्यक्तित्व को प्रखर एवं जीवन को समृद्धबनाते चलते हैं । इसके अभाव में उत्कृष्ट जीवन अकल्पनीय है । काम एक शक्ति है । हम चाहेंतो उसे ऊर्ध्वगामी बनाकर जीवन को उल्लास से भर सकते हैं ।

काम काविधेयात्मक परिष्कृत रुप् अनेक स्तर के व्यक्तियों में अनेक प्रकार सेउभरता है । यही कामोल्लास है । बच्चों का अकारण उछलना-मचलना किशोरों को क्रीड़ा के क्षेत्र में अपनी स्फूर्ति का परिचय देनाएवं कलाकार का भावविभोर हो थिरकते हुए नृत्य करना अन्तरंग के उल्लास कावाह्य स्वरुप् है । इसी अन्तः स्फूर्ति को,जिसकेआधार पर जीवन के सामान्य क्रिया-कलापों में मन लगने एवं आनन्द प्राप्ति का अवसर मिलता है, परिष्कृत काम कहते हैं । संसार में जितने भी महामानव हुए हैं, जितने भी व्यक्तित्व उभरे हैं, उन सबके मूल में अदम्य अभिलाषा एवं साहसिक पुरुषार्थ की ही प्रधान भूमिका रहीं है । उमंग भरी साहसिकताएवं उच्चस्तरीय गुण है जोजीवन साधना से काम के परिष्कार से जीवन समाविष्ट होती है। काम की ही परिणति महात्वाकाँक्षाओं के रुप् में होती है। जब मनुष्य उस दिशा मेंप्रयास करता हैतो वही पुरुषार्थ एवं साहसिकता केरुप् में देखा जाता है। काम जयी ऋषि तपस्वियों की भाँति जार्जबनार्ड शा भी अन्दर से बाहरतक उल्लास एवं पुरुषार्थ के सजीव रुपथे । उन्हें वववाह के लिए कभी अवकाश नहीं मिला । उसी ‘काम’ शक्ति को ज ब ऐसे महामानवों ने विधेयात्मक दिशा में लगा दिया तो अन्तरंग की प्रसन्नता कालाभ इन्हें तो मिला ही, समाज को उनकी प्रतिभा के भरपूर योगदान मिले ।

यदि परिष्कृत संयमित जीवन के सिद्धाँतों के पालन से संभावित लाभों पर ध्यान दिया जाय तो हर व्यक्ति अपने जीवनोद्देश्य की प्राप्ति में सफल हो सकता है। काम बीज से फलित वृक्ष का ऊर्ध्वगामी दिशाओं में विस्तार कर, संयम की मर्यादाओं का पालन कर हर व्यक्ति स्वयं तो शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास कर ही सकता है, समाज के सर्वागीण विकास में भी योगदान दे सकता है । इन मानवोचित गुणों का पालन जीवन में कर हर व्यक्ति कृमि कीटक के स्तर से ऊँचा उठ कर मानव एवं महामानव बन सकता है ।


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