जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों का प्रभाव अभ्यास मनुष्य जीवन में भी बना रहता है, निम्न योनियों का स्वभाव जड़ जमाये बैठा रहता है और मानवी प्रवृत्तियों को अभ्यास में सम्मिलित करने के मार्ग में अनेकानेक बाधाएँ। उपस्थित करता हैं पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहना हैं गुरुत्वाकर्षण शक्ति किसी भी वस्तु को अवसर मिलते ही नीचे खींच लेती हैं ठोस पदार्थों को नीचे की ओर गिरने और प्रवाहों की ओर बहने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती। पर जब उन्हें उपर उठाना या बहाना होता है तो साधन जुटाने और प्रयत्न करने पड़ते है। मन की प्रवृत्ति भी ऐसी ही है। उसकी मर्जी चलने दी जाए तो फिर नर-पशुओं और नर-कीटकों से अधिक उपयुक्त चिन्तन और आचरण बन पड़ना सम्भव नहीं हो सकता। क्रोध सहज है, स्नेह कठिन। क्रोध बिना किसी प्रशिक्षण के आरम्भ से ही प्रकट होने लगता है; पर प्रेम को स्वभाव का अंग बनाने के लिए सुसंस्कारी वातावरण और तद्नुरुप अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। ईर्ष्या और अपहरण, अहंता और आक्रमण, वासना और आधिपत्य का आचरण करते हुए सभी प्राणी पाये जाते है, मनुष्य भी। किन्तु संयम और सद्भाव को जीवनक्रम में सम्मिलित करने के लिये सभ्यता और संस्कृति को, धर्म और अध्यात्म को गले उतारना कितना कठिन पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यौनाचार की पूर्ति हर प्राणी बिना किसी प्रशिक्षण के संचित अभ्यास के आधार पर स्वयंमेव करने लगता है किन्तु ब्रहाचर्य पालन के तत्वज्ञान को हृदयंगम कराने से लेकर तप साधन करने तक के उपाय अभ्यास अपनाने होते है। वस्तुस्थिति देखते हुए इस निर्ष्कष पर पहुँचने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि पतन सरल और उत्थान कठिन है। इस कठिनाई को पार करना ही परम पुरुषार्थ कहलाता हैं। अनेकानेक साधन विधानों का आविर्भाव इसी दृष्टि से हुआ है।
उत्कृष्टता की धुरी आस्तिकता है। यों विकृतियों के घुस पड़ने से मध्य काल के अंधकार युग में इस क्षेत्र की दुर्गति भी कम नहीं हुई हैं। इतने पर भी तथ्य और स्त्य अपने स्थान पर अर्डिंग हैं आस्तिकता को आस्था में सम्मिलित किये बिना आत्मिक प्रगति का आधार बनता नहीं। दार्शनिक पर्यवेक्षण करने पर आदर्शवादिता और आस्तिकता एक ही तथ्य के दो पक्ष है। उच्चस्तरीय आदर्शों का समुच्चय ही ईश्वर का वह स्वरुप है जिसकी उपासना की जाती है। परब्रहमातो नियामक सत्ता भी है, सृष्टि प्रवाह को सुव्यवस्थित रीति से चलाने के अतिरिक्त मानवी चेतना को वह उच्चस्तरीय चिन्तन और चरित्र अपनाने के लिए बाधित करती हैं इसी को अन्तः प्रेरणा या ईश्वर की वाणी कहते है। कर्मफल के दण्ड पुरस्कार की विधि व्यवस्था परब्रहमा के द्वारा संचालित होती है किनतु मानवी गरिमा विशुद्ध रुप से आस्तिकता के तत्वज्ञान से जुड़ी हुई है। आस्तिकता के अनेक स्वरुप है। उनमे से एक ईश्वर उपासना का अवलम्बन लेकर चेतना के दिव्य परतों को सुविकसित और सशक्त बनाना भी है।
आस्तिकता एक आस्था दर्शन है और उपासना उसे परिपक्व करने का प्रयोग अभ्यास। दोनों का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। दर्शन एक कल्पना है उसका परिणाम तभी निकलता है तब वह अभ्यास में उतरे। आस्तिकता में मात्र ईश्वर का आस्तित्व स्वीकार कर लेने और उपासना में मनुहार द्वारा उसकी कृपा प्राप्त कर लेने, जितना छोटा उद्देश्य सन्निहित नहीं है, वरन् तथ्य यह है कि ईश्वर को उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समुच्चय मानना होता है और उसे चिन्तन एवं चरित्र का अविच्छिन्न अंग बनाकर तादात्म्य स्थापित करना ही होता है।
भक्ति का अर्थ है- प्यारी भरी सेवा। संक्षेप में इसे जात्मीयता एवं उदारता का समन्वय कह सकते है। ईश्वर भक्ति का अर्थ होता है-आदर्शों के प्रति असीम प्यार। असीम का तार्त्पय है इतना प्रबल कि उसे क्रियान्वित किये बिना रहा न जा सकें। ईश्वर भक्ति को समर्पण योग भी कहते हैं शरणागति, लय आदि कइ्र नामों से इस स्थिति का उल्लेख किया जाता है। इसका व्यावहारिक स्वरुप है-अहंता को, स्वार्थपरता को भूल जाना। वैयक्तिक महत्वाकाँक्षाओं को विसर्जित करके आदर्शवादी, सामूहिक महत्वाकाँक्षाओं में रस लेना। इसी तत्व-दर्शन को आस्था क्षेत्र में गहराई तक प्रतिस्थापित करने के लिए उपासना परक अभ्यास किये जा सकते है यह आत्मोर्त्कष के, भाव-विज्ञान के अनुरुप अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रयोग हैं।
आत्मा की उत्कृष्टतम स्थिति को को ही परमात्मा कहते है। पुरुष से पुरुषोत्तम-नर से नारायण बनने का एकान्त अभ्यास ही उपासना है। इसमें ईश्वर को व्यक्ति बनाने का नहीं, व्यक्ति को ईश्वर-अति मानव बनाने और अति मानस को प्रखर करने का प्रयोग है। सच्ची उपसना लघु को विभु, क्षुद्र को महान् बनाती एवं कामना को भावना में विकसित करती है। मनोकामना पूर्ति के लिए ईश्वर का मनुहार कना बाल-कक्षा के विद्यार्थियों तक ही सीमित रहता हैं आत्मिक प्रौढ़ता की स्थित आते ही ईश्वर का स्वरुप उत्कृष्ट आस्थाओं और आदर्शवादी भाव-सम्वेदनाओं का समुच्चय बन जाता है।
ईश्वर भक्ति और आदर्शों के लिए समर्पित व्यक्तित्व परस्पर पर्यायवाचक बन जाते है। इसी स्थित को प्राप्त करने के लिए भावनात्मक अभ्यासों की चिरपरिचित प्रणाली को उपसना कहते है। इसी अवलम्बन का आश्रय लेकर प्राचीन काल में साधकों को ऋषिकल्प, देवमानव एवं सिद्ध पुरुष बनने का अवसर मिला है। ऐसे व्यक्तित्वों में भगवान का स्वरुप प्रत्यक्ष झाँकता हैं अतएवं भक्त और भगवान की एकता का प्रतिपादन शास्त्रकार सदा से करते रहे हैं
युग परिवर्तन का श्री गणेश आस्था क्षेत्र में उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के साथ होना है, व्यक्तित्व प्रस्तुत आस्था समुच्चय का ही दूसरा नाम हैं उसी स्तर के अनुरुप आकाँक्षाएँ उभरती है। आकाँक्षाएँ विचारणा को दिशा देती है, विचारणा के दबाव से शरीर की गतिविधियाँ चलती है। गतिविधियों के अनुरुप परिस्थियाँ बनती है। यह भली-बुरी परिस्थितियाँ ही र्स्वग-नरक, उत्थान पतन, विकास, विनाश आदि नामों से निरुपति होती रहती है।
पतन को उत्थान में बदलना हो, नरक को र्स्वग बनाना हो तो तद्नुरुप परिस्थतियाँ बननी चाहिये। परिस्थतियाँ गतिविधियों की परिणिति हैं गतिविधियाँ शरीर की कार्य पद्धति को कहते है। शरीर पर मन का परिपूर्ण नियन्त्रण हैं मनः क्षेत्र का सूत्र संचालन इच्छाएँ करती है। इच्छाएँ अन्तराल में आस्था परक स्तर के अनुरुप उठती हैं यही तत्व-दर्शन का खुला रहस्य है। जो इसे जानते है वे पत्ते धोने की अपेक्षा जड़ को सींचते हें फुँसियों पर दवा लगाने की अपेक्षा रक्त शोधन पर अधिक ध्यान देते है, मच्छर मारते फिरने का श्रम करने की अपेक्षा गन्दी नाली साफ कर डालने की आवश्यकता अनुभव करते है।
सामयिक परिस्थितियों का विवेचन और निराकरण आवश्यक है, उत्थान के साधन भी जुटाये जाने चाहिए किन्तु स्थायी समाधान के लिए लोकमानस को परिष्कृत करना होगा। इस प्रयोजन के लिए आस्तिकता का दर्शन और उपासना का अभ्यास परस्पर मिलकर ऐसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते है जिससे अन्तराल में जमे कुसंस्कारों का निष्कासन और उत्कृष्टता का अभिवर्धन सम्भव हो सके। अस्तु नवयुग का बीजारोपण उपासना की प्रक्रिया को जीवनक्रम में नित्य कर्म की तरह सम्मिलित करने की आवश्यकता पड़ेगी। प्राचीन काल के देवयुग में भी इस अवलम्बन को प्रमुखतः प्राप्त थी और अब उस परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए उपासना के लिए गम्भीर लोक-रुचि उत्पन्न करनी पडे़गी।
सामयिक परिस्थतियों दृष्टिपात करने से उनमें भरी हुई विकृतियों और विभीषिकाओं के अनेकानेक रुप दिखाई पड़ते है, वे एक-दूसरे से भिन्न भी दिखाई पड़ते है उनके समाधान भी स्थिति के स्वरुप को देखते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार के सोचे जाते है। प्रत्यक्षवाद के आधार पर समाधान इसी प्रकार सम्भव दिखाई पड़ता है। शारीरिक दुर्बलता का निवारण पौष्टिक आहार और रुग्णता का निराकरण चिकित्सा उपचार से ही सम्भव प्रतीत होता है, किन्तु परोक्ष तक पहुँचने वालों को इस निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ता है कि यह सारा अखेड़ा असंयम की दृष्प्रवृत्ति ने उत्पन्न किया हैं असंयम के रहते भी पुष्टाई और दवाई की खिलवाड़ तो चलती रह सकती है, पर उनमें दुर्बलता एवं रुग्णता का स्थायी निवारण कदापि सम्भव न हो सकेगा। तात्कालिक उपचार से जादुई लाभ तो मिल भी सकता है किन्तु स्थिर स्वास्थ्य की अपेक्षा रखने वालों को संयम साधना की जीवन नीति बनाकर चलना होगा। अनैतिकवाद और अध्यात्मवाद के दृष्टिकोण का यह अन्तर हर क्षेत्र में समझा जा सकता है। प्रत्यक्ष कितना ही प्रभावी क्यों न हो, आत्यन्तिक समाधान परोक्ष के आधार पर ही निकलता है।
मानसिक विक्षोभों से जन-जन को तनावग्रस्त, खिन्न उद्विग्न, निराशा एवं नीरस भारभूत जीवन जीते पाया जाता है। मनोविकारों की प्रबलता से अनुकुलताएँ, प्रतिकूलताएँ बनती है। सामान्य परिस्थितियाँ भी विकृत चिन्तन के कारण तिल जैसी होते हुए भी ताड जितनी भयानक प्रतीत होती है। लोग परिस्थितियाँ बदलना चाहते है, पर जिस अनुपयुक्त दृष्टिकोण के कारण व उत्पन्न होती है उसने बदलने की बात तक नहीं सोचते। झरना झरता रहे और बहाव को मेंड बाँधकर रोकने में श्रम किया जाता रहे तो थकान और निराशा के अतिरिक्त और कुछ पल्ले पड़ने वाला नहीं है। स्वस्थता की तरह प्रसन्नता भी आवश्यक है, पर उस परिष्कृत दृष्टिकोण के मूल्य पर ही खरीदा जा सकता है। शरीर सुख संयम पर निर्भर है और मानसिक सन्तोष चिन्तन के सन्तुलन पर। यह तथ्य भले ही आज न सही हजार वर्ष बाद समझा जाए किन्तु समाधान सही निर्ष्कष पर पहुँचने और सही उपाय अपनाने पर ही सम्भव हो सकेगा।
आज व्यक्ति और समाज के सामने अगणित समस्याएँ और विभिषिकाएँ मुँह बाँधे खड़ी है। उनका निराकरण बुद्धिमानों द्वारा प्रत्यक्ष उपचारों सामयिक उपायों के आधार पार सोचा जाता है, मस्तिष्क की दौड़ इतनी ही है। विग्रहों को साम, दाम, दण्ड-भेद जैसे कूट नितिक उपयों से हल करने का बरताव ही उसने देखा समझा है। सो उन्हें क्रियान्वित करने में भी कोई केसर नहीं रखी जाती। आर्थिक सुधार के लिए गरीबी हटाओं अभियान के अर्न्तगत गृह उद्योगों से लेकर विशालकाय कारखाने लगाने तक का प्राविधान पंचवर्षीय योजना में है। निजी क्षेत्र भी इस सर्न्दभ में कुछ उठा नहीं रख रहा है, पर कठोर श्रम और मितव्ययता की तपश्चर्या का सिद्धान्त जन-जीवन में उतर न पाने के कारण बढ़ा हुआ उपार्जन, दुर्व्यसनों की बढ़ोतरी तक को पूरा नहीं कर पाता और दरिद्रता जहाँ की तहाँ बनी रहती है। इस कुचक्र में से निकल सकना अर्थोपार्जन और व्यय-व्यवस्था में आदर्शवादी सिद्धान्तों का समावेश किए बिना अत्यन्तिक समाधान सम्भव ही न ही हो सकता। प्राचीनकाल में उपार्जन बहुत सीमित था और आज की तुलना में सुविधा साधन कहीं कम थे। फिर भी यह देश र्स्वग सम्पदाओं का स्वामी और विदेशियों की दृष्टि में सोने की चीड़ियाँ बना हुआ था। गरीबी चाहे आज मिटे, चाहे सौ साल बाद अर्थ क्षेत्र में आदर्शवादिता का समावेश किये बिना और काई स्थायी हल नहीं, अमेरिका सबसे जादा समृद्ध होते हुए भी आर्थिक उद्विग्न का जितना शिकार है उतना आदिवासी क्षेत्र भी असन्तुष्ट दिखाई न पडे़गा।
परिवारों की स्थिति का यदि सही मूल्याकंन किया जाए तो स्थिति सराय से अधिक उपयुक्त न मिलेगी। भेडें़ बाड़ों में भी रहती है और कैदी जेलों में भी। सद्भाव और सहकार के अभाव में होटलों में यदि जाने वाली चटक-मटक भी कितनी कृत्रिम कितनी नीरस और कितनी कुरुप, कक्रश लगती है उसे सभी जानते हैं आर्थिक अभाव रहते हुए भी परिवारों में स्नेह सौजन्य के सहारे स्वर्गीय आनन्द का रसास्वादन किया जा सकता है, इसके लिये साधनों की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक सुसंस्कारिता कीं यह उपलब्धि बाहम व्यवस्थाओं के सहारे नहीं आन्तरिक सदाशयता है सहारे हो सम्भव हो सकती हैं
समाज में अनेकानेक मुढ़ मान्यताओं, कुरीतियों, अवाँछनीयताओं, अनैतिकताओं की भरमार है। अपराध बेहिसाब बढ़ हरे है। प्रामाणिकता दिन-दिन घट रही है। सज्जनता का प्रतिपादन तो हे, पर प्रचलन नहीं हैं। सहकारिता का समर्थन जोरों से होता है और आर्थिक क्षेत्र में उसका लगड़ा-लूला कलेवर भी बना है। किन्तु पारस्परिक व्यवहार में सहकारिता एवं उदारता को खोज निकालना अति कठिन है। आपाधापी की शतरंज का नशा बुरी तरह चढ़ा है हर कोई एक दूसरे को मात देने और अपनी गोटी लाल करने में सारी अक्कलमन्दी निचोडे़ दे रहा है। ऐसी दशा में समाज सच्चे अर्थो में समाज कैसे बने और किसी जन संकुल क्षेत्र को सच्चा राष्ट्र कैसे कहा जाए?
कलह और विग्रहों के असंख्य क्षेत्र है, सबके अपने-अपने कारण है। भाषा, प्रान्त, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि के निहित स्वार्थों को लेकर परस्पर टकराव की इतनी अधिक घटनाएँ होती है कि उनका निराकरण कानून और पुलिस के द्वारा अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही निकल पाता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले दाव-पेचों और कुटिल कुचक्रों से शीतयुद्धों की भरमार बढ़ती जा रही है और गरम युद्ध की, अणु-अणुओं से लड़ें जाने वाले तृतीय एवं अन्तिम युद्ध की सम्भावनाएँ तेजी से समीप आ रही है। घटनाचक्र पर दृष्टिपात करने से महाप्रलय का दिन दूर दिखाई नहीं पड़ता। इस विग्रह से निपटने में तो कानून और पुलिस जैसे अनुबन्ध भी कुछ काम करते नहीं दीखते।
धर्म और अध्यात्म का उपयोगी कलेवर तो प्राचीन काल से भी अधिक विस्तृत और आकर्षण बन गया है, पर उसमें प्राण का दर्शन भर दुर्लभ हो रहा है। कर्मकाण्डों के घटा टोप छाये हुए है पर आस्थआों में उत्कृष्टता भरने वाली प्रक्रिया तो एक प्रकार से विकृत ही होती चली जाती हैं धर्म ने मूढ़ता और कट्टरता के कवच कुण्डल पहन लिये है और अध्यात्म के कल्पना लोक में बिना पंखों की उड़ानें उड़ने जैसे उपक्रम चल रहे है। इन क्षेत्रों में धूर्तों और मूर्खों के बीच ऐसी पटरी बैठी है कि विज्ञजनों को इस कुछ का कुछ हो जाने को देखकर किंकर्तव्य विमूढ़ बना देने वाले असमंजस का अनुभव हो रहा है।
समस्याओं की यह मोटी झाँकी है, इस स्तर के अगणित कारण है जो व्यक्ति और समाज को सुखी समुन्नत बनाने वाले सभी प्रयत्नों को र्व्यथ करते चले जा रहे है। इन विग्रहों के रहते आर्थिक, वैज्ञानिक, बौद्धिक उपलब्धियाँ कोई समाधानकारक हल खोजने में अपनी असमर्थता प्रकट कर रही है, इन परिस्थितियों को पीछे मुड़कर देखना होगा और वस्तुस्थिति समझने को गहराई में उतरना होगा। परिस्थतियों का उत्तरदायित्व मनःस्थिति पर लदा हुआ है। मनः स्थिति का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं वे आस्थाओं एवं आकाँक्षाओं पर निर्धारित है, अन्तःकरण ही वह क्षेत्र है जो व्यक्तित्व के स्तर को उठाता गिराता है। मनुष्य ने स्वयं ही अपना इतिहास सृजा है, वर्तमान की परिस्थतियों के लिए भी वही पूरी तरह उत्तरदायी हैं भविष्य को उज्जवल या अन्धकारमय बना लेना पूरी तरह उसी के हाथ में हैं इस तथ्य को स्वीकार करने में असमंजस उन्हीं को हो सकता है जो व्यक्तित्व के उद्गम स्त्रोत अन्तःकरण की सामर्थ्य से अपरिचित है। मनुष्य को सर्व समर्थ माना गया है। यह तथ्य पूर्णतया उसके आस्था क्षेत्र के आधार पर सर्वथा सत्य पाया जा सकता है।
नवयुग में मनुष्य आस्था प्रधान होगें। वे उत्कृष्टता आदर्शवादिता और उदात्त भाव सम्वेदनाओं से भरे-पूरे होगें। प्रश्न एक ही है कि वर्तमान अनास्था को उदात्त भाव श्रद्धा में परिणत कैसे किया जाये? इस सर्न्दभ में उत्तर तो कई दिये जा सकते है, पर सब प्रामाणिक प्रतिपादन आस्तिकता को भाव श्रद्धा का उन्नयन ही है। यह कार्य उपासना के आधार पर सम्भव हो सकता है। व्यक्ति निर्माण का आधार-भूत क्षेत्र यही है। यह प्रक्रिया ऐसी है जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। उसे प्रमुखता ही देना होगा। जन-जन को आस्तिक और उपासना प्रिय बनाने के प्रयत्नों में नवयुग की उज्जवल सम्भावनाएँ पूर्णतया समाविष्ट है, अस्तु युग शिल्पियों को अपने समस्त क्रिया-कलापों में इस केन्द्र बिन्दु को प्रदान मानकर चलना होगा। महाकाल वैसी ही प्रेरणा देने और व्यवस्था बनाने में संलग्न भी है।