यात्रा शून्यनगर से भविष्यनगर की

August 1980

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महर्षि जातवेद ने पाठ प्रारम्भ किया और बोले आज तुम्हें योगवाशिष्ठ का एक उपाख्यान सुनाता हूँ। एक शून्य नाम का नगर था। उसमें तीन राज पुत्र रहते थे? एक गर्भ में नहीं आया था। अपने भावी जीवन को लेकर तीनों चिन्तित रहते थे। सबने मिलकर निश्चय किया कि बाहर कहीं जाकर धनोपार्जन करना चाहिए। यह सोचकर तीनों चल पड़े। भूख-प्यास से थककर तीनों तीन वृक्षों की छाया में बैठ गये। इन तीनों वृक्षों में दो तो उगे ही नहीं थे और एक का बीजारोपण भी नहीं हुआ था। वृक्षों के नीचे बैइ कर तीनों ने विश्राम किया और मीठे फल खाये। तत्पश्चात आगे बढ़े। कुछ दूरी पर उन्हं तीन नदियाँ दिखायी पड़ी। नदियों में दो तो जल से रहित थीं और एक सूखी गई थी। तीनों ने ठण्डे जल से स्नान किया तथा प्यास बुझाई। आगे बढ़ने पर सायंकाल हो गया। सामने एक भविष्य नगर दिखाई पड़ा। नगर में प्रविष्ट करने पर तीन मकान मिले। जिनमें दो बने ही नहीं थे। तीसरे में ईंट भी नहीं रखी गई थी। तीनों ने मिलकर तीन ब्राहमणों को निमन्त्रण दिया। बा्रहमणों में दो अशरीरी थे। तीसरे का मुँह नहीं था। तीनों ने तीन थालियों में भोजन किया। दो थालियाँ तली रहित थीं। तीसरे का स्थूल रुप ही नहीं था। इस भविष्य नगर में तीनों बालक सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे।

महर्षि ने उपाख्यान समाप्त किया तो स्नातक उनके मुख की ओर ताक रहे थे। इस विलक्षण उपाख्यान ने उनकी जिज्ञासा तो जगा दी किन्तु समाधान किसी के लिए भी सम्भव न था, सो उन्होनें समवेत प्रश्न किया गुरुदेव तीन राजकुमार, तीन वृक्ष, तीन नदियाँ, तीन मकान, तीन ब्राहमण और तीन थालियों का रहस्य हमें भी बताये ताकि हम भी अपने भविष्य नगर में सुखपूर्वक रह सके।

महर्षि गम्भीर हो उठे बोले, 'तात! तीन राजकुमार जीव, आत्मा और ब्रहा! प्रथम दो यद्यपि अविनाशी है किन्तु शरीर के साथ गर्भ में आना पड़ता है, परब्रम्हा जिसके अंश से ही उपरोक्त दो की सत्य है गर्भ में न आते हुए भी अस्तित्व में बना रहता है। उनका वृक्ष की छाया में पहुँचना अर्थात् साँसारिक फल-बासना, तृष्णा, अहंता में सुख्या मानने की प्रवृत्ति है इनमें वासना और तृष्णा का तो कोई स्वरुप है भी किन्तु अहंकार का तो कोई अस्तित्व ही नहीं फिर भी वही सारे उपद्रवों की जड़ है।

तीन नदियाँ जीवन के तीन प्रवाह बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था, प्रारम्भिक दो में जल ही नहीं अर्थात् होश ही नहीं आता किन्तु जीवन के तीसरे प्रहर में जब तक होश आये सारी शक्ति समापत हो चुकी होती है।

तब कही स्मरण आता है भविष्य अर्थात् लोकोत्तर जीवन और तीन भवन, तीन आश्रय-सत्य, सन्तोष और श्रद्धा की शरण होना पड़ता है। सत्य और सन्तोष अभिव्यक्त है किन्तु श्रद्धा अभ्यान्तर, ज्ञान, कर्म और भक्ति के तीन ब्राहमणों से भेंट होना मनुष्य के कल्याण की भूमिका प्रस्तुत होना है ज्ञान और कर्मयोगी साधनाएँ तो साधनजन्य होती है, पर भक्ति उससे सर्वथा मुक्त। उनको भोजन कराना अर्थात् आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन और आत्म-निर्माण की प्रवृत्ति का विकास ही वह अवलम्बन है जिससे आत्म साक्षात्कार या ब्रम्हा प्राप्ति की साधना सिद्ध हो पाती है अर्थात् इस विनाशशील जगत के प्रपंचों से छूट कर मनुष्य सत्य को प्राप्त और धारण करता हैं। स्नातक सन्तुष्ट हुए और अपने पर्णकुटीरों को चल पडे़।


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