वृद्धावस्था अर्थात अमृत-आनन्द

August 1980

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वृद्धावस्था जिसे कभी परिपक्व आनन्द, प्रगाढ़, जान, अनुभव कोष और मानवीय गरिमा का पर्याय माना जाता था, आज की परिस्थितियों में सर्वत्र भार प्रतीत होती दीखती है तो परमात्मा के विधान में कहीं कोई भूल हुई जान पड़ती है। अधिकाँश लोग इस अवस्था में दुःखी खीझते दिखाई देते है वे इस स्थिति का दोष या तो अपने भाग्य और भगवान को देते है या फिर आज के समाज को कोसने में सन्तोष मानते है। किन्तु तथ्य ठीक इससे विपरीत है वृद्धावस्था के क्षोभ का कारण वह स्वयं ही है सच तो यह है कि चिन्तन की विकृति के कारण वह असायिक वृद्धावस्था का आवरण स्वतः ओढ़ लेता है।

फ्रैक एण्ड वैगनाल्स कम्पनी द्वारा एक पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘स्टेइंग यंग वियाँड योर डयर्स’ लेखक है-डाँ. एच. डब्ल्यू. हैगर्ड। इस पुस्तक में लखक ने कहा है कि ‘काहिली वृद्धावस्था की जननी है। ‘एक जर्मन चिकित्सक क्रिस्टोफ विलहेल्स हम्यूफलैंड ने अपनी प्रस्तुक मैक्रोविओटिया नामक पुस्तक में लिखा है कि हमारी भावनात्मक आदतें ही हममें बुढ़ापा ला देती है। यदि हम निराश, उदास एवं चिन्ताग्रस्त मनोवृत्ति के है तो वृद्धावस्था का शीघ्र आना सुनिश्चित है।” वे कहते है कि चिर युवा बने रहने का सूत्र है- प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता।

हाइजिया नामक पत्रिका में डाँ. ए.सी.आड़ती ने डाँ. रेमाण्ड पर्ल के किए गये पर्यवेक्षण निर्ष्कष का उल्लेख किया है। डाँ. रेमण्ड ने 5000 व्यक्तियों का अध्ययन किया जो 90 वर्ष की आयु से उपर थे। अध्ययन का निर्ष्कष यह निकला कि एक विशेषता सबके साथ जुड़ी थी- निश्चिन्तता का जीवन क्रम। आशावादी दृष्टिकोण प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता से परिपूर्ण मनोभूमि।

वृद्धावस्था का कारण बताते हुए ‘गैलेट वर्गेस’ लुक एलेविन डयर्स यंगर’ नामक पुस्तक में लिखते है कि एकाकी अथवा एकान्त प्रिय मनोवृत्ति चिन्ता एवं निराशा का कारण बनती है। यह प्रवृत्ति इस बात का परिचायक है कि वृद्धावस्था शीघ्र आने वाली है। उदासी, खिन्नता, निराशा के रहते कोई भी शक्ति सम्पन्न बने रहेन का प्रयत्न कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। अधि दिनों तक जीना हो- चिरयौवन की आकाँक्षा हो तो लोगों में घुलना, मिलना सीखिये। सदा प्रसन्न रहिए और पत्येक छोटे-बड़े कार्य में रुचि लिजिए।

‘लीविंग’ नामक पत्रिका में ‘ऐंडूज एलन’ नामक विद्धान ने वृद्धावस्था न आने देने की 6 सूत्रीय योजनाएँ प्रकाशित कराई थी जो हर व्यक्ति के मनोबल को उँचा बनाये रखने- चिरयौवन का आनन्द लेने की कुन्जी है। वे इस प्रकार है-

(1) भूतकाल की कल्पनाओं में अपना समय निरर्थक न गँवाइयें। यौवन के वे दिन जीवन में अग्रसर होने के लिए संघर्ष के थे। अब पुनः उस संघर्ष और अनिश्चितता को आमन्त्रित करना विवेक सम्मत नहीं है। संघर्ष की उस अवस्था को अब आप पार कर चुके है। आनन्द अतीत नहीं है- वर्तमान है और वर्तमान अपनी झोली में आनन्द का भण्डार लिए सामने खड़ा है। देर बस आमन्त्रण के स्वीकार करने की है।

(2) अतीत की अपनी असफलताओं पर क्षोभ मत प्रकट कीजिए। उनसे प्रेरणा लिजिए और वर्तमान का अधिक कुशलता से उपयोग कीजिए। ईश्वर को धन्यवाद दीजिए जिसके सहारे जीवन के पूर्वार्ध के संघर्षों का पार कर लिया। अब तो केवल जीवन का आनन्द लेना आपके लिए अब शेष है। चिन्ता छोड़िये और प्रकृति के अक्षय आनन्द भण्डार को अपने बाहों मं समेट कर सदा प्रसन्न रहे।

(3) यदि आप कुछ अधिक उम्र के दिखाई पड़ते है तो उसकी किंचित चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अतीत के संघर्ष कारण चेहरे पर जो झुर्रिया उभर आयी है वे प्रौढ़ता, परिपक्वता की घोतक है जिन्हे देखकर लोग सम्मान देते हैं। उसे परिपक्वता का चिन्ह मानकर गर्व अनुभव करना तथा अनुभवों का लाभ दूसरों को देना ही इस आयु का वास्तविक सदुपयोग है।

(4) अधेड़ आयु में लम्बी-चौड़ी अनेकों योजनाएँ बनाने से व्यक्ति और भी संकट में पड़ जाता है कई कार्यो में हाथ डालने की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य एवं स्थिति के अनुरुप एक कार्य में मनोयोग लगाना अधिक उपयुक्त है। अनावश्यक भाग-दोड़ एवं चिन्ता से थकान आती और बुढ़ापें का प्रभाव दिखाई पड़ने लगता है। काम करे पर अपनी सामर्थ्य के अनुरुप और साथ ही विश्राम की उपेक्षा भी न करे।

(5) कभी यह न सोचे कि हमारी क्षमता की ‘इति श्री’ यही तक है। नवीन स्फुर्ति के लिए नई दिशाओं की तलाश करें और नये काम सीखने में मन लगायें। नयी-नयी खोजें आपकों आनन्द देगी।

(6) भविष्य की अनावश्यक चिन्ता करना उचित नहीं। कभी यह न सोचें कि संसार हमे इसलिए छोड़ देगा कि हमारी शक्ति क्षीण हो चुकी है। यह सोचना निराश को जन्म देगी। वास्तविकता यह है कि संसार को अनुभवशीलों के मार्ग-दर्शन की विशेष आवश्यकता है। आयु ने आपको छह अनुभवों की पूँजी दी हैं इसका सदुपयोग करने में कभी पीछे न हटे। आत्मविश्वास सदा बनाये रखे।

योग्यता, प्रतिभा एवं अनुभवों की दृष्टि से आयु का उत्तरार्ध पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। पर देखा जाय तो अधिकाँश के आयु का यह पक्ष यो ही बेकार चला जाता है कारण स्पष्ट है अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं के कारण असमय बुढ़ापा हावी हो जाता है। यह सच है कि अवस्था के अनुरुप शारीरिक चिन्ह प्रकट होते हैं बालों का पकना, आँखों से कम दिखाई देना, कानों से कम सुनाई देना जैसे चिन्ह असमर्थता के नहीं आयु के अनुरुप परिवर्तन के लक्षण है। जिनकों एक सीमा तक ही रोका जा सकता है, पर इनको ही बढ़ापें का, असमर्थता का लक्षण मान लेना भारी भूल है।

संसार के परदे पर सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हुए है जो जीवन पर्यन्त युवा उमंगों से भरपूर बने रहे। आयु के अनुरुप शारीरिक परिवर्तन तो उनमें भी दिखाई पड़े किन्तु इन लक्षणों को उन्होंने अपने उपर हावी नहीं होने दिया। हर क्षण का उसी उत्साह एवं उमंग के साथ उपयोग किया, जितना कि युवावस्था में।

मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में यह मान्यता जोर पकड़ती जा रही है, यौवन का सम्बन्ध आयु से नहीं मनःस्थिति से है। वह यदि सन्तुलित प्रसन्न चित्त बनी रहें तो मनुष्य सदा बुढ़ापें से बचा रह सकता है। गाँधी जी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। इस अवस्था में भी उनकी स्फूर्ति देखते बनती थी। इसका रहस्योद्घाटन करते हुए उहोंने एक बार कहा था कि-”मैंने कभी भी परिस्थितियों का अपने उपर हावी नहीं होने दिया। अपने समय के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना एवं अनावश्यक चिन्ताओं से मन को विमुक्त रखना ही मेरे चिरयौवन का रहस्य है। ‘चर्चिल’ बुढ़ापे को एक गाली मानते थे ‘उनका कहना था कि-”वृद्धावस्था पके हुए फल के समान है। जिसमें मिठास अधिक है। इस आयु में मनुष्य समाज के लिए सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है।” जार्ज वर्नाडश’ का कहना है कि “ प्रकृति का वास्तविक आनन्द जीवन के उत्तरार्ध में ही उठाया जा सकता है। भूत के अनुभवों से प्रेरणा लेकर मनुष्य संसार का आनन्द लेते हुए समाज के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है” वे कहते है कि बुढ़ापे को मै जीवन का अभिशाप मानता हूँ।

मनस्थिति निराशा एवं आशंकाओं से ग्रस्त हो तो असमय वृद्धावस्था के चिन्ह प्रकट होने लगते है और मनुष्य अपने को असमर्थ, असहाय अनुभव करने लगता है। इस स्थिति से बचने के लिए शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुरुप सतत रचनात्क कार्यो में संलग्न रहना श्रेयष्कर है। सत्कार्यो में सतत निरत रहने पर आत्म-सन्तोष की अनुभूति होती है। जो स्वयं प्रेरणादायक है। भावी आशंकाओं से भी सहज ही बचा जा सकता है।


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