एक ही मन्त्र, एक ही साधना पद्धति और एक ही गुरु के-मार्गदर्शन का अवलम्बन लेने पर भी विभिन्न साधकों की आत्मिक प्रगति अलग-अलग गति से होती हैं कोई तेजी से आत्मिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ने लगता है तो कोई मंथरगति से आगे बढ़ता हैं इसका क्या कारण है? मनीषियों ने इसका उत्तर एक ही वाक्य में दते हुए कहा है कि ‘अध्यात्म क्षेत्र में श्रद्धा की शक्ति ही सर्वोपरि है। जिस प्रकार शक्ति के आधार पर भौतिक हलचलें और गतिविधियाँ सम्पन्न होती तथा अभीष्ट उपलब्धियाँ हस्तगत होती है, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा ही अपनी सघनता या विरलता के आधार पर चमत्कार प्रस्तुत करती हैं श्रद्धा विहीन उपचार सर्वथा निष्प्राण रहते है और उनमें किया गया श्रम भी प्रायः निरर्थक चला जाता हैं
सामान्य जीवन में भी सफलता, श्रद्धा, विश्वास के आधार पर ही प्राप्त होती है। कृषि, उद्योग, शिल्प, खेल आदि सभी क्षेत्रों में तत्काल तो परिणाम प्राप्त नहीं हो जाते उनके, लिए अनवरत श्रम करना पड़ता है और यह श्रम सफलता का विश्वास रखते हुए करते चलना पड़ता हैं आत्म-विश्वास के बल पर ही कोई बड़े कदम उठा पाना सम्भव होता है। शौर्य और साहस आत्म विश्वास के ही नाम है। परिवार में एक-दूसरे को स्वजन, घनिष्ठ एवं आत्मीय होने की मान्यता ही उन्हें पारस्परिक स्नेह-सहयोग के सुदृढ़ सूत्र में बाँधें रहती है। यह मात्र श्रद्धा ही है, जिसके आधार पर परिवारों में स्नेह दुलार का अमृत बरसता है और एक-दूसरे के लिए बढ़े-चढ़े त्याग करने को तत्पर रहता है। श्रद्धा की, विश्वास की कड़ी टूट जाए तो फिर परिवारों का विघटन सुनिश्चित हैं तनिक सी बातों पर वे अन्तः कलह के अखाड़े बनेगे और देखते-देखते बार कर अस्त-व्यस्त हो जाएँगे।
इस प्रकार श्रद्धा, विश्वास के बिना भौतिक जीवन में ही गति नहीं तो फिर अध्यात्म क्षेत्र में, जिसका तो वह प्राण ही है, गति कहाँ से हो सकती है? इसलिए श्रद्धा का महत्व बताते हुए गीताकार ने कहा है- श्रद्धामयों अयं पुरुषों यो यच्छ्द्ध स एव सः। (गीता 17। 3)
अर्थात्-यह पुरुष श्रद्धामय है। जो जिस श्रद्धा वाला है अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा है वह स्वयं भी वही अर्थात् उस श्रद्धा के अनुरुप ही है।
यो यो याँ याँ भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तथ्या चलाँ श्रद्धाँ तासे व विदधाम्यहम्।
(गीता 7। 21)
अर्थात्ः-जो-जो सकाय भक्त जिस-जिस देवता के स्वरुप का श्रद्धापूर्वक अर्चन पूजन करता है उस भक्त की तद्विपयक श्रद्धा को स्थिर करता है।
सतया श्रद्धया युक्तिस्तरयाराधनमीहतो।तभते चे्ततः काम। न्यैव विहिताहितान्। (गीता 7। 22)
वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की पूजा करता है और उसदेवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसन्देह प्राप्त करता हैं
यह श्रद्धा ही है जो निर्जीव पाषाण प्रतिमाओं में भी प्राण भर देती है और उन्हें अलौकिक चमत्कारी क्षमता से सम्पन्न बना देती हैं। मीरा ने कृष्ण प्रतिमा को अपनी श्रद्धा के बल पर ही इतना सजीव बना लिया था कि वह प्रत्यक्ष कृष्ण से भी अधिक प्राणवान प्रतीत होने लगी थी। श्रद्धा विश्वास के सम्बन्ध में रामायण में एक सुन्दर प्रसंग आता है। सेतुबन्ध के अवसर पर रीछ, बानरों ने राम के प्रति अपने विश्वास का आधार लेकर ही समुद्र में पत्थर तैरा दिए थे, किन्तु स्वयं राजा ने अपने हाथों से जो पत्थर फंके वे नहीं तैर सके। इसी प्रसंग को लेकर शास्त्रकारों ने कहा है, ‘राम से बड़ा राम का नाम’ पर नाम में कोई शक्ति नहीं है। शक्ति है उस श्रद्धा में जो अलौकिक सामर्थ्य उत्पन्न करती है, साधारण स्तर के व्यक्तियों को भी असंप्रज्ञात समाधि की सिद्धि श्रद्धा के आधार पर उपलब्ध होने का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पातंजलि ने कहा है-
श्रद्धावीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम। (योगदर्शन 1। 20)
अर्थात्-श्रद्धा वीर्य समृति समाधि और प्रज्ञापूर्वक सामान्य योगियों की जो विदेह और प्रकृतिलय नहीं है, असंप्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है।
इस सूत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी औमानन्द तीर्थ ने कहा है कि जो विदेह और प्रकृतिलयों से भिन्न है, उन्हें जन्म-जन्मान्तरों से योग में नैसर्गिक रुचि नहीं होती है किन्तु उनको पहले शास़्त्र और आचार्य के उपदेश सुनकर योग में विश्वास उत्पन्न होता है। योग की प्राप्ति के लिए अभिरुचि अथवा उत्कट इच्छा को उत्पन्न करने वाले इस विश्वास का नाम ही श्रद्धा है। यह कल्याणकारी श्रद्धा योगी की रुचि को बढ़ती है, उसके मन को प्रसन्न रखती है और माता के समान कुमार्ग से बचाती हुई उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा के वीर्य उत्पन्न होता है। योग साधन में तत्परता उत्पन्न करने वाले उत्साह का नाम वीर्य है। श्रद्धा के अनुसार उत्साह और उत्साह के अनुसार साधन में तत्परता होती है। परिपूर्ण उत्साह के साथ साधन में तत्पर होने पर पिछली अनुीव की हुई स्थितियों की स्मृति होती है। उन्हें पूर्व संचित-संस्कार भी कहा जा सकता है। श्रद्धा से वीर्य उत्साह और साधना में उत्साह से इन पूर्व सचित संस्कारों का जागरण होता है-शास्त्रीय भाषा में इसे पिछले जन्म के अक्लिष्ट कर्मो और ज्ञान के संस्कारों का जागृत होना कहते है। पूर्व के अक्लिष्ट कर्मों और संस्कारों का जागरण होने से साधन में चित्त एकाग्र चित्त में ही ऋतम्भरा प्रज्ञा का अवतरण होता है, जिसके प्रसाद स्वरुप निर्विकल्प समाधि प्राप्त होती है।
श्रद्धा से वीर्य-उत्साह, उत्साह से स्मृति, स्मृति से समाधि और समाधि से प्रज्ञा का क्रम पूरा होते हुए अन्तिम स्थिति निर्विकल्प समाधि प्राप्त होती है। अर्थात् जीवन का परमलक्ष्य आत्मज्ञान की आधारशिला श्रद्धा ही है। मनीषियों की दृष्टि में श्रद्धा जितनी ही तीव्र होगी उतनी ही शीघ्र लक्ष्य की प्राप्ति होती है, योग-दर्शन-कार ने इसे सम्वेगों की मात्रा के आधार पर नौ रुपों में बाँटा है और उन्हें नौ उपाय प्रत्यय कहा है। मौटे तौर पर इन्हें दो रुपों में बाँटा जा सकता है तीव्र सम्वेग और मृदु संवें इनके भी तीन-तीन भेद किये गए है। मृदु-मध्य और अधिभाग। इनका विवेचन गहन चर्चा का विषय है उसे सरलतापूर्वक नहीं समझा जा सकता। संक्षेप में इतना ही समझा जा सकता है कि श्रद्धा जितनी प्रगाढ़ और सघन होगी, इष्ट की प्राप्ति भी उतनी ही शीघ्र होगी उपनिषद्कार ने भी परम लक्ष्य को प्राप्त करने वालों की पात्रता और गति का उल्लेख करते हुए कहा है-
तपः श्रद्धे ये हयुप सन्त्यरण्ये शाँता विद्वासोपक्ष्यचर्या परतः सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यज्ञामृत स पुरुषो हयव्ययात्मा॥(मुण्डकोपनिषद् 1।2।12)
"वन में रहने वाले शान्त स्वभव के विद्वान अपरिग्रह, अल्पाहारी भिक्षाचारी तप और श्रद्धा का सेवन करते हे तथा रजोगुण रहित सूर्य के मार्ग से वहाँ पहुँच जाते है जहाँ पर जन्म मृत्यु से रहित अविनाशी परमपुरुष रहता है।
प्रश्न उठता है कि आत्मिक प्रगति का सर्वापरि आधार श्रद्धा प्रगाढ़ और परिपुष्ट कैसे हो? इस सम्बन्ध में यह तथ्य भली-भाँति स्मरण रखना चाहिए कि साधकों की सफलता-असफलता या सफलता में विलम्ब केवल श्रद्धा पर ही निर्भर करता है। कष्ट साध्य तपश्चर्याएँ, व्रत उपवास, तितिक्षा आदि का साधन अभ्यास इसलिए कराया जाता है और इनका इतना माहात्म्य इसिलए बताया जाता है कि साधक की श्रद्धा अधिकाधिक परिपुष्ट हो सके और वह अभीष्ट सत्परिणाम अर्जित करने का अधिकारी बन सके। मंत्र, देवता, गुरु, उपासना, साधन-सिद्धि का आधार श्रद्धा की ही आधारशिला पर खड़ा है। देवताओं का जन्म श्रद्धा से ही होता है, वे श्रद्धा से ही जन्मते, बढ़ते, परिपुष्ट होते और वरदान दे सकने में समर्थ सक्षम बनते है। उनका उदय एवं अस्त भी इसी श्रद्धा के अनन्त अन्तरिक्ष में होता रहता है। सच तो यह है क साधना का विशालकाय कलेवर इसलिए खड़ा किया गया है कि श्रद्धा-विश्वास की महाशक्ति का उपयोग आत्मिक प्रगति की उद्देश्य पूर्ति में किया जा सके क्योंकि श्रद्धा से ही व्यक्तित्व का निर्माण और निर्धारण होता है। उसी आधार पर अनेक क्रिया-कलापों का सूत्र संचालन होता तथा सफलता के उच्च स्तर पर पहुँच पाना सम्भव होता है। श्रद्धा ही आत्मा का सब से विश्वस्त और घनिष्ठ सचिव है। उसी के सहारे आत्मिक प्रगति से लेकर सिद्धि चमत्कार के वरदान पाने और आत्म साक्षात्कार से लेकर ईश्वर दर्शन तक के समस्त दिव्य उपहार प्राप्त होते हैं।
इस की स्थापना और श्रद्धा को परिपुष्ट चिरस्थायी बनाने का आधार यही है कि जिस तथ्य पर विश्वास जमाना आवश्यक है उसकी यथार्थता और वैज्ञानिकता को सघन तथ्यों और तर्कों के आधार पर समझ सकने का अवसर दिया जाय। बुद्धि का सर्वतोमुखी समाधन हो सके तो श्रद्धा की स्थिरता सुनिश्चित समझी जा सकती है और उससे अभीष्ट परिणामों की अधिकाधिक अपेक्षा रखी जा सकती है। जिस तिस से सुनकर जल्दी पल्दी कुछमान समझकर यदि कोई श्रद्धा बनेगी तो उसकी जड़े उथली रहने के कारण तनिक से आघात से उखड़ जाने की आशंका बनी रहेगी। प्रायः होता भी ऐसा ही है। अमुक व्यक्ति के कहने से भावावेश उमड़ा और तत्काल वह साधना आरम्भ कर दी। कुछ ही देर बाद किसी दुसरे ने उस विधान में दोष बता दिया और किसी नेय प्रयोग के माहात्म्य सुना दिये तो इतने भर से मन सशंकित हो गया और पिछला मार्ग छोड़ कर नया मार्ग अपना लिया। इस परिवर्तन के बीच यह नई आशंका बनी रहती है कि पिछली साधना जिस प्रकार छोड़नी पड़ी थी उसी प्रकार यह भी न छोड़नी पडे़ और इसमें भी वैसा कोई दोष न हो जैसा कि पहले वाली साधना में थाँ कभी कोई चर्चा बदल कर अपनाई गई नई साधना के विपक्ष और किसी अन्य पक्ष में सुनाई पड़ती है तो उसे भी छोड़ने और न छोड़ने का असमंजस खड़ा हो जाता है। संदिग्ध, शंकाशंकित मन लेकर साँसारिक प्रयोजन तक में कोई कहने लायक सफलता नहीं मिल पाती क्योंकि अध्यात्म क्षेत्र तो पूरी तरह श्रद्धा की शक्ति पर ही आधारित और अवलम्बित रहता है। यदि यह आधार ही न रहा, मूल तथ्य का अभाव बना रहा तो फिर कर्मकाण्डों की कितनी ही लकीर पीटी जाती रहे उससे कुछ बात बनने वाली नहीं है।
उस स्थिति में मिलने वाली असफलताओं का कारण विधि-विधानों की हेरा-फेरी में ढूँढ़ा जाने लगेगा और यह खोज की जाने लगेगी कि किसी क्रिया-कृत्य में कोई अन्तर तो नहीं रह गया, जिससे असफलता मिली या उलटा परिणाम निकला। वस्तुतः विधि-विधानों का महत्व साधना विज्ञान में उतना नहीं है जितना श्रद्धा, विश्वास का। सघन श्रद्धा के रहते अटपटे विधि-विधान भी चमत्कारी परिणाम उपस्थित कर सकते है जबकि अविश्वासी संदिग्ध मनःस्थिति में परिपूर्ण सावधानी बरतते हुए किए गए कर्मकाण्ड भी निष्प्राण होकर रह जाते है तथा उनका परिणाम निराशाजनक ही रहता है। अस्तु साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक साधक को श्रद्धातत्व की परिपक्वता का आधार खड़ा करना आवश्यक समझना चाहिए।
श्रद्धा तत्व का परिपक्व परिपुष्ट आधार किस प्रकार खड़ा किया जाए? इसके दो ही उपाय है, एक तो यह कि शास्त्र वचन, गुरु वचन, परम्परा, अनुशासन को सब कुछ मानकार चला जाए और उसे ही वेदवाक्य मानकर, पत्थर की लकीर समझकर पूर्ण सत्य होने का विश्वास कर लिया जाए और दूसरा यह कि उसतयि का गहन अध्ययन किया जाए, वास्तविकता को समझ कर किसी सुनिश्चित निर्ष्कष पर पहुँचा जाए। इन दो उपयों से श्रद्धा की परिपक्वता के उस स्तर को प्राप्त कर पाना सम्भव है, जिसमें किये गए प्र्रयोग सफल होकर ही रहते है। साधना क्षेत्र में प्रवेश करके आत्मिक प्रगति और उसके आधार पर मिलने वाली उपलब्धियों को श्रद्धा तत्व की गरिमा समझनी चाहिए तथा आप्त वचनों के सहारे, तक्र और तथ्यों का आश्रय लेकर अपने आदर्शों तथा साधनों पर विश्वास भरी निष्ठा परिपक्व करनी चाहिए।