अपनों से अपनी बात - समय की विषमता और जीवन्तों का उत्तरदायित्व

August 1980

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व्यक्ति की आन्तरिक उत्कृष्टता ही इस बात की गारण्टी है कि वह स्वयं सुखी रहेगा और अपने सम्पक्र क्षेत्र को शान्ति एवं प्रगति से लाभान्वित करेगा परिस्थितियाँ मनःस्थिति की प्रतिक्रिया भर है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इन सनातन तथ्यों की कोई भी अपने चिन्तन और चरित्र के अनुरुप उत्थान और पतन का अवसर प्रस्तुत करते हुए दोकर यथार्थता परख सकता है वर्तमान की विभीषिकाओं को निरस्त करने और भविष्य को उज्जवल सम्भावनाओं से भरा-पूरा देखने का जो सपना संजोया गया है उसके मूल में इसी प्रतिष्ठा को आधार भूत माना गया है उसके मूल में इसी प्रतिष्ठा को आधार भूत माना गया है कि जन-जन को उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत किया जायेगा, फलतः शालीनता और सद्भावना का वातावरण बनेगा। इतना बन पड़ने पर सामान्य सुविधर साधनों के सहारे भी शान्ति और प्रगति की परिस्थितियाँ विनिर्मित होती चली जायेगी। नव सृजन का, युग परिवर्तन का, उज्जवल भविष्य का आधार खड़ा करने वाले तत्व इस तथ्य से पूर्णतया आश्वास्त है कि मनुष्य की अन्तरात्मा को जगाया जा कसे तो वह सहज ही शलीनता अंगीकार करेगी। इतनी बात बन सकी तो फिर सुख्या शान्ति की समग्रता में कही कोई कमी न रहेगी।

इन्हीं विश्वासों के सहारे युगान्तरीय चेतना प्रकट और प्रखर होती चल रही है। वातावरण की विषाक्तता में सन्देह नहीं, तो भी मानवी अन्तरात्मा इतनी समर्थ है कि घेरे का दबाब उसे मूर्छित भर कर सकता है आत्यन्तिक हनन करने में सफल नहीं हो सकता। भयानक ग्रीष्म में धरती की घास सर्वत्र सूख जाती है तो भी उसकी जड़ों में अमृतत्व विद्यमान रहता है। ज्यों ही बादल बरसते है, देखते-देखते सूखी जड़ें उगती और धरती पर मखमली कालीन की तरह फैलती चली जाती हैं। पतनोन्मुखी गुरुत्वाकर्षण निश्चित रुप से प्रबल है वह उत्थान को पतन में परिणित करने के लिए सतत संलग्न रहता है। फिर भी उर्ध्व गमन की प्रक्रिया निराश नहीं होती। अग्नि की लपटे उपर ही उठती है। गर्मी हर वस्तु को फुलाती और उठाती है। पृथ्वी के आकर्षण से अग्नि के विकर्षण ने पराभूत होने से इन्कार कर दिया हैं।

इन शाश्वत सिद्धान्तों ने आज की विषम बेला में अपनी प्रामाणिकता का परिचय देने के लिए अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना स्वीकार कर लिया है। प्रस्तुत विषाक्तता से जूझने के लिए सृजन की शक्तियों ने समय की चुनौती सवीकार की है और कहा है ध्वंस नहीं सृजन जीवन्त है। असत्य नहीं, सत्य प्रबल है। नियन्ता का समर्थन पतन के नहीं उत्थान के साथ है। अन्धकार कितना ही सघन या विस्तृत क्यों न हो उसे दीपक की एक छोटी-सी बाती ललकारती रहती है। फिर परिस्थितियों की विषमता देखकर सृजन के मुख पर भलीनता आने का कोई कारण नहीं।

विलासी, लिप्सा और अधिपत्य की अंहता ने मनुष्य को ब्यामोह के बन्धन में बाँधा है। उसे वासना, तृष्णा के प्रपंच में जकड़ा और अपंग, असहायों की दयनीय स्थिति में ला पटका है। पतन का दाव चल गया। क्योकि उसे अवरोध का सामना नहीं करना पड़ा। यदि आत्मा पर जागृतो जैसी तेजस्विता दृष्टिगोचर होती तो क्षुद्रता को ऐसा दुस्साहस करते न बन पड़ता कि वह महानता को पदच्युत करके स्वयं सिंहासनारुढ़ होती है। दुर्देव का प्रकोप ही कहना चाहिए कि संसार भर को प्रकाश देने वाले पूर्व ने अन्धकार का अधिपत्य स्वीकार कर लिया और लम्बा समय उनीदा तमस्त्रा में पडे़-पडें़ गँववा दिया। ग्रहण का कलंक देर तक सूर्य, चन्द्र को अपने चंगुल में ग्रसित किये नहीं रहता। प्रकाश की सत्ता है, अन्धकार की नहीं। प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। अदीयमान प्रकाश का सामना न करना पडे़ तभी तक उसकी सत्ता है। आलोक के उदित होने पर उसका पलायन देखते ही बनता है।

उद्बोधन और आलोक न मिले तो ब्यामोह और भटकाव की स्थिति देर तक भी बनी हर सकती है, पर प्रभात की जागरण बेला अपना शंखनाद करती रहे और तंद्रा पर उसका कोई प्रभाव न पड़े ऐसा हो नहीं सकता। अणोदय के साथ अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाली उर्जा जब वृक्ष वनस्पतियों से लेकर कीट, पतंगों और पशु-पक्षियों तक को जगरुकता एवं सक्रियता अपनाने के लिए उत्तेजित करती है तो कोई कारण नहीं कि मानवी अन्तःकरण रखने वालों पर उसका कोई असर न पड़े। उनकी बात दूर है जो काया तो मनुष्य आकृति की पहने बैठे है, पर उसके भीतर निवास अभी भी पशु ही कर रहा है।

नव-जागरण की इस प्रभात बेला में इन दिनों सर्वत्र नये ढंग से सोचना और नया क्रम अपनाने की हलचल दृष्टिगोचर ही रही है। सघन तमिस्त्रा में गहरी निद्रा बनी रहे और प्राणी मृतवत् पड़ा रहे तो आर्श्चय की बात नहीं किन्तु जब दिनमान प्रखरता बढ़ती ही चल रही हो और हलचलों में तूफानी गतिशीलता उछल रही हो तो फिर आलसी और प्रसादी भी लम्बी चादर तान कर सोये एवं निष्क्रिय पडे़ नहीं रह सकते। स्वयं न जगे तो समय जगा देता है। कोई कुछ करना न चाहे तो भी परिस्थितियाँ कुछ करने कराने के लिए विवश करती है। इन दिनों ऐसा ही हो भी रहा है। जागरण का दौर शरीरगत सक्रियता में ही नहीं मनोगत विचार मंथन में भी प्रकट और प्रकट हो रहा है। चिन्तन को नई दिशा मिली है। पिछले दिनों पेट भरना ही प्रमुख रहा हैं। लोभ को प्रमुखता मिली है और विलास एवं संचय को ही सौभाग्य का चिन्ह समझा जाता रहा है। पिछले दिनों लोभ की ही तरह मोह भी मनुष्य को निर्विवाद बन्धनों में बाँधने के लिए वेदी की भूमिका निभाता रहा है। दोनों अभिन्न मित्र जो है। लोभ की हथकड़ी बनने का अवसर मिल रहा है तो मोह भी सहचरत्व का आनन्द क्यों न ले। वह बेड़ी बनकर साथ क्यो न रहा हो। जब किसी को जकड़ना, पकड़ना ही ठहरा तो दोनों अभिन्न मित्र समान पराक्रम क्यों न करे? समान लाभ क्यों न उठायें? समान श्रेय और क्यों न पाये?

तमिस्त्रा भरी लम्बी काल रात्रि में निशाचरों की ही पाँचों घी में रही है। हिस्त्र पशु-पक्षी आक्रमक बनते रहे है। उल्लू और चमगादड़ स्वच्छन्द विचरे है। चोर चाण्डालों ने निद्वन्द होकर घातें लगाई है। इसमें साधनों का अपव्यय, अपहरण तो हुआ ही है। सबसे बडे़ दुर्भाग्य की बात यह रही कि तन्द्रा ने आलस और .... बनकर स्वभाव पर आधिपत्य कर लिया और मनुष्य को अपंग जैसा बना कर रख दिया। अपंग का एक अर्थ बाधित भी होता। बाधित अर्थ बन्दी। बन्दी अर्थात् जकड़ा हुआ। यह जकड़न थोपी गई या स्वेच्छापूर्वक अपनाई गई यह बात दूसरी है। लोभ की हथकड़ी पहने हुए व्यक्ति हाथों के अवरुद्ध हो जाने पर कुछ कर नहीं सकता, इसी प्रकार मोह की बेड़ियों में कस जाने के उपरान्त किसी के लिए कुछ चल सकना भी शक्य नहीं रहता। श्रेय पथ पर वे लोग चल नहीं सकते जिन्हे मात्र अपने छोटे-से कुटुम्ब को ही इन्द्रासन सौंपे जाने की बात सूझती है। ऐसा को लोक-मंगलके लिए कुछ करने की इच्छा क्यों उठेगी? जिन्हें लालच के लिए ही खपना खटकता है वे क्यों परमार्थ को प्रश्रय देगे? उनके लिए संव्याप्त पीड़ा और पतन को हलके करने के लिए उपलब्धियों में से कुछ कारगर अंशदान कर सकना कठिन है। लम्बी तमिस्त्रा ने पिछड़ों को निष्क्रिय और प्रगतिशीलों को संकीर्ण स्वार्थ परायण बनाकर रख दिया। लिप्सा और लालसा की ललक बढ़ती ही गई। वासना और तृष्णा में मन ऐसा रमा कि यह सूझना तक रुक गया कि जीवन क्रम में इससे आगे की भी कोई मंजिल या जिम्मेदारी है। बड़प्पन और विलास की वारुणी जब मनःतन्त्र पर पूरी तरह हावी हो रही हो तो दीन दुनिया को समस्याएँ, आवश्यकताएँ सूझे भी कैसे? सूझे तो उनके समाधान का कोई उपाचार कैसे बने?

यह है कि उस भूत का पर्यवेक्षण जो अभी आधा अधूरा ही विगत हो पाया है। फिर भी इतना तो निश्चित हैकि नव प्रभात की उर्जा ने झकझोरे बिना छोड़ा किसी को नहीं। जीवन्तों में से हर एक को यह विचार करना पड़ रहा है कि परिवर्तन की इस पुण्य बेला में क्या उसे भी कुछ करना पडे़गा? समय के साथ चलने के बिना क्या उसका भी काम नहीं चलेगा?

यह अन्तःमथन उन्हें खासतौर से बेचैन कर रहा है जिनमें मानवी आस्थाएँ अभी भी अपने जीवन्त होने का प्रमाण देती और कुछ सोचने करने के लिए नोंचती, कचोट्ती रहती है। उन्हे सोचना पड़ रहा है कि परिवर्तन से भरी इस युग सन्धि में उस तरह नहीं रहा जा सकता जैसा कि पिछले दिनों चलता रहा है। इन दिनों न समय की माँग अनसुनी की जा सकती है और न आत्मा की पुकार को देर तक दबाया जा सकता है। विनाश से जूझने और विकास को सींचने के लिए जब जागरुकों की सेना कमर कस कर अग्रगामी हो रही हो- प्रमाण ही शंख ध्वनि से दिगंत गूँजे रहा हो तो मुँह छिपा कर बैठे रहना भी तो सरल नहीं है। उसमें भी भीतर का रुदन और बाहर का उपहास बाधक बनता हैं संकीर्ण स्वार्थपरता में आवद्ध बने रहने की स्थिति तब तक तो अखरती नहीं थी जब अन्यत्र भी वैसा ही दौर चल रहा थाँ। पर जब जागृति ने हर जगह सक्रियता उत्पन्न की है और आदर्शो को जीवन्त करने के लिए कुछ कर गुजरने की ठान ठानी है तो मुँह छिपा कर बैठे रहना भी कठिन है। लोकभर्त्सना से तो किसी बहाने बैचा भी जा सकता है, पर आत्म-प्रताड़ना से छुटकारा कैसे मिले?

यह प्रकट रहस्य है कि अखण्ड-ज्योति के परिजनों में से अधिकाँश ऐसे है जिन्हे जागृत आत्मा कह जाने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। रुचि और रुझान के अनुरुप ही समुदाय एकत्रित होते है। प्रकृति की अनुरुपता ही वर्ग बनाती और घनिष्ठता के सूत्र जोड़ती है। पत्रिका तो निर्मित मात्र है। पठन का व्यसन-साहित्य की खरीद बेच भर का ताना-बाना बुनता है और वह भी ऐसा होता है जो कच्चे धागे की तरह स्थापित पकड़ नहीं पाता। उससे अच्छी वस्तु दीखी कि पुरानी छूटी। पर ऐसा यहाँ कभी हुआ ही नहीं। लेखा-जोखा साक्षी है कि जो एक बार इस परिवार में प्रवृष्ट हुआ वह सदा सर्वदा के लिए उसी का परिजन होकर रह गया। अखण्ड-ज्योति को एक ऐसा सूत्र कह सकते है जिसमें बहुमूल्य मणि-मुक्तकों की माल गुँथी हुई है। हम लोग जागृत जीवन्तों की तरह एक आदर्शवादी परिवार बन कर रह रहे है।

यह मिलन पठन-पाठन की सामग्री जुटाने या खपाने के लिए नहीं वरन् उस महान उद्देश्य के लिए हुआ है जिसमें व्यक्ति और समाज का समान रुप से हित-साधन सत्रिहित है। जिसमें आत्मा और परमात्मा को समान रुप से सन्तुष्ट होने का अवसर है। महानता का रास्ता ऐसा है जिस पर वाहन के सहारे नहीं अपने पैरो से ही चलना पड़ता। जो इतना साहस सँजो लेते है उनके लिए मंजिल के हर विराम पर अपेक्षाकृत अधिकाधिक आनन्द की सामग्री मिलती जाती है। प्रगति के हर चरण पर पहले से अधिक प्रसन्नता की स्थिति उपलब्ध होती है।

व्यष्टि को क्षुद्र और समष्टि को महत् कहते है। विराट ब्रहमा है। संकीर्ण स्वार्थपरता की कीच्ड़ में सना हुआ व्यक्तिवाद ही भव-बन्धन है। इसी में फँसा हुआ कुँभीपाक नरक में सड़ने का कष्ट उठाता है। कहते है कि नरकों में एक ऐसा भी है जिसमें घड में बन्द होकर रहने का कष्ट सहना पड़ता है। यह कुँभीपाक व्यथा और कुछ नहीं व्यक्तिवादी संकीर्णता में आवद्व रहने की घुटन भर है। पेट और प्रजनन में लिप्त मनुष्य सोचता तो कुछ इसी प्रकार है कि वह दूसरों की तुलना में अधिक चतुर है। लेना सबसे देना किसी को कुछ नहीं की नीति आकर्षक भी लगती है, चतुरता युक्त भी। किन्तु वास्तविकता कुछ दूसरी ही हैं ऐसे मनुष्य अत्यधिक घाटे में रहते है। आत्म-सन्तोष, लोक-सम्मान अैर देवों अनुग्रह के तीनों की महान लाभों से उन्हें सर्वथा वंचित रहना पड़ता है, फिर प्रगति भी सीमित क्षेत्र में ही सम्भव होती है। ऐसे लोग जो पाते है अपव्यय में गँवाते है। साथ ही जन-सहयोग के अभाव में अपने बलबूते उतना कम जमा कर पाते है, जिन पर कोई गये गुँजरे स्तर वाला ही सन्तोष कर सकता है। यह संग्रह जिन्हे मुफ्त में मिलता है उनका चिन्तन और चरित्र उठता नहीं गिरता है। इस प्रकार यह हराम में मिला उत्तराधिकार उनके लिए भी अभिशाप ही सिद्ध होता है जिन्हे इच्छा या अनिच्छा से देना पड़ा।

चतुर लोगों की इन दिनों भरमार है। बुद्धिमानों के दर्शन दुर्लभ हो गये है। बुद्धिमता का निर्धारण और निर्देशन एक ही है कि ‘महानता का मार्ग अपनाया जाय। इसमें किसानों को बीज बोने, उद्योंगी को कारखाना लगाने, विद्वान को अध्ययन करने के समय त्याग करना पड़ता हैं लाभदायक प्रतिफल को देखते हुए यह आरम्भिक विनियोग किसी भी दृष्टि से घाटे का सौदा नहीं हैं। महानता का वृक्षारोपण कुछ ही समय में कल्पवृक्षों क नन्दन वन की तरह फूलता-फलता है। तत्काल होने की आतुरता हो तो फिर हथेली पर सरसों जमाकर दिखाने वाली बाजीगरी के कुचक्र फँसने और जंजालों में भटकने के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं है।

महानता का अवलम्बन करके असंख्य व्यक्ति क्षुद्र परिस्थितियों में जन्मने-पलने पर भी अपनी विशिष्टिता के आधार पर उच्च स्थिति पर पहुँचे और यशस्वी हुए है। इन उदाहरणों में एक ही निर्ष्कष निकलता है कि महानता उस उद्यान को लगाने की तरह है जो आरभ में परिश्रम और साधन चाहता है किन्तु समयानुसार सुरभि और सम्पदा के उभयपक्षीय अनुदान उत्साहवर्धक मात्रा में प्रदान करता है। यह महानता आखिर है क्या जिससे व्यक्तित्व विशिष्टता युक्त एवं वर्चस्व वैभव सम्पन्न बनता चला जाता है? उसका उत्तर एक ही है-समष्टि की साधना। लोकसेवा-जनकल्याण इसे अपनाने का एक ही उपया है-स्वार्थ को परमार्थ के निमित्त विसर्जित करना। इस दुस्साहस को जो जिनी मात्रा में क्रियान्वित कर पाता हे वह उसी अनुपात से अपने को बुद्धिमान एवं भाग्यवान अनुभव करता है। परिणामों को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर सकने वाले अपने अनुभव एक स्वर से यही सुनाते रहे है कि समष्टि की सेवा साधना से बढ़कर लाभदायक उद्योग इस संसार में और कोई है ही नहीं। इसे अपनाने पर स्वार्थ और परमार्थ की उभयपक्षीय पूर्ति सहज ही होती रहती है।

इस युग सन्धि की ऐतिहासिक बेला में दूरदर्शिता और सदाशयता की संयुक्त माँग एक ही है कि इन दिनों संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाया जाय और जो बच सके उसे नव सृजन के पुण्य प्रयोजन में भावनापूर्वक लगाया जाय। धन का अभाव हो सकता है किन्तु श्रम, समय एवं मनोयोग की किसी के पास भी कमी नहीं हो सकती है। रुचि होने पर भी निरर्थक कामों में भी अत्याधिक व्यस्त समझे जाने वाले लोग भी ढेरों श्रम, समय और साधना लगाते रहते है। फिर इसमें तो निर्धनों को भी कठिनाई नहीं हो सकती। व्यस्तता का बहाना करके समय दान और तंगी की आड लेकर अंशदान न दे सकने का तक्र तो दिया जा सकता है, पर औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। न बहानेबाजी को सच्चाई बताने का प्रयास सफल हो सकता है। तथ्य में ‘अरुचि’ भी काम कर रही होती है। जागृतो के उत्तरदायित्व और समय की माँग की संगति बिठाई जा सके तो इसी निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ता है कि इन दिनों वैयक्तिक जंजालों को थोड़ा हलका किया जा सकता है और उस बचत को उन परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जा सकता है जो युग सन्धि के इस पर्व पर मानवी सभ्यता के विकास या विनाश में ये एक का चुनाव करने के साथ सम्बद्ध हैं। लिप्सा, लालसा में हो तो चौरासी लाख योनियो में भटकते हुए लम्बा समय बीता है अब यदि इस जीवन के बचे-खुचे समय का कहने लायक अंश युग धर्म के निवार्ह में लगा दिया जाय तो कोई बड़ा घाटा पड़ने वाला नहीं है। पेट प्रजनन की प्रक्रिया तो अगले दिनाँक हेय योनियों के कुचक्र में फँसे रहने पर भी भली प्रकार चलती रह सकती है।


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