तीसरे विश्व युद्ध की सर्वनाशी विभीषिका

August 1980

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इन दिनों भविष्य ज्ञान की एक नई ही शाखा विकसित हुई हैं सामान्यतः ग्रह नक्षत्रों की गणना के आधार पर ज्योतिषी भविष्य में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करते है। ऐसे ज्योतिषी भविष्यवक्ता और अन्तदृष्टि सम्पन्न दिव्य-दृष्टा आगामी दिनों की विभीषिकाओं के चित्र खींचते रहते है। उनमें से कइयों की भविष्यवाणियाँ अखण्ड-ज्योति के पिछले अंकों में प्रकाशित हुई है। इन पंक्तियों में भविष्य ज्ञन की जिस शाखा की चर्चा की जा रही है, वह इस तरह की भविष्यवाणियों से सर्वथा भिन्न है। इन शाखा को (फ्यूचरोलाँजी) अर्थात् भविष्य शास्त्र कहा जाता है। इस विज्ञान में पृथ्वी की दशा, विभिन्न देशों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, युद्ध सम्बन्धी तैयारियाँ, वैज्ञानिक प्रगति और मानव जीवन पर पड़ने वाले उसके प्रभावों से सम्बन्धित विभिन्न पक्ष पहलुओं के आँकड़े और तथ्य एकत्रित किये जाते है तथा उकसे आधार पर भविष्य का प्रतिपादन किया जाता है।

पश्चिमी देशों में इस विषय पर अनेकों पुस्तकें लिखी गई है और वे सबकी सब धड़ाधड़ बिकी है। हाल ही में ब्रिटेन के एक उच्च पदस्थ सैनिक अधिकारी जनरल सरजान हैकेट और उनके अन्य सहयोगियों द्वारा लिखी गई ‘द थर्ड वर्ल्ड वार इन नाइंटीन एट्टी फाइव’ पुस्तक प्रकाशित हुई हैं यह पुस्तक इतिहास की शैली में लिखी गई और चँकि सरजान हैकेट ब्रिटिश सेना के उच्च पद पर रहे है, इसलिए उन्हें संसार के विभिन्न देशों के आन्तरिक सम्बन्धों का भी गहन ज्ञान है। इस पुस्तक के सम्बन्ध में एक प्रख्यात भारतीय पत्रकार ने लिखा है, ‘प्रो. हर्मन काव, डैनियल वैल जैसे अनेक विद्वान पिछले वर्षों में संगठनों की मदद से भविष्यवाणियों को विज्ञान का दर्जा दिलाने की कोशिश करते रहे है। ये प्रयत्न प्रवृत्तियों को रेखाँकित करने तक ही सीमित रहें है, पर जनरल हैकेट की यह पुस्तक प्रवृत्तियों के अस्थि पंचर पर रक्तमज्जा ही नहीं बल्कि चर्म तक आरोपित कर चुकी है।

सरजान हैकेट किसी समय नारो सैनिक संगठन के सर्वोच्च अधिकारी रहे है। अतः उनके विश्व के विभिन्न देशों की सामरिक शक्ति के सम्बन्ध में उनकी प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता हैं। पुस्तक चूँकि ऐतिहासिक उपन्यास की शैली में लिखी गई है, इसलिए उसमें घटनाओं को कल्पना का रंग तो दिया गया है। सम्भव है, घटना क्रम ज्यों का त्यों न घटे, पर उससे उन्नत और विकसित देशों की शक्ति का जो अन्दाजा लगता है और यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि इस समय दुनिया एक बारुद के ढेर पर बैठी है, जिसमें कभी भी कोई भी चिनगारी विस्फोट कर सकती है।

‘द थर्ड वर्ल्ड वार’ के अनुसार युद्ध की शुरुआत अन्तरिक्ष में होती है और विस्फोटक पदार्थों तथा विभिन्न रसायनों द्वारा हवाई अड्डों को नष्ट किया जाता है। युद्ध के प्रथम चरण में ही ऐसे विषैले तत्वों का उपयोग किया जाता है, जिनके कारण बड़ी संख्या में लोग घातक रोगों के शिकार होने लगते है। एच.सी.एन. जैसे विषैले तत्वों के सम्पक्र में आते ही लोग मिनटों में मरने लगते हैं।

आणविक शस़्त्रास्त्रों के उपयोग की सम्भावना से कई लोग इसलिए इन्कार करते है कि उनके खतरों से प्रयोग करने वाले राष्ट्र भी बचे नहीं रहेंगे। परन्तु ‘द थर्ड वार 1895 में लेखकों ने बताया है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो इनका उपयोग किया जाना निश्चित है। परमाणु अस्त्रों के अलावा भविष्य में होने वाले युद्ध में ऐसे अस्त्रों का प्रयोग भी सम्भव है जो परमाणु अस्त्रों से घातक है। इन अस्त्रों में लेसर किरणों का उपयोग प्रमुख्य है। सन् 1958 में हम्जेस एयर-क्राफ्ट कम्पनी के वैज्ञानिक थियोडोर एच. मेनान ने लेसर किरणों की खोज की। पिछले 22 वर्षों में इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर खोज हुई है और अब अमेरिका तथा रुस दोनों इस स्थिति में आ गये कि इस किरण का उपयोग शस्त्र के रुप में कर सके। दोनों ही देश प्रति वर्ष खरबों डाँलर लेसर किरणों के प्रयोग की तकनीक को विकसित करने में लगे है। इन देशों में ऐसे य़न भी बना लिये गये है, जिन्हे लेसर गन कहा जाता है, जिनकी सहायता से कितनी भी दूर, किसी भी पदार्थ पर लेकर किरणें फ्रेंक कर उसे नष्ट किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ये किरणें प्रकाश के वेग से चलती है। यह है तो प्रकाश ही। कोई भी प्रक्षेपास्त्र या प्रतिप्रक्षेपास्त्र इनकी गति प्राप्त नहीं कर सकता थाँ इनकों छोड़ने और शिकार तक पहुँचने के बीच नगण्य-सा समय लगता है। साथ ही इन्हें न तो किसी प्रकार रास्ते में रोका जा सकता है और न ही इनका मार्ग बदला जा सकता है।

प्रकाश की एक विशेषता होती है कि उसकी किरणें फैलती हुई चलती है किन्तु लेसर किरणें सामान्य प्रकाश की तरह नहीं फैलती बल्कि एक ही घनत्व में चलती है और एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से अपने लक्ष्य या शिकार की ओर बढ़ती है। सन् 1975 में रुस ने अन्तरिक्ष में लेसर किरणों का प्रयोग किया। प्रथम पहले प्रयोग में साइबेरिया से छोड़े जाने वाले प्रक्षेपास्त्रों की जासूसी करने वाले दो अमरीकी उपग्रहों पर इन्फ्रारेड किरणें फेंकी गईं। इन किरणों के प्रभाव से उपग्रह ने काम करना बन्द कर दिया।

खैर, यह तो शन्तिकाल का प्रयोग हुआ। ‘जैन्सवैपन्स सिस्टम’ की 1977-78 की वार्षिक में लेसर उपकरणों का जो विवरण है वह न केवल चौका देने वाला है, वरन् इतना आतंककारी है कि सामान्य व्यक्ति उसे पढ़कर ही थरथरा उठते है। लेसर किरणों का प्रक्षेपण करने वाले यन्त्र का भार मात्र 6॥ किलोग्राम है यानी एक साधारण बन्दूक से भी कम वजनदार और इसका आकार छोटी नाल वाली रायफल के बराबर होता है। अपने लक्ष्य की दूरी का पता लगाने वाले लेसर उपकरण एक सैकिण्ड से भी कम समय में हिसाब लगा लेते है और इस जानकारी को दूरस्थ वायुयान या गतिशील प्रक्षेपास्त्र तक अचूक मार के लिए भेज सकते है।

लेसर किरणों की भयावहता को इसी बात से जाना जा सकता है कि इन्हें ‘मृत्यु किरण’ नाम दिया गया है। संसार के सभी सागरों में ब्रिटेन, अमेरीका और रुस की पनडुब्बियाँ इन दिनों प्रेक्षपास्त्र और लेसर गन लिए घूम रही है। अमेरिका और रुस ऐसे उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज चुके है, जिनमें रासायनिक तत्वों से सज्जित उपकरण है और वे एक सैकिण्ड बीस खरबें भाग में 200 खरब वाट बिजली के बराबर प्रकाश किरण पैदा करते है जो किसी भी धातु को पिघला कर भाप बनाने में सक्षम है। यह प्रक्रिया इतनी तेजी से सम्पन्न होती है कि जिस वस्तु को लेसर का लक्ष्य बनाया जाता है वह तत्क्षण अन्तर्ध्यान हो जाती है, पता ही नहीं चलता कि वह थी भी अथवा नहीं।

दूसरे महायुद्ध में नागासाकी और हिरोशिया पर जो अणुबम छोड़ गये वे तो अब के अणु और परमाणु बमों की तुलना में हथगोले ही सिद्ध होते है। 6 अगस्त 1945 का जापान में हिरोशिया और तीन बार 9 अगस्त को नागासाकी 42,500 गज उपर से डाले गये इन बमों को पृथ्वी तक पहुँचने में कुल 52 सैकिण्ड का समय लगा था, इन बमों ने आकाश में ही आग-सा विशाल गेंद का रुप ग्रहण कर लिया जिसका तापमान दस करोड़ डिग्री सेन्टीग्रेड था और एक मील दूर से वे सूर्य की अपेक्षा सौ गुना दिखाई दे रहे थे। इस घटना को 35 वर्ष हो गये हैं यों 35 वर्ष कोई बहुत बड़ी अवधि नहीं होती, परन्तु परमाणु विज्ञान ने इस बीच जो तरक्की की है वह हजारों साल के बराबर है।

कई देश परमाणु बम से भी आगे निकल गये है और उन्होने हाईड्रेजन बम का निर्माण कर लिया है। परमाणु बम इसकी तुलना में बच्चा ही सिद्ध होता है। परमाणु बम विस्फोट के नियम के आधार पर काम करता हैं। उसमें परमाणु का विस्फोट होता है, मगर हाईड्रोजन बम का निर्माण संयुजन (फ्येजन) अर्थात् मिलन के नियम के आधार पर होता है, जिससे अपार उर्जा और गरमी उत्पन्न होती है। इन बमों की भयंकरता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस बम का विस्फोट हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले उसके खोल के भीतर ही एक परमाणु बम विस्फोट हो, जिसकी गरमी से हाईड्रोजन बम का विस्फोट हो सके। अब तो यह भी सम्भव हो गया है कि एक ही परमाणु बम समूची पृथ्वी पर प्रलय मचा सकता हैं।

अणु और परमाणु अस्त्रों, लेसर किरणों, मिसाइलों, कीटाणु बमों के सम्बन्ध में विश्व के मूर्धन्य विचारक चिन्तित है और जो तथ्य सामने आ रहे है, उन्हें लेकर तीसरा विश्व युद्ध यदि हुआ तो पृथ्वी पर प्रलय मच जाने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध पत्रकार रोविन क्लाक्र ने अपनी पुस्तक ‘द साय-लेन्स वेपन्स’ में लिखा है कि अब सर्वनाश का अनुष्ठान, प्रलय का आयोजन बिना किसी धूमधड़ाके के सम्पन्न हो सकता है। इन दिनाँक ‘वोटुलिनम टाक्सिन’ नामक ऐसा महा विष ढूँढ़ निकाला गया है जिसकी 500 ग्राम मात्र पूरी पृथ्वी के जीवधारियों को नष्ट कर सकती है।

‘स्क्रिप्स इन्टट्यूशन आँ ओशनोग्राफी’ के निर्देशक विलियम ए. नाइटेन वर्ग ने अपने लेख ‘मिलिट’ राइड ओशंस’ लेख में लिखा है कि अगले दिनों भूमि हथियाने की तरह समुद्र हथियाने की प्रतिद्वन्द्विता बड़े राष्ट्रों में चल पडे़गी और जल के भीतर रहने वाले ऐसे वाहनो का विकास होगा जो घातक आक्रमणकारी अस्त्रों से सुसज्जित रहेंगे और स्थल की तरह ही जल को रणाँगण बनायेगे।

भावी परमाणु युद्ध या तीसरे विश्व युद्ध के महाविनाश के उपरान्त मनुष्य जाति का अस्तित्व बचेगा या नहीं? इसका उत्तर नहीं में ही दिया जाता है। इसमे बाद वाला प्रश्न यह है कि इस महाविनाश के उपरान्त क्या फिर कभी मनुष्य का अस्तित्व प्रकाश में आ सकेगा? वैज्ञानिक इसका उत्तर जरुर हाँ में देते है उनका उत्तर है कि तब थलचर तो प्रायः सभी समाप्त हो जायेगें, पर जलचरो में जीवन का अस्तित्व बना रहेगा। समुद्र इतना बड़ा है कि तीन हजार अणु विस्फोटों को वह हजम कर सकता है। निस्सन्देह इसमे उपरी सतह के प्रायः सभी प्राणी मर जाएँगें। इस गहराई तक हवा का प्रभाव पहुँचता है और नदियों द्वारा पानी आता तथा बादलों द्वारा जाता रहता है। पर इसके नीचे में की गहराई बिना रीढ़ वाले ऐसे कीडे़ रहते ळै जो कभी भी उपर नहीं आते। कहा जाता है कि रेडियों विकिरण का प्रभाव समुद्र जल में प्रवेश तो करेगा, पर छह मील गहराई तक पहुँचते-पहुँचते खारे जल में घुल जायेगा।

लाखों वर्ष बाद जब धरती और समुद्र की तह रेडियों सक्रियता से युक्त होगी तो तली में रहेन वाले वे कीड़े उभर आयेगें और जिस प्रकार अब से करोड़ों वर्ष पूर्व एक कोशीय जीव से बहुकोशीय जीवों का विकास क्रम आरम्भ हुआ था और क्रमशः अधिक समर्थ तथा बुद्धिमान प्राणी बनते बढ़ते चले आये थे, उसी प्रकार करोड़ों, अरबों वर्ष बाद मनुष्य जाति फिर से अस्तित्व में आ सकेगी। यह आशा करना आकाश कुसुम तोड़ना ही है। सवाल तो यह है कि एक बार तो पृथ्वी मनुष्य जाति से रहित हो ही जाएगी। उसके बाद किस क्रम से उसका अस्तित्व प्रकाश में आता है अथवा नहीं आता है? यह प्रश्न गौण है।


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